Hanuman ji ki Divya Bhakti

 Stories:

  1. हनुमान जी ने क्यों अपना हृदय चीर कर प्रभु श्री राम और माता सीता के करवाएं दर्शन
  2. हनुमान जी के हृदय में श्री राम बसते हैं !


📌📌 हनुमान जी ने क्यों अपना हृदय चीर कर प्रभु श्री राम और माता सीता के करवाएं दर्शन


Hanuman




जिसके बाद भगवान राम बोले, ‘हे अनुज तुम मुझे मेरे जीवन से भी अधिक प्रिय हो, जिस कारण से हनुमान ने उन रत्नों को तोड़ा है यह उन्हें ही मालूम है। इसलिए इस जिज्ञासा का उत्तर हनुमान से ही मिलेगा। तब राम भक्त हनुमान ने कहा ‘मेरे लिए हर वो वस्तु व्यर्थ है जिसमें मेरे प्रभु राम का नाम ना हो। मैंने यह हार अमूल्य समझ कर लिया था, लेकिन जब मैनें इसे देखा तो पाया कि इसमें कहीं भी राम-नाम नहीं है। उन्होंने कहा मेरी समझ से कोई भी वस्तु श्री राम के नाम के बिना अमूल्य हो ही नहीं सकती।अतः मेरे हिसाब से उसे त्याग देना चाहिए। यह बात सुनकर भ्राता लक्ष्मण बोले कि आपके शरीर पर भी तो राम का नाम नहीं है तो इस शरीर को क्यों रखा है? हनुमान तुम इस शरीर को भी त्याग दो। लक्ष्मण की बात सुनकर हनुमान ने अपना वक्षस्थल नाखूनों से चीर दिया और उसे लक्ष्मणजी सहित सभी को दिखाया, जिसमें श्रीराम और माता सीता की सुंदर छवि दिखाई दे रही थी। यह घटना देख कर लक्ष्मण जी से आश्चर्यचकित रह गए, और अपनी गलती के लिए उन्होंने हनुमानजी से क्षमा मांगी।



जय श्री राम !


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पौराणिक कथा के अनुसार भगवान राम के राज्याभिषेक के बाद दरबार में उपस्थित सभी लोगों को उपहार दिए जा रहे थे। इसी दौरान माता सीता ने रत्न जड़ित एक बेश कीमती माला अपने प्रिय हनुमान को दी। प्रसन्न चित्त से उस माला को लेकर हनुमान जी थोड़ी दूरी पर गए और उसे अपने दांतों से तोड़ते हुए बड़ी गौर से माला के मोती को देखने लगे। उसके बाद उदास होकर एक-एक कर उन्होंने सारे मोती तोड़-तोड़ कर फेंक दिए। यह सब दरबार में उपस्थित लोगों ने देखा तो सब के सब आश्चर्य में पड़ गए। जब हनुमान जी मोती तो तोड़ कर फेंक रहे थे तब लक्ष्मणजी को उनके इस कार्य पर बहुत क्रोध आया,इस बात को उन्होंने श्री राम का अपमान समझा। उन्होंने प्रभु राम से कहा कि ‘हे भगवन, हनुमान को माता सीता ने बेशकीमती रत्नों और मनकों की माला दी और इन्होंने उस माला को तोड़कर फेंक दिया।




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❤️  हनुमान जी के हृदय में श्री राम बसते हैं !❤️


हनुमानजी लंका अकेले नहीं गए थे, अपने हृदय के सिंहासन पर श्रीराम को विराजमान कर ले गए थे। तभी तो सीताजी के समक्ष हनुमानजी के हृदय में विराजमान राम अपनी विरह-व्यथा स्वयं ही कहते हैं–’कहेउ राम वियोग तव सीता।’


🕉 हनुमानजी का सिन्दूर प्रेम 🕉


हनुमानजी को ‘सिन्दूरारूणविग्रह’ कहा जाता है। हनुमानजी की प्रतिमा पर घी में सिन्दूर मिलाकर चढ़ाने की परम्परा है। आयुर्वेद के अनुसार सिन्दूर और सिन्दूर मिश्रित तैल में अस्थि और सभी प्रकार के व्रण को स्वस्थ करने की अद्भुत शक्ति होती है। हनुमानजी को सिन्दूर का चोला क्यों चढ़ाया जाता है, इस सम्बन्ध में कई कथाएं प्रचलित हैं–


राज्याभिषेक के बाद भगवान श्रीराम दरबार में बैठकर सभी लोगों को उपहार दे रहे थे। श्रीराम ने सबसे अमूल्य अयोध्या के कोष की मणियों की माला सीताजी को दी और कहा यह हार तुम्हें जो अत्यन्त प्रिय हो, उसे दे देना। सीताजी ने हनुमानजी के गले में वह हार डाल दिया। हनुमानजी उस हार की मणियों को तोड़कर ध्यान से देखने लगे।। दरबार में बैठे सभी लोग हनुमानजी पर हंसने लगे और कहने लगे–आखिर हनुमान बंदर ही ठहरे, इन्हें मणियों का मूल्य क्या मालूम? 


एक दरबारी ने हनुमानजी से पूछा कि इनमें तोड़-तोड़कर तुम क्या देखते हो? इस पर हनुमानजी ने कहा–’मैं इसकी बहुमूल्यता की परख कर रहा हूँ, किन्तु इसके भीतर न कहीं राम का रूप दीखता है और न ही नाम।’ तब उस दरबारी ने कहा–’तुम अपने शरीर के भीतर देखो कि इसमें कहीं राम का नाम या रूप चित्रित है?’ 


इस पर हनुमानजी ने अपने नखों से सारे शरीर को विदीर्ण कर डाला। आश्चर्य की बात यह थी कि उनके रोम-रोम में ‘राम’–यह दिव्य नाम व हृदय में ‘श्रीसीताराम’ का दिव्य रूप अंकित था। सीतामाता ने यह देखकर सिन्दूरादितैल के लेप से हनुमानजी के व्रणों (घावों) को पुन: स्वस्थ कर दिया। तभी से हनुमानजी सिन्दूरारूण विग्रह के रूप में सुशोभित होने लगे। सीतामाता के प्रसाद के रूप में सिन्दूर उन्हें बहुत प्रिय हो गया।


शास्त्रों में सिन्दूर को मांगलिक व सौभाग्य-द्रव्य माना गया है जिसे सुहागिन स्त्री पति की आयु वृद्धि के लिए धारण करती है। एक बार हनुमानजी ने सीताजी से पूछा कि वे सिन्दूर क्यों धारण करती हैं? इस पर सीताजी ने कहा–’वत्स! इसके धारण करने से तुम्हारे स्वामी की आयु की वृद्धि होती है।’ फिर क्या था हनुमानजी ने अपने स्वामी श्रीराम के आयुष्यवर्धन के लिए अपने सारे शरीर पर सिन्दूर पोत लिया।


हनुमानजी पूर्ण समर्पित रामभक्त हैं; जो रामकाज के लिए जगत में सदा विराजित हैं। वे मणि-माणिक में भी राम को ही खोजते हैं और नहीं मिलने पर उन्हें तोड़ देते हैं। चूंकि वे रामरस खोजते हैं, इसलिए जहां-जहां रामकथा होती है, वहां-वहां वे गुप्त रूप से आरम्भ में ही पहुंच जाते हैं। दोनों हाथ जोड़कर सिर से लगाए वे सबसे अंत तक वहां खड़े रहते हैं। प्रेम के कारण उनके नेत्रों से बराबर आंसू झरते रहते हैं। जब तक पृथ्वी पर श्रीराम की कथा रहेगी, तब तक पृथ्वी पर रहने का वरदान उन्होंने स्वयं प्रभु श्रीराम से मांग लिया है। वे सात चिरजीवियों में से एक हैं।


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