35 Divine Stories ( Part 1) & Mantras

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Ekadashi Stories








Kartik Maas: Mantras & Stories 


पुराणों के अनुसार इसी माह में कुमार कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया था। कुमार कार्तिकेय के पराक्रम को सम्मान देने के लिए ही इस माह का नाम कार्तिक रखा गया है।


इस साल कार्तिक माह 29 अक्तूबर, रविवार से शुरू हुआ है और इसका समापन कार्तिक पूर्णिमा पर 27 नवंबर को होगा। 


कार्तिक माह तप और व्रत का माह है। इस माह में भगवान की भक्ति और पूजा अर्चना करने से मनुष्य की सारी इच्छाएं पूर्ण होती हैं। पुराणों के अनुसार इस मास में भगवान विष्णु नारायण रूप में जल में निवास करते हैं। इसलिए कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक नियमित सूर्योदय से पहले नदी या तालाब में स्नान से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।


शास्त्रों के अनुसार जो मनुष्य कार्तिक मास में प्रतिदिन गीता का पाठ करता है उसे अनंत पुण्यों की प्राप्ति होती है। गीता के एक अध्याय का पाठ करने से मनुष्य घोर नरक से मुक्त हो जाते हैं। स्कंद पुराण के अनुसार इस महीने में अन्न दान करने से पापों का सर्वथा नाश हो जाता है।


श्री कृष्ण की एक बाल लीला कथा इस कार्तिक मास से जुड़ी हुई है, जिस कारण कार्तिक मास को दामोदर माह के नाम से भी जाना जाता है। 






मंत्र: भाई दूज पर 



गंगा पूजे यमुना को, यमी पूजे यमराज को। सुभद्रा पूजे कृष्ण को, गंगा यमुना नीर बहे मेरे भाई आप बढ़ें, फूले-फलें।।





मंत्र: 

गोवर्धन पूजा के समय 






मंत्र: 

Diwali पूजा के समय 






मंत्र: 

छोटी दिवाली पर 


ॐ ह्रीं ह्रीं श्री लक्ष्मी वासुदेवाय नम:।



मंत्र: 

धनतेरस पूजा के समय 



मंत्र: 

रमा एकादशी के दिन 





मंत्र: 

एकादशी के दिन 


Kartik Ekadashi





मंत्र: हर रोज 



मंत्र – हरे कृष्ण हरे कृष्ण । कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम । राम राम हरे हरे ॥


Karva chauth mantra: करवा चौथ व्रत पूजा के मंत्र  
पार्वतीजी का मंत्र - ॐ शिवायै नमः 
शिव का मंत्र - ॐ नमः शिवाय 
स्वामी कार्तिकेय का मंत्र - ॐ षण्मुखाय नमः  
श्रीगणेश का मंत्र - 
ॐ गणेशाय नमः 
चंद्रमा का पूजन मंत्र - ॐ सोमाय नमः

करवा चौथ के मंत्र: 

करकं क्षीरसंपूर्णा तोयपूर्णमयापि वा।

ददामि रत्नसंयुक्तं चिरंजीवतु मे पतिः॥



📿 📿 Mantra - Chant any of these mantra daily.


ॐ श्रीं नमः श्रीकृष्णाय परिपूर्णतमाय स्वाहा



मंत्र: Tulsi पूजा के लिए 



महाप्रसाद जननी सर्व सौभाग्यवर्धिनी, आधि व्याधि हरा नित्यं तुलसी त्वं नमोस्तुते



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     कहते हैं न हरि अनंत हरी कथा अनंता।


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🌷1.  *कार्तिक मास में तुलसी की महिमा* 🌷


ब्रह्मा जी कहे हैं कि कार्तिक मास में जो भक्त प्रातः काल स्नान करके पवित्र हो कोमल तुलसी दल से भगवान् दामोदर की पूजा करते हैं, वह निश्चय ही मोक्ष पाते हैं। पूर्वकाल में भक्त विष्णुदास भक्तिपूर्वक तुलसी पूजन से शीघ्र ही भगवान् के धाम को चला गया और राजा चोल उसकी तुलना में गौण हो गए। तुलसी से भगवान् की पूजा, पाप का नाश और पुण्य की वृद्धि करने वाली है। अपनी लगाई हुई तुलसी जितना ही अपने मूल का विस्तार करती है, उतने ही सहस्रयुगों तक मनुष्य ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित रहता है। यदि कोई तुलसी संयुत जल में स्नान करता है तो वह पापमुक्त हो आनन्द का अनुभव करता है। जिसके घर में तुलसी का पौधा विद्यमान है, उसका घर तीर्थ के समान है, वहाँ यमराज के दूत नहीं जाते। जो मनुष्य तुलसी काष्ठ संयुक्त गंध धारण करता है, क्रियामाण पाप उसके शरीर का स्पर्श नहीं करते। जहाँ तुलसी वन की छाया हो वहीं पर पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध करना चाहिए। जिसके कान में, मुख में और मस्तक पर तुलसी का पत्ता दिखाई देता है, उसके ऊपर यमराज दृष्टि नहीं डाल सकते।

          प्राचीन काल में हरिमेधा और सुमेधा नामक दो ब्राह्मण थे। वह जाते-जाते किसी दुर्गम वन में परिश्रम से व्याकुल हो गए, वहाँ उन्होंने एक स्थान पर तुलसी दल देखा। सुमेधा ने तुलसी का महान् वन देखकर उसकी परिक्रमा की और भक्ति पूर्वक प्रणाम किया। यह देख हरिमेधा ने पूछा कि 'तुमने अन्य सभी देवताओं व तीर्थ-व्रतों के रहते तुलसी वन को प्रणाम क्यों किया ?' तो सुमेधा ने बताया कि 'प्राचीन काल में जब दुर्वासा के शाप से इन्द्र का ऐश्वर्य छिन गया तब देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया तो धनवंतरि रूप भगवान् श्री हरि और दिव्य औषधियाँ प्रकट हुईं। उन दिव्य औषधियों में मण्डलाकार तुलसी उत्पन्न हुई, जिसे ब्रह्मा आदि देवताओं ने श्री हरि को समर्पित किया और भगवान् ने उसे ग्रहण कर लिया। भगवान् नारायण संसार के रक्षक और तुलसी उनकी प्रियतमा है। इसलिए मैंने उन्हें प्रणाम किया है।'

          सुमेधा इस प्रकार कह ही रहे थे कि सूर्य के समान अत्यंत तेजस्वी विशाल विमान उनके निकट उतरा। उन दोनों के समक्ष वहाँ एक बरगद का वृक्ष गिर पड़ा और उसमें से दो दिव्य पुरुष प्रकट हुए। उन दोनों ने हरिमेधा और सुमेधा को प्रणाम किया। दोनों ब्राह्मणों ने उनसे पूछा कि आप कौन हैं ? तब उनमें से जो बड़ा था वह बोला, मेरा नाम आस्तिक है। एक दिन मैं नन्दन वन में पर्वत पर क्रीड़ा करने गया था तो देवांगनाओं ने मेरे साथ इच्छानुसार विहार किया। उस समय उन युवतियों के हार के मोती टूटकर तपस्या करते हुए लोमश ऋषि पर गिर पड़े। यह देखकर मुनि को क्रोध आया। उन्होंने सोचा कि स्त्रियाँ तो परतंत्र होती हैं। अत: यह उनका अपराध नहीं, दुराचारी आस्तिक ही शाप के योग्य है। ऐसा सोचकर उन्होंने मुझे शापित किया - "अरे तू ब्रह्म राक्षस होकर बरगद के पेड़ पर निवास कर।" जब मैंने विनती से उन्हें प्रसन्न किया तो उन्होंने शाप से मुक्ति की विधि सुनिश्चित कर दी कि जब तू किसी ब्राह्मण के मुख से तुलसी दल की महिमा सुनेगा तो तत्काल तुझे उत्तम मोक्ष प्राप्त होगा। इस प्रकार मुक्ति का शाप पाकर मैं चिरकाल से इस वट वृक्ष पर निवास कर रहा था। आज दैववश आपके दर्शन से मेरा छुटकारा हुआ है।

          तत्पश्चात् वे दोनों श्रेष्ठ ब्राह्मण परस्पर पुण्यमयी तुलसी की प्रशंसा करते हुए तीर्थ यात्रा को चल दिए। इसलिए भगवान् विष्णु को प्रसन्नता देने वाले इस कार्तिक मास में तुलसी की पूजा अवश्य करनी चाहिए।

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2. *कार्तिक में लपसी तपसी की कहानी*


प्राचीन समय की बात है एक गाँव में एक लपसी रहता था और एक तपसी रहता था. तपसी सदा भगवान की सेवा में लीन रहता था लेकिन लपसी सवा सेर दही की लस्सी बनाता भगवान को भोग लगाता और पी जाता था. एक दिन की बात है कि दोनों में बहस छिड़ गई कि कौन बड़ा है! लपसी कहता मैं बड़ा तो तपसी कहता मैं बड़ा क्योंकि मैं सारा दिन भगवान की भक्ति में रहता हूँ.


नारद मुनि जी ने लपसी तपसी को लड़ते देखा तो लड़ने का कारण पूछने लगे तब तपसी बोला कि मै बड़ा हूँ लेकिन लपसी नहीं मान रहा. लपसी बोला कि मैं बड़ा हूँ ये तपसी नहीं मान रहा. नारद जी बोले कि इसका फैसला तो मैं कल कर दूंगा. अगले दिन तपसी रोज की तरह सुबह स्नान कर लौट रहा था तो नारद जी ने उसके आगे सवा करोड़ की अंगूठी फेंक दी. तपसी ने इधर-उधर देखा और वह अंगूठी उठाकर फिर तपस्या करने बैठ गया.


लपसी फिर रोज की तरह आया और सवा सेर दही की लस्सी बनाई उसे लोटे में घुमाया और भोग लगाकर पी गया तभी नारद जी आए और उन्होंने कहा कि लपसी बड़ा है. तपसी ने इसका कारण पूछा तो नारद जी कहने लगे कि तेरे गोडे के नीचे सवा करोड़ की अंगूठी पड़ी है. तूने इसे चुराया है जिससे तेरी तपस्या भंग हो गई है. तपसी हाथ जोड़ नारद जी के सामने खड़ा हो गया और बोला कि मेरी तपस्या का फल किस प्रकार मुझे मिल सकता है?


नारद जी कहने लगे कि तेरी तपस्या का फल कार्तिक नहाने वाली ही दे सकती है. नारद जी फिर से कहने लगे कि कार्तिक माह की कहानी सुनने के बाद जो तेरी कहानी नहीं सुनेगा या कहेगा उसके कार्तिक स्नान का फल खतम हो जाएगा.




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🥀 3. लक्ष्मी_माता_की_कथा  🥀


कथा पढ़ने या सुनने से ही माता लक्ष्मी प्रसन्न होती है, कभी धन की कमी नहीं रहती.. 

एक गांव में साहूकार रहता था। उसकी बेटी हर दिन पीपल के पेड़ पर जल चढ़ाने के लिए जाती थी। जिस पीपल के पेड़ पर वह जल चढ़ाती थी, उस पेड़ पर मां लक्ष्मी का वास था। एक दिन लक्ष्मीजी ने साहूकार की बेटी से कहा कि वह उसकी मित्र बनना चाहती हैं। लड़की ने उत्तर में कह- कि वह अपने पिता से पूछकर बताएगी। घर आकर साहूकार की बेटी ने पूरी बात बताई। बेटी की बात सुनकर साहूकार ने हां कर दी। दूसरे दिन साहूकार की बेटी ने लक्ष्मीजी को सहेली बना लिया।


दोनों अच्छी सखियों की तरह एक-दूसरे से बातें करतीं। एक दिन लक्ष्मीजी साहूकार की बेटी को अपने घर ले आईं। लक्ष्मी जी ने अपने घर में साहूकार की बेटी का खूब आदर किया। उसे सोने की थाली में पकवान परोसे और सोने की चौकी पर ही भोजन कराया, साथ ही जाते समय लक्ष्मीजी ने उसे दुशाला भी भेंट किया।


जब साहूकार की बेटी अपने घर लौटने लगी तो लक्ष्मीजी ने उससे पूछा कि वह उन्हें कब अपने घर बुलाएगी। साहूकार की बेटी ने लक्ष्मी जी को अपने घर बुला लिया, लेकिन आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण वह स्वागत करने में घबरा रही थी कि क्या वह अच्छे तरह से उनका स्वागत कर पाएगी।


साहूकार अपनी बेटी की मनोदशा को समझ गया। उसने बेटी को समझाते हुए कहा कि वह परेशान न हो और फौरन घर की साफ-सफाई कर चौका मिट्टी से लगा दे। चार बत्ती वाला दीया लक्ष्मी जी के नाम से जलाने के लिए भी साहूकार ने अपनी बेटी से कहा। उसी समय एक चील किसी रानी का नौलखा हार लेकर साहूकार के घर में गिरा गई। साहूकार की बेटी ने उस हार को बेचकर भोजन की तैयारी की। थोड़ी ही देर में मां लक्ष्मी भगवान गणेश के साथ साहूकार के घर आईं और साहूकार के स्वागत से प्रसन्न होकर उस पर अपनी कृपा बरसाई। लक्ष्मी जी की कृपा से साहूकार के पास फिर किसी चीज की कभी कमी न हुई।


हे माँ लक्ष्मी !जैसे आप साहूकार और उसकी बेटी पर प्रसन्न हुईं, वैसे ही हम पर भी प्रसन्न होना।




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4. *कार्तिक  माह की  कहानी*


किसी गाँव में एक बुढ़िया रहती थी और उसका एक बेटा व बहू भी साथ रहते थे. 


कार्तिक का महीना आया तो बुढ़िया ने बेटे से कहा कि वह कार्तिक स्नान के लिए जाएगी और एक महीना वही रहेगी. 


यह सुन उसके बेटे ने अपनी पत्नी से कहा कि माँ के लिए 30 लड्डू बनाकर दे दो ताकि वह पूजा-पाठ कर कुछ खा सके. बहू ने गुस्से में आकर 30 लड्डू बनाकर दे दिए. 


बुढ़िया नदी किनारे कार्तिक स्नान को गई और वही एक किनारे पर झोपड़ी बनाकर रहने लगी.


बुढ़िया रोज सवेरे उठकर स्नान करती और जैसे ही एक लड्डू निकालकर खाने लगती तो हनुमान जी बंदर के रुप में आते तो बुढ़िया वह लड्डू खुशी से बंदर को दे देती. 


इस तरह से कार्तिक का पूरा महीना बीत गया और सभी 30 लड्डू हनुमान जी बंदर के रुप में खा गए. 


कार्तिक का महीना समाप्त होने पर बुढ़िया वापिस जाने को तैयार हुई तो हनुमान जी प्रकट हो गए उन्होंने बुढ़िया की उस कुटिया की जगह पर एक आलीशन महल बनवा दिया.


बुढ़िया का पूरा महल धन दौलत से भर गया, 

उसकी काया निरोगी हो गई. अन्न के भंडार से महल भर गया. इतना सब होने पर वह धूमधाम से अपने बेटे के पास गई. 


बुढ़िया को इतना धनी देखकर उसकी बहू ने मन में कहा कि अगले कार्तिक मैं भी अपनी माँ को कार्तिक स्नान के लिए भेजूँगी और अगले कार्तिक आने पर उसने अपनी माँ को कार्तिक स्नान के लिए कहा. पूरे तीस लड्डू घी व बहुत सा मेवा डालकर अपनी माँ के लिए बनाकर दिए. 


माँ कार्तिक स्नान के लिए गई और जैसे ही सुबह सवेरे नहाकर लड्डू खाने लगती तो हनुमान जी बंदर का रुप धरकर उसके सामने बैठ जाते तो वह पत्थर मारकर उन्हें भगा देती और कहती कि इससे मेरा पेट ही नहीं भरा तो तुम्हें कैसे दूँ. उसका रोज का यही क्रम 30 दिन तक चलता रहा.


कार्तिक का महीना समाप्त हुआ तो हनुमान जी फिर से प्रकट हुए और उन्होंने बहू की माँ की कुटिया को कूड़े कचरे में बदल दिया और माँ को डूकर बना दिया. 


कार्तिक महीना समाप्त होने पर बहू ने भी अपने पति से कहा कि कार्तिक का महीना खतम हो गया है, आप मेरी माँ को गाजे-बाजे के साथ लेकर आओ. 


लड़का अपनी सास को गाजे-बाजे के साथ लेने गया तो वहाँ देखता है कि कुटिया की जगह कूड़े का ढेर लगा है और उस पर उसकी सास डूकर बनकर बैठी है.


लड़के को देख हनुमान जी प्रकट हुए और बोले कि बेटा ! 

तुम्हारी माँ ने सच्चे मन से कार्तिक का स्नान किया है और पूजा-पाठ किया है. 


इसीलिए ही तुम्हारी माँ पर कार्तिक देवता का आशीर्वाद बरसा था लेकिन तुम्हारी सास ने पापी मन से यह कार्य किया है और कार्तिक महीने में बेटी के घर का अन्न खाया है. 


इसलिए कार्तिक देवता इससे नाराज हुए. जिससे यह डूकर बन गई है.


कहानी के बाद हाथ जोड़कर कहना चाहिए कि हे कार्तिक देवता ! जैसे आप लड़के की माँ पर बरसे वैसे ही आप सभी पर बरसना.


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5. *कार्तिक की कहानी (बुढ़िया माई की कहानी)*


कार्तिक महीने में एक बुढिया माई तुलसीजी को सींचती और कहती कि हे तुलसी माता ! सत की दाता मैं तेरा बिडला सीचती हूँ , मुझे बहु दे , पीताम्बर की धोती दे , मीठा मीठा गास दे , बैकुंठा में  वास दे , चटक की चाल दे ,  पटक की मोत दे , चंदन का काठ दे , रानी सा राज दे , दाल भात का भोजन दे ग्यारस की मोंत दे , कृष्ण जी का कन्धा दे | तब तुलसी माता यह सुनकर सूखने लगी तो  भगवान ने पूछा – की हे तुलसी ! तुम क्यों सुख़ रही हो ? तुलसी माता ने कहा कि एक बुढिया रोज आती है और यही बात कह जाती है | में सब बात तो पूरा कर दूँगी लेकिन कृषण का कन्धा कहा से लाऊंगी  | तो भगवान बोले जब वो मरेगी तो में अपने आप कंधा दे आऊगा | तू बुढिया माई से कह देना  |


बाद में बुढिया माई मर गई | सब लोग आ गये | जब माई को ले जाने लगे तो वह किसी से न उठी | तब भगवान एक बारह बरस के बालक का रूप धारण करके आये |  बालक ने कहा में कान में एक बात कहूँगा  तो बुढिया माई उठ जाएगी | बालक ने कान में कहा , बुढिया माई मन की निकाल ले , पीताम्बर की धोती ले , मीठा मीठा गास ले , बेकुंठा का वास ले , चटक की चल ले , पटक की मोत ले ,  कृषण जी का कन्धा ले यह सुनकर बुढिया माई हल्की हो गई | भगवान ने कन्धा दिया और बुढिया माई को मुक्ति मिल गई | हे तुलसी माता जेसे बुढिया माई को मुक्ति दी वेसे सबको देना |


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करवा चौथ व्रत आज

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सर्वार्थ सिद्धि योग में होगी चंद्रमा की पूजा

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करवा चौथ पूजा का शुभ मुहूर्त

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01 नवम्बर 2023, बुधवार

शाम 05 बजकर 36 मिनट से शाम 06 बजकर 54 मिनट तक है।

करवा चौथ व्रत का पारण चंद्रमा को अर्घ्य देने के बाद किया जाता है।


करवा चौथ का व्रत हर साल कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को रखा जाता है। उस दिन कार्तिक संकष्टी चतुर्थी होती है, जिसे वक्रतुंड संकष्टी चतुर्थी कहते हैं। करवा चौथ के दिन सुहागन महिलाएं और विवाह योग्य युवतियां अपने जीवनसाथी की लंबी आयु और सुखी वैवाहिक जीवन के लिए निर्जला व्रत रखती हैं। इस व्रत में चंद्रमा की पूजा करना और अर्घ्य देना जरूरी है। इसके बिना करवा चौथ का व्रत पूरा नहीं होता है।


करवा चौथ कब है?

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वैदिक पंचांग के अनुसार, इस बार कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि 31 अक्टूबर दिन मंगलवार को रात 09 बजकर 30 मिनट से प्रारंभ हो रही है। य​ह तिथि 01 नवंबर बुधवार को रात 09 बजकर 19 मिनट पर खत्म होगी।


उदयातिथि और चतुर्थी के चंद्रोदय के आधार पर करवा चौथ व्रत 1 नवंबर बुधवार को रखा जाएगा। इस दिन व्रती को 13 घंटे 42 मिनट तक निर्जला व्रत रखना होगा। व्रत सुबह 06 बजकर 33 मिनट से रात 08 बजकर 15 मिनट तक होगा।


करवा चौथ का पूजा मुहूर्त

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जो महिलाएं 01 नवंबर बुधवार को करवा चौथ का व्रत रखेंगी, उनको शाम में पूजा के लिए 1 घंटा 18 मिनट का शुभ समय प्राप्त होगा। करवा चौथ पूजा का शुभ मुहूर्त शाम 05 बजकर 36 मिनट से शाम 06 बजकर 54 मिनट तक है।


करवा चौथ पर चंद्रमा पूजन और अर्घ्य का समय क्या है?

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करवा चौथ के दिन चंद्रोदय रात 08 बजकर 15 मिनट पर होगा। इस समय से आप चंद्रमा पूजन के साथ अर्घ्य दे सकते हैं। चंद्रमा को अर्घ्य देने पर व्रत पूरा होता है।


करवा चौथ का पारण समय

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करवा चौथ व्रत का पारण चंद्रमा को अर्घ्य देने के बाद किया जाता है। पति के हाथों जल ​पीकर व्रत को पूरा करते हैं। 1 नवंबर को रात 08:15 बजे के बाद आप कभी भी पारण कर सकती हैं।


तीन योग में है करवा चौथ 

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इस साल करवा चौथ पर 3 योग बन रहे हैं। इस दिन सर्वार्थ सिद्धि योग सुबह 06:33 बजे से प्रारंभ हो रहा है, जो अगले दिन प्रात: 04:36 बजे तक रहेगा। सर्वार्थ सिद्धि को शुभ योग माना जाता हैं। इसमें किए गए कार्य सफल सिद्ध होते हैं। उस दिन प्रात:काल से दोपहर 02 बजकर 07 मिनट तक परिघ योग है, उसके बाद से ​शिव योग प्रारंभ होगा, जो अगले दिन तक रहेगा। करवा चौथ के दिन मृगशिरा नक्षत्र सुबह से लेकर अगले दिन 2 नंवबर को सुबह 04:36 बजे तक है।


6. करवा चौथ के व्रत की कथा 

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करवा चौथ की कहानी है कि, देवी करवा अपने पति के साथ तुंगभद्रा नदी के पास रहती थीं। एक दिन करवा के पति नदी में स्नान करने गए तो एक मगरमच्छ ने उनका पैर पकड़ लिया और नदी में खिंचने लगा। मृत्यु करीब देखकर करवा के पति करवा को पुकारने लगे। करवा दौड़कर नदी के पास पहुंचीं और पति को मृत्यु के मुंह में ले जाते मगर को देखा। करवा ने तुरंत एक कच्चा धागा लेकर मगरमच्छ को एक पेड़ से बांध दिया। करवा के सतीत्व के कारण मगरमच्छा कच्चे धागे में ऐसा बंधा की टस से मस नहीं हो पा रहा था। करवा के पति और मगरमच्छ दोनों के प्राण संकट में फंसे थे।


करवा ने यमराज को पुकारा और अपने पति को जीवनदान देने और मगरमच्छ को मृत्युदंड देने के लिए कहा। यमराज ने कहा मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि अभी मगरमच्छ की आयु शेष है और तुम्हारे पति की आयु पूरी हो चुकी है। क्रोधित होकर करवा ने यमराज से कहा, अगर आपने ऐसा नहीं किया तो मैं आपको शाप दे दूंगी। सती के शाप से भयभीत होकर यमराज ने तुरंत मगरमच्छ को यमलोक भेज दिया और करवा के पति को जीवनदान दिया। इसलिए करवाचौथ के व्रत में सुहागन स्त्रियां करवा माता से प्रार्थना करती हैं कि हे करवा माता जैसे आपने अपने पति को मृत्यु के मुंह से वापस निकाल लिया वैसे ही मेरे सुहाग की भी रक्षा करना।


करवा माता की तरह सावित्री ने भी कच्चे धागे से अपने पति को वट वृक्ष के नीचे लपेट कर रख था। कच्चे धागे में लिपटा प्रेम और विश्वास ऐसा था कि यमराज सावित्री के पति के प्राण अपने साथ लेकर नहीं जा सके। सावित्री के पति के प्राण को यमराज को लौटाना पड़ा और सावित्री को वरदान देना पड़ा कि उनका सुहाग हमेशा बना रहेगा और लंबे समय तक दोनों साथ रहेंगे।



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*🙌🏻7. करवा चौथ की पौराणिक व्रत कथा🙌🏻*


बहुत समय पहले की बात है, एक साहूकार के सात बेटे और उनकी एक बहन करवा थी। सभी सातों भाई अपनी बहन से बहुत प्यार करते थे। यहां तक कि वे पहले उसे खाना खिलाते और बाद में स्वयं खाते थे। एक बार उनकी बहन ससुराल से मायके आई हुई थी।


शाम को भाई जब अपना व्यापार-व्यवसाय बंद कर घर आए तो देखा उनकी बहन बहुत व्याकुल थी। सभी भाई खाना खाने बैठे और अपनी बहन से भी खाने का आग्रह करने लगे, लेकिन बहन ने बताया कि उसका आज करवा चौथ का निर्जल व्रत है और वह खाना सिर्फ चंद्रमा को देखकर उसे अर्घ्‍य देकर ही खा सकती है। चूंकि चंद्रमा अभी तक नहीं निकला है, इसलिए वह भूख-प्यास से व्याकुल हो उठी है।


सबसे छोटे भाई को अपनी बहन की हालत देखी नहीं जाती और वह दूर पीपल के पेड़ पर एक दीपक जलाकर चलनी की ओट में रख देता है। दूर से देखने पर वह ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे चतुर्थी का चांद उदित हो रहा हो।


इसके बाद भाई अपनी बहन को बताता है कि चांद निकल आया है, तुम उसे अर्घ्य देने के बाद भोजन कर सकती हो। बहन खुशी के मारे सीढ़ियों पर चढ़कर चांद को देखती है, उसे अर्घ्‍य देकर खाना खाने बैठ जाती है।


वह पहला टुकड़ा मुंह में डालती है तो उसे छींक आ जाती है। दूसरा टुकड़ा डालती है तो उसमें बाल निकल आता है और जैसे ही तीसरा टुकड़ा मुंह में डालने की कोशिश करती है तो उसके पति की मृत्यु का समाचार उसे मिलता है। वह बौखला जाती है।


उसकी भाभी उसे सच्चाई से अवगत कराती है कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ। करवा चौथ का व्रत गलत तरीके से टूटने के कारण देवता उससे नाराज हो गए हैं और उन्होंने ऐसा किया है।


सच्चाई जानने के बाद करवा निश्चय करती है कि वह अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं होने देगी और अपने सतीत्व से उन्हें पुनर्जीवन दिलाकर रहेगी। वह पूरे एक साल तक अपने पति के शव के पास बैठी रहती है। उसकी देखभाल करती है। उसके ऊपर उगने वाली स ुईनुमा घास को वह एकत्रित करती जाती है।


एक साल बाद फिर करवा चौथ का दिन आता है। उसकी सभी भाभियां करवा चौथ का व्रत रखती हैं। जब भाभियां उससे आशीर्वाद लेने आती हैं तो वह प्रत्येक भाभी से 'यम स ुई ले लो, पिय स ुई दे दो, मुझे भी अपनी जैसी सुहागिन बना दो' ऐसा आग्रह करती है, लेकिन हर बार भाभी उसे अगली भाभी से आग्रह करने का कह चली जाती है।


इस प्रकार जब छठे नंबर की भाभी आती है तो करवा उससे भी यही बात दोहराती है। यह भाभी उसे बताती है कि चूंकि सबसे छोटे भाई की वजह से उसका व्रत टूटा था अतः उसकी पत्नी में ही शक्ति है कि वह तुम्हारे पति को दोबारा जीवित कर सकती है, इसलिए जब वह आए तो तुम उसे पकड़ लेना और जब तक वह तुम्हारे पति को जिंदा न कर दे, उसे नहीं छोड़ना। ऐसा कह कर वह चली जाती है।


सबसे अंत में छोटी भाभी आती है। करवा उनसे भी सुहागिन बनने का आग्रह करती है, लेकिन वह टालमटोली करने लगती है। इसे देख करवा उन्हें जोर से पकड़ लेती है और अपने सुहाग को जिंदा करने के लिए कहती है। भाभी उससे छुड़ाने के लिए नोचती है, खसोटती है, लेकिन करवा नहीं छोड़ती है।


अंत में उसकी तपस्या को देख भाभी पसीज जाती है और अपनी छोटी अंगुली को चीरकर उसमें से अमृत उसके पति के मुंह में डाल देती है। करवा का पति तुरंत श्री गणेश-श्री गणेश कहता हुआ उठ बैठता है। इस प्रकार प्रभु कृपा से उसकी छोटी भाभी के माध्यम से करवा को अपना सुहाग वापस मिल जाता है।


*🙏🏻हे श्री गणेश- मां गौरी जिस प्रकार करवा को चिर सुहागन का वरदान आपसे मिला है, वैसा ही सब 🙌🏻 सुहागिनों को मिले।🙇🏻‍♂️*



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8. *(((( सरस्वती के भाई ))))*

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अयोध्या के बहुत निकट ही पौराणिक नदी कुटिला है – जिसे आज टेढ़ी कहते हैं, उसके तट के निकट ही एक भक्त परिवार रहता था। 

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उनके घर एक सरस्वती नाम की बालिका थी। वे लोग नित्य श्री कनक बिहारिणी बिहारी जी का दर्शन करने अयोध्या आते थे। 

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सरस्वती जी का कोई सगा भाई नही था, केवल एक मौसेरा भाई ही था। वह जब भी श्री रधुनाथ जी का दर्शन करने आती, उसमे मन मे यही भाव आता की सरकार मेरे अपने भाई ही है।

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उसकी आयु उस समय मात्र दो वर्ष की थी। रक्षाबंधन से कुछ समय पूर्व उसने सरकार से कहा की मै आपको राखी बांधने आऊंगी। 

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उसने सुंदर राखी बनाई और रक्षाबंधन पूर्णिमा पर मंदिर लेकर गयी। पुजारी जी से कहा कि हमने भैया के लिए राखी लायी है। 

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पुजारी जी ने छोटी सी सरस्वती को गोद मे उठा लिया और उससे कहा कि मै तुम्हे राखी सहित सरकार को स्पर्श कर देता हूं और राखी मै बांध दूंगा। 

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पुजारी जी ने राखी बांध दी और उसको प्रसाद दिया। अब हर वर्ष राखी बांधने का उसका नियम बन गया।

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समय के साथ वह बड़ी हो गयी और उसका विवाह निश्चित हो गया। वह पत्रिका लेकर मंदिर में आयी और कहा की मेरा विवाह निश्चित हो गया है, मै आपको न्योता देने आई हूं। चारो भाइयो को विवाह में आना ही है। 

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पुजारी जी को पत्रिका देकर कहा कि मैंने चारो भाइयों से कह दिया है, आप पत्रिका सरकार के पास रख दो और आप भी कह दो की चारो भाइयों को विवाह में आना ही है। ऐसा कहकर वह अपने घर चली गयी। 

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विवाह का दिन आया। अवध में एक रस्म होती है कि विवाह के बाद भाई आकर उसको चादर ओढ़ाता है और कुछ भेट वस्तुएं देता है।

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उसकी मौसी ने अपने लड़के को कुछ सामान और ११ रुपये दिए और मंडप में पहुंचने को कहकर वह चली गयी। 

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उसका मौसेरा भाई उपहार, वस्त्र और ११ रुपये लेकर रिक्शा पर बांध कर विवाह मंडप की ओर निकल पड़ा। 

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रास्ते मे ही रिक्शा उलट गया और वह गिर गया। थोड़ी सी चोट आयी और लोगो ने उसको दवाखाने ले जाकर मलम पट्टी कराई। 

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यहां सरस्वती जी घूंघट से बार बार मंडप के दरवाजे पर देख रही है और सोच रही है कि सरकार अभी तक क्यो नही आये। 

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उसको पूरा विश्वास है कि चारो भाई आएंगे। माँ से भी कह दिया कि ध्यान रखना अयोध्या जी से मेरे भाई आएंगे – माँ ने उसको भोला समझकर हंस दिया।

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जब बहुत देर हो गयी तब व्याकुल होकर वह दरवाजे पर जाकर रोने लगी। दूर दूर के रिश्तेदार आ गए पर मेरे अपने भाई क्यो नही आये ? क्या मैं उनकी बहन नही हूं ? 

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उसी समय ४ बड़ी मोटर गाड़िया और एक बड़ा ट्रक आते हुए उसने देखा। पहली गाड़ी से उसकी मौसी का लड़का और उसकी पत्नी उतरे। बाकी गाड़ीयों से और ३ जोड़िया उतरी। 

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मौसी के लड़के के रूप में सरकार ही आये है। रत्न जटित पगड़ियां, वस्त्र, हीरो के हार पहन रखे है। 

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श्री हनुमान जी पीछे ट्रक में समान भरकर लाये है, हनुमान जी पहलवान के रूप में आये थे। 

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उन्होंने ट्रक से सारा सामान उतारना शुरू किया – स्वर्ण, चांदी, पीतल, तांबे के बहुत से बर्तन। बिस्तर, सोफे, ओढ़ने बिछाने के वस्त्र, साड़ियां, अल्मारियाँ, कान, नाक, गले, कमर, हाथ, पैर के आभूषण। 

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मौसी देखकर आश्चर्य में पड़ गयी कि इतना कीमती सामान मेरा लड़का कहां से लेकर आया ? 

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चारो का तेज और सुंदरता देखकर सरस्वती समझ गयी कि यह मेरे चारो भाई है। 

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सरस्वती जी के आनंद का ठिकाना न रहा, उसका रोना बंद हो गया। सरकार ने इशारे से कहा कि किसीको अभी भेद बताना नही, गुप्त ही रखना। 

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इनका रूप इतना मनोहर था कि सब उन्हें देखते ही राह गए, कोई पूछ न पाया कि यह गाड़ियां कैसे आयी, ये अन्य ३ लोग कौन है ?

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लोग हैरान हो कर देख रहे थे कि अभी तक रो रही थी, और अभी इतना हँस रही है और आनंद में नाच रही है। किसी को कुछ समझ नही आ रहा था। 

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जब तक उसकी विदाई नही हुई तब तक चारो भाई उसके साथ ही रहे। सभी गले मिले और आशीर्वाद दिया। 

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सरस्वती ने कहा – जैसे आज शादी में सब संभाल लिया वैसे जीवन भर मुझे संभालना। 

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जब वह गाड़ी में बैठकर पति के साथ जाने लगी तब चारों भाई अन्तर्धान हो गए। 

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उसी समय असली मौसेरा भाई किसी तरह लंगड़ाते हुए पट्टी लगाए हुए वहां आया। उसने वस्त्र ओढाया उपहार और ११ रुपये दिया।

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मौसी ने पूछा कि अभी अभी तो तू बड़े कीमती वस्त्र पहने गाड़ी और ट्रक लेकर आया था ? ये पट्टी कैसे बंध गयी और कपड़े कैसे फट गए ? उसको तो कुछ समझ ही नही आ रहा था। 

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अंत मे सरस्वती से उसकी माता ने एकांत मे पूछा की बेटी सच सच बता की क्या बात है ? ये चारों कौन थे ? 

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तब उसने कहा की माँ ! मैने आपसे कहा था कि ध्यान रखना, मेरे भाई अयोध्या से आएंगे। 

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माँ समझ गयी की इसके तो ४ ही भाई है और वो श्रीरघुनाथ जी और अन्य तीन भैया ही है। 

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माँ जान गई कि श्री अयोध्या नाथ सरकार ही अपनी बहन के प्रेम में बंध कर आये थे और अपनी बहन को इतने उपहार, आभूषण और वस्तुएं दे गए कि नगर के बड़े बड़े सेठ, नवाबो के पास भी नही थे।



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9. *कार्तिक स्नान की कहानी* 

*(इल्ली और घुण)*


एक इल्ली और घुण था | इल्ली बोली आओ घुण कार्तिक स्नान करे घुण बोला तू ही कार्तिक स्नान कर ले | मैं तो नही करूंगा | बाद में इल्ली तो राजा की लडकी के पल्ले के लगकर कार्तिक स्नान करती | घुण ने कार्तिक स्नान नहीं किया | दोनों मर गये | बाद में इल्ली के कार्तिक स्नान के पुण्य कें कारण राजा के घर जन्म हुआ और घुण राजा के घर गधा बन गया |


राजा ने बेटी के विवाह का सावा निकाला | बेटी ससुराल जाने लगी तो उसने अपनी पालकी रुकवाई और राजा से कहा यह गधा मुझे चाहिए |तब राजा ने कहा यह मत ले चाहे और धन दोलत ले ले पर लडकी नही मानी | मुझे तो यही चाहिए | गधे को रथ के बांध दिया तो गधा दोड़ने लगा | महल में पहुचने पर गधे को महल के नीचे बांध दिया | जब लडकी नीचे उतरती तो तो गधा कहता मुझे पानी पिलादे तब लडकी ने कहा मेने पहले ही कहा था कार्तिक स्नान कर ले पर तूने कहा था मैं तो बाजरा खौऊगा और ठंडा – ठंठा पानी पीऊगा | उनको बाते करते राजा ने सुन लिया , जब राजा ने कहा कि आप मुझे सारी बात बताओ तब रानी { लडकी } ने राजा को सारी बात बताई कि में पिछले जन्म में इल्ली थी और ये घुण था | तब मेने कहा तू भी कार्तिक नहा ले पर वह नहीं नहाया |


मैं कार्तिक स्नान के पुण्य से राजा के घर लडकी हुई और आपके घर में राज पाठ कर रही हु | तब राजा ने कहा कि कार्तिक स्नान का इतना पुण्य है तो हम दोनों जोड़े से न्हायेगे | रानी – राजा ने अत्यंत प्रसन्न मन से कार्तिक स्नान कर दोनों ने दान – पुण्य किया और सारी नगरी में कहलवा दिया की सब कार्तिक स्नान कर नहाया हुआ पानी घुण पे डालेगे जिससे घुण की मोक्ष हुई | हे ! कार्तिक भगवान [विष्णु भगवान ] जैसा सुख़ इल्ली को दिया वैसा सबको देना |



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.    10.   💐 भाग्य की दौलत 💐


एक बार एक महात्मा जी निर्जन वन में भगवद्चिंतन के लिए जा रहे थे। तो उन्हें एक व्यक्ति ने रोक लिया।

वह व्यक्ति अत्यंत गरीब था। बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी जुटा पाता था। उस व्यक्ति ने महात्मा से कहा..
महात्मा जी, आप परमात्मा को जानते है, उनसे बातें करते है। अब यदि परमात्मा से मिले तो उनसे कहियेगा कि मुझे सारी उम्र में जितनी दौलत मिलनी है, कृपया वह एक साथ ही मिल जाये ताकि कुछ दिन तो में चैन से जी सकूँ। 

महात्मा ने उसे समझाया - मैं तुम्हारी दुःख भरी कहानी परमात्मा को सुनाऊंगा लेकिन तुम जरा खुद भी सोचो, यदि भाग्य की सारी दौलत एक साथ मिल जायेगी तो आगे की ज़िन्दगी कैसे गुजारोगे ? 

किन्तु वह व्यक्ति अपनी बात पर अडिग रहा। महात्मा उस व्यक्ति को आशा दिलाते हुए आगे बढ़ गए।

इन्हीं दिनों में उसे ईश्वरीय ज्ञान मिल चूका था। महात्मा जी ने उस व्यक्ति के लिए अर्जी डाली। परमात्मा की कृपा से कुछ दिनों बाद उस व्यक्ति को काफी धन - दौलत मिल गई। जब धन -दौलत मिल गई तो उसने सोचा,-मैंने अब तक गरीबी के दिन काटे है, ईश्वरीय सेवा कुछ भी नहीं कर पाया।  

अब मुझे भाग्य की सारी दौलत एक साथ मिली है। क्यों न इसे ईश्वरीय सेवा में लगाऊँ क्योंकी इसके बाद मुझे दौलत मिलने वाली नहीं। ऐसा सोचकर उसने लगभग सारी दौलत ईश्वरीय सेवा में लगा दी।

समय गुजरता गया। लगभग दो वर्ष पश्चात् महात्मा जी उधर से गुजरे तो उन्हें उस व्यक्ति की याद आयी। महात्मा जी सोचने लगे - वह व्यक्ति जरूर आर्थिक तंगी में होगा क्योंकी उसने सारी दौलत एक साथ पायी थी। और कुछ भी उसे प्राप्त होगा नहीं।  यह सोचते -सोचते महात्मा जी उसके घर के सामने पहुँचे। 

लेकिन यह क्या ! झोपड़ी की जगह महल खड़ा था ! जैसे ही उस व्यक्ति की नज़र महात्मा जी पर पड़ी, महात्मा जी उसका वैभव देखकर आश्चर्य चकित हो गए। भाग्य की सारी दौलत कैसे बढ़ गई ? 

वह व्यक्ति नम्रता से बोला, महात्माजी, मुझे जो दौलत मिली थी, वह मैंने चन्द दिनों में ही ईश्वरीय सेवा में लगा दी थी। उसके बाद दौलत कहाँ से आई - मैं नहीं जनता। इसका जवाब तो परमात्मा ही दे सकता है।

महात्मा जी वहाँ से चले गये। और एक विशेष स्थान पर पहुँच कर ध्यान मग्न हुए। उन्होंने परमात्मा से पूछा - यह सब कैसे हुआ ? महात्मा जी को आवाज़ सुनाई दी।

किसी की चोर ले जाये , किसी की आग जलाये 
धन उसी का सफल हो जो ईश्वर अर्थ लगाये। 

सीख - जो व्यक्ति जितना कमाता है उस में का कुछ हिस्सा अगर ईश्वरीय सेवा  कार्य में लगता है तो उस का फल अवश्य मिलता है। इसलिए कहा गया है सेवा का फल तो मेवा है। 

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 ((((((( जय जय श्री राधे )))))))
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11. *(((( गोपेश्वर महादेव ))))*
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एक बार की बात है जैसे ही श्री कृष्ण ने बंसी बजाना शुरू किया, तब सारी गोपियां इकट्ठे होकर यमुना तट पर जा पहुंची और कान्हा के आस पास नृत्य करने लगी। 
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राधा रानी भी श्री कृष्ण की बंसी की धुन सुनकर खुद को रोक नहीं पाई और वो भी यमुना तट चली गई। 
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ये दृश्य इतना सुखद था कि कोई भी देखने के लिए उत्साहित हो जाए। तो ऐसे में देवी-देवता पीछे कैसे रह सकते थे। 
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अतः शास्त्रों में वर्णित है कि इस नजारे को आकाश से समस्त देवी-देवता देख रहे थे परंतु जब शिव जी ने ये सुंदर व लुभावना दृश्य देखा तो वो इस रासलीला में जान के लिए आतुर हो गए। 
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भगवान शिव का भी उस रासलीला का आनंद लेने का मन हुआ, अतः वह स्वयं वृंदावन पहुंच गए। 
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लेकिन नदी की देवी वृन ने उन्हें भीतर जाने नहीं दिया, चूंकि रासलीला में श्री कृष्ण के अलावा समस्त गोपियां थी। 
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देवी वृन ने उन्हें बताया कि रासलीला में कोई भी पुरुष नहीं जा सकता। 
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परंतु उनकी यानि शिव शंकर की व्याकुलता व उत्सुक्ता को देखते हुए उन्होंने उन्हें कहा कि अगर आप जाना चाहते हैं तो आपको महिला रूप में आना होगा। 
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देवी के मुख से ये वचन सुनकर शिव शंकर दुविधा में पड़ गए और सोच विचार करने लगे। 
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दूसरी ओर रासलीला का अंत होने वाला था। शिव जी के लिए ये स्थिति बहुत ही विलक्षण थी क्योंकि शिव जी पौरुष थे। 
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परंतु श्री कृष्ण की रासलीला को देखने का मौका न हाथ से न चला जाए, ऐसा विचार कर भोलेनाथ समय व्यर्थ किए बिना तुरंत ही गोपी वेष धारण करने के लिए मान गए। 
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जिसके बाद देवी वृन ने उनको वस्त्र दिए।, जिन्हें पहनकर भगवान शंकर श्री कृष्ण की रासलीला का आनंद लेने के लिए निधिवन के भीतर चले गए। 
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लेकिन लीलाधर श्री कृष्ण तीनों लोकों के नाथ भगवान शंकर को पहचानने में बिल्कुल देर नहीं लगाई और उनका ये मनमोहक गोपी रूप देखकर उनके इस स्वरूप को श्री कृष्ण ने गोपेश्वर नाम दे दिया। 
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बता दें वृंदावन में गोपेश्वर नामक मंदिर है, जहां शिव जी को महिला रूप में पूजा जाता है इतना ही नहीं यहां इनका साज-श्रृंगार भी महिलाओं या गोपियों की तरह किया जाता है। 
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 ((((((( जय जय श्री राधे )))))))







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12. *दामोदर मास विशेष कथा*

*बालकृष्‍ण द्वारा यमलार्जुन का उद्धार*


भगवान श्रीकृष्‍ण ने अपने बचपन मे अनेक लीलाएं की हैं । उनकी प्रत्‍येक लीला बहुत ही रोमांचक है । आज हम उनके बचपन की कहानी सुनेंगे ।

कान्‍हा की माता यशोदा कान्‍हा का बहुत लाड-प्‍यार करती थी । वैसे तो नंदजी और यशोदा माता के घर में अनेक सेवक थे; परंतु बालकृष्‍ण की प्रत्‍येक सेवा यशोदा माता स्‍वयं करती थी ।

एक दिन यशोदामाई ने घर की सभी दासियों को दूसरे कामों में लगा दिया और कान्‍हा को माखन खिलाने के लिए स्‍वयं दही मथने लगी । तभी कान्‍हा अपनी माई के पास आये । उन्‍होंने यशोदा माता को दही मथने से रोक दिया और स्‍वयं उनकी गोद में कूदकर चढ गए । यशोदा माई कान्‍हा को दूध पिलाने लगी ।

उसी समय चूल्‍हे पर रखे हुए पतीले में दूध उबलने लग गया । वह देेखकर माई ने कान्‍हा को अपनी गोद से उतारा और वे दूध का पतीला उतारने के लिए चली गई । यशोदा माता छोडकर चली गई, यह देखकर कान्‍हा ने एक पत्‍थर उठाया और पास रखी हुई मटकी पर दे मारा । मटकी फूट गयी और दूध-दही भूमी पर फैल गया । उसके बाद कान्‍हा रोने लगे और दूसरी मटकी से माखन खाने लगे । वहां पर आए बंदरों को भी माखन खिलाने लगे ।

यशोदा माई वापस आई । कान्‍हा की करतूत देखकर वे छडी लेकर कान्‍हा के पास पहुंची । कान्‍हा ने माई को देखा तो वे भवन के पीछे के दरवाजे से भागे । यशोदा माई उनको पकडने के लिए पीछे भागी ।

जब कान्‍हा ने देखा की माई थक गयी है, तब वे एक जगह खडे हो गये ताकि माई उन्‍हें पकड सके । माई ने कान्‍हा को पकड लिया और वे कान्‍हा का हाथ पकडकर उन्‍हें डांटने लगी । उसके बाद माई ने कान्‍हा को बांधने के लिए रस्‍सी मंगाई और उन्‍हें ऊखल से बांध दिया और वे अपने काम करने चली गई । परंतु वे तो कान्‍हा थे । उन्‍होंने देखा माई अपना काम कर रही है । तो उन्‍होंने भी अपना काम करना आरंभ किया 

उनके भवन के बाहर यमलार्जुन के दो वृक्ष थे । नारदमुनी जी के शाप से नलकूबर और मणिग्रीव नामक यक्ष यमलार्जुन के वृक्ष बन गए थे । उन्‍हें शाप से मुक्‍त करने के लिए छोटे से कान्‍हा ऊखल को खींचते हुए नन्‍दभवन के बाहर आ गये । उन्‍होंने ऊखल को दोनों वृक्षों के बीच में फंसाया और जोर से खींचने लगे । कृष्‍ण तो साक्षात भगवान थे, इसलिए बालक होते हुए भी उन्‍होंने अपने शक्‍ति से दोनों वृक्ष गिरा दिए । भयानक आवाज हुई । उन वृक्षों मे से दिव्‍य पुरुष प्रकट हो गये जो नलकूबर और मणिग्रीव यक्ष थे।

भगवान श्रीकृष्‍ण ने उन्‍हें शापमुक्‍त कर उनका उद्धार किया, इसलिए दोनों ने उनके चरणों मे कृतज्ञता व्‍यक्‍त की और अपने धाम को चले गये ।







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13. *  सेठ व सेठानी की कहानी*

एक नगर में एक सेठ व सेठानी रहते थे और सेठानी रोज विष्णु भगवान की पूजा करती थी. सेठ को उसका पूजा करना बिलकुल अच्छा नहीं लगता था. इसी वजह से एक दिन सेठ ने सेठानी को घर से निकाल दिया. घर से निकलने पर वह जंगल की ओर गई तो देखा चार आदमी मिट्टी खोदने का काम कर रहे थे. उसने कहा कि मुझे नौकरी पर रख लो. उन्होंने उसे रख लिया लेकिन मिट्टी खोदने से सेठानी के हाथों में छाले पड़ गए और उसके बाल भी उड़ गए. वह आदमी कहते हैं कि बहन लगता है तुम किसी अच्छे घर की महिला हो, तुम्हें काम करने की आदत नहीं है. तुम ये काम रहने दो और हमारे घर का काम कर दिया करो.

वह चारों आदमी उसे अपने साथ घर ले गए और वह चार मुट्ठी अनाज लाते और सभी बाँटकर खा लेते. एक दिन सेठानी ने कहा कि कल से आठ मुठ्ठी अनाज लाना. अगले दिन वह आठ मुठ्ठी अनाज लाए और सेठानी पड़ोसन से आग माँग लाई. उसने भोजन बनाया, विष्णु भगवान को भोग लगाया फिर सभी को खाने को दिया. सारे भाई बोले कि बहन आज तो भोजन बहुत स्वादिष्ट बना है. सेठानी ने कहा कि भगवान का जूठा है तो स्वाद तो होगा ही.

सेठानी के जाने के बाद सेठ भूखा रहने लगा और आस-पड़ोस के सारे लोग कहने लगे कि ये तो सेठानी के भाग्य से खाता था. एक दिन सेठ अपनी सेठानी को ढूंढने चल पड़ा. उसे ढूंढते हुए वह भी उस जंगल में पहुंच गया जहाँ वह चारों आदमी मिट्टी खोद रहे थे. सेठ ने उन्हें देखा तो कहा कि भाई मुझे भी काम पर रख लो. उन आदमियों ने उसे काम पर रख लिया लेकिन मिट्टी खोदने से उसके भी हाथों में छाले पड़ गए और बाल उड़ने लगे. उसकी यह हालत देख चारों बोले कि तुम्हे काम की आदत नहीं है, तुम हमारे साथ चलो और हमारे घर में रह लो.

सेठ उन चारों आदमियों के साथ उनके घर चला गया और जाते ही उसने सेठानी को पहचान लिया लेकिन सेठानी घूँघट में थी तो सेठ को देख नही पाई. सेठानी ने सभी के लिए भोजन तैयार किया और हर रोज की भाँति विष्णु भगवान को भोग लगाया. उसने उन चारों भाईयों को भोजन परोस दिया लेकिन जैसे ही वह सेठ को भोजन देने लगी तो विष्णु भगवान ने उसका हाथ पकड़ लिया. भाई बोले कि बहन ये तुम क्या कर रही हो़? वह बोली – मैं कुछ नहीं कर रही हूँ, मेरा हाथ तो विष्णु भगवान ने पकड़ लिया है. भाई बोले – हमें भी विष्णु भगवान के दर्शन कराओ? उसने भगवान से प्रार्थना की तो विष्णु जी प्रकट हो गए, सभी ने दर्शन किए.

सेठ ने सेठानी से क्षमा माँगी और सेठानी को साथ चलने को कहा. भाईयों ने अपनी बहन को बहुत सा धन देकर विदा किया. अब सेठानी के साथ सेठ भी भगवान विष्णु की पूजा करने लगा और उनके परिणाम से उनका घर अन्न-धन से भर गया.






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                    थवारी माता की कहान


14. पथवारी माता की कहानी 


एक बार पथवारी माता, पाल और विनायक जी में झगड़ा हो गया। सब आपस में स्वयं को बड़ा बताने लगे। इतने में एक ब्राह्मण का लड़का आया। पाल, पथवारी, गजानन्द जी ने उसे रोका और कहा–‘लडके रूक जा और हमारा न्याय कर।’ 
          लड़का बोला–‘मैं कल वापस आऊँगा तब न्याय करूँगा।’ 
          घर आकर लडके ने माँ से कहा–‘माँ मुझे कल पाल, पथवारी माता, विनायक जी का न्याय चुकाना है।’ 
          माँ ने कहा–‘बेटा सबको बड़ा बता देना।’ 
          दूसरे दिन लड़का वहाँ गया और बोला–‘पाल माता ! आप बड़ी हो, क्योंकि हर व्यक्ति आता है और स्नान ध्यान करके शुद्ध होकर जाता है, और आप सबकी रक्षा करती हैं। हे पथवारी माता ! आप सबसे बड़ी हो क्योंकि कितने भी तीर्थ, धर्म, ध्यान कर ले पर आपकी पूजा किये बिना उनका कार्य पूर्ण नहीं होता। आप जीवित को भी तारती हैं और मरने के बाद भी उद्धार करती हैं।’ पथवारी माता पथ की धराणी हैं इसलिये आप बड़ी हो। 
          अब विनायक जी से लड़का बोला–‘सबसे पहले शुभ काम में आप को ही मनाया जाता है, आप को ध्याये बिना कोई काम सिद्ध नहीं होता है इसलिये आप बड़े हो।’
          पाल माता, पथवारी माता, विनायक जी भगवान लड़के की चतुराई से प्रसन्न हो गये, और बोले लड़के तुमने तो हम सबको ही बड़ा कर दिया उसको सुखी रहने का आशीर्वाद दिया और जौं के दाने उसके अंगोछे में डाल दिए। 
          लड़का सोचने लगा–‘ये तो घाटे का सौदा रहा, सारा दिन खराब कर न्याय किया और इतने से जौ मिले। उदास मन से घर आकर अंगोछा एक कोने में डाल दिया। माँ ने अंगोछा उठाया तो उसमे से हीरे मोती बिखर गये। तो माँ बोली–‘बेटा न्याय करके क्या लाया हैं।’
          लड़का बोला–‘माँ कोने में जौं पड़ा देख ले।’ माँ वहाँ गई देखा हीरे मोती का ढेर लगा है, हीरे मोती जगमगा रहे हैं। माँ अत्यधिक प्रसन्न हो गई। 
          माँ ने बेटे को बुलाया और कहा–‘बेटा आज तो पाल माता, पथवारी माता, विनायक जी भगवान आज तो हम पर प्रसन्न हुए हैं। माँ बेटे बहुत प्रसन्न हुए।’
          हे भगवान ! जैसा पाल माता, पथवारी माता, विनायक जी भगवान ने लड़के को दिया वैसा सबको देना।
                          ० ० ०

                          "जय जय श्री हरि"




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15.   खिचड़ी का बेला 

किसी गाँव में एक बुढ़िया रहती थी और वह कार्तिक का व्रत रखा करती थी. उसके व्रत खोलने के समय कृष्ण भगवान आते और एक कटोरा खिचड़ी का रखकर चले जाते. बुढ़िया के पड़ोस में एक औरत रहती थी. वह हर रोज यह देखकर ईर्ष्या करती कि इसका कोई नहीं है फिर भी इसे खाने के लिए खिचड़ी मिल ही जाती है. एक दिन कार्तिक महीने का स्नान करने बुढ़िया गंगा गई. पीछे से कृष्ण भगवान उसका खिचड़ी का कटोरा रख गए. पड़ोसन ने जब खिचड़ी का कटोरा रखा देखा और देखा कि बुढ़िया नही है तब वह कटोरा उठाकर घर के पिछवाड़े फेंक आई.

कार्तिक स्नान के बाद बुढ़िया घर आई तो उसे खिचड़ी का कटोरा नहीं मिला और वह भूखी ही रह गई. बार-बार एक ही बात कहती कि कहां गई मेरी खिचड़ी और कहां गया मेरा खिचड़ी का कटोरा. दूसरी ओर पड़ोसन ने जहाँ खिचड़ी गिराई थी वहाँ एक पौधा उगा जिसमें दो फूल खिले. एक बार राजा उस ओर से निकला तो उसकी नजर उन दोनो फूलों पर पड़ी और वह उन्हें तोड़कर घर ले आया. घर आने पर उसने वह फूल रानी को दिए जिन्हें सूँघने पर रानी गर्भवती हो गई. कुछ समय बाद रानी ने दो पुत्रों को जन्म दिया. वह दोनो जब बड़े हो गए तब वह किसी से भी बोलते नही थे लेकिन जब वह दोनो शिकार पर जाते तब रास्ते में उन्हें वही बुढ़िया मिलती जो अभी भी यही कहती कि कहाँ गई मेरी खिचड़ी और कहाँ गया मेरा कटोरा? बुढ़िया की बात सुनकर वह दोनो कहते कि हम है तेरी खिचड़ी और हम है तेरा बेला !

हर बार जब भी वह शिकार पर जाते तो बुढ़िया यही बात कहती और वह दोनो वही उत्तर देते. एक बार राजा के कानों में यह बात पड़ गई . उसे आश्चर्य हुआ कि दोनो लड़के किसी से नहीं बोलते तब यह बुढ़िया से कैसे बात करते हैं. राजा ने बुढ़िया को राजमहल बुलवाया और कहा कि हम से तो किसी से ये दोनों बोलते नहीं है, तुमसे यह कैसे बोलते है? बुढ़िया ने कहा कि महाराज मुझे नहीं पता कि ये कैसे मुझसे बोल लेते हैं. मैं तो कार्तिक का व्रत करती थी और कृष्ण भगवान मुझे खिचड़ी का बेला भरकर दे जाते थे. एक दिन मैं स्नान कर के वापिस आई तो मुझे वह खिचड़ी नहीं मिली. जब मैं कहने लगी कि कहां गई मेरी खिचड़ी और कहाँ गया मेरा बेला? तब इन दोनो लड़को ने कहा कि तुम्हारी पड़ोसन ने तुम्हारी खिचड़ी फेंक दी थी तो उसके दो फूल बन गए थे. वह फूल राजा तोड़कर ले गया और रानी ने सूँघा तो हम दो लड़को का जन्म हुआ. हमें भगवान ने ही तुम्हारे लिए भेजा है.

सारी बात सुनकर राजा ने बुढ़िया को महल में ही रहने को कहा. हे कार्तिक महाराज ! जैसे आपने बुढ़िया की बात सुनी वैसे ही आपका व्रत करने वालों की भी सुनना.







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*16. रमा एकादशी : 9 नवंबर 2023, गुरुवार*

रमा एकादशी कार्तिक माह की है, जिसका महत्व अधिक माना जाता हैं। यह एकादशी कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी हैं। इस वर्ष में यह आज 9 नवंबर, गुरुवार के दिन मनाई जा रही है। कार्तिक माह का विशेष महत्व होता है, इसलिए इस ग्यारस का महत्व भी अधिक माना जाता हैं।

*क्यों कहते हैं इसे रमा एकादशी*

कार्तिक का महीना भगवान विष्णु को समर्पित होता है। हालांकि भगवान विष्णु इस समय शयन कर रहे होते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को ही वे चार मास बाद जागते हैं। लेकिन कृष्ण पक्ष में जितने भी त्यौहार आते हैं उनका संबंध किसी न किसी तरीके से माता लक्ष्मी से भी होता है। दिवाली पर तो विशेष रूप से लक्ष्मी पूजन तक किया जाता है। इसलिये माता लक्ष्मी की आराधना कार्तिक कृष्ण एकादशी से ही उनके उपवास से आरंभ हो जाती है। माता लक्ष्मी का एक अन्य नाम रमा भी होता है इसलिये इस एकादशी को रमा एकादशी भी कहा जाता है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार जब युद्धिष्ठर ने भगवान श्री कृष्ण से कार्तिक मास की कृष्ण एकादशी के बारे में पूछा तो भगवन ने उन्हें बताया कि इस एकादशी को रमा एकादशी कहा जाता है। इसका व्रत करने से जीवन में सुख समृद्धि और अंत में बैकुंठ की प्राप्ति होती है।

*रमा एकादशी व्रत तिथि व शुभ मुहूर्त*

पंचांग के अनुसार इस बार एकादशी तिथि का आरंभ 8 नवंबर 2023 को सुबह 83 बजे होगा तथा इसका समापन अगले दिन 9 नवंबर 2023 को सुबह 10.41 बजे होगा। हिंदू धर्म में उदय तिथी की मान्यता होने के कारण रमा एकादशी का व्रत भी 9 नवंबर को रखा जाएगा। व्रत का पारण अगले दिन 10 नवंबर को सुबह 6.39 बजे से 8.50 बजे तक किया जा सकेगा।

*रमा एकादशी व्रत कथा*

धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! कार्तिक कृष्ण एकादशी का क्या नाम है? इसकी विधि क्या है? इसके करने से क्या फल मिलता है। सो आप विस्तारपूर्वक बताइए। भगवान श्रीकृष्ण बोले कि कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम रमा है। यह बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाली है। इसका माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।

हे राजन! प्राचीनकाल में मुचुकुंद नाम का एक राजा था। उसकी इंद्र के साथ मित्रता थी और साथ ही यम, कुबेर, वरुण और विभीषण भी उसके मित्र थे। यह राजा बड़ा धर्मात्मा, विष्णुभक्त और न्याय के साथ राज करता था। उस राजा की एक कन्या थी, जिसका नाम चंद्रभागा था। उस कन्या का विवाह चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ था। एक समय वह शोभन ससुराल आया। उन्हीं दिनों जल्दी ही पुण्यदायिनी एकादशी (रमा) भी आने वाली थी।

जब व्रत का दिन समीप आ गया तो चंद्रभागा के मन में अत्यंत सोच उत्पन्न हुआ कि मेरे पति अत्यंत दुर्बल हैं और मेरे पिता की आज्ञा अति कठोर है। दशमी को राजा ने ढोल बजवाकर सारे राज्य में यह घोषणा करवा दी कि एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए। ढोल की घोषणा सुनते ही शोभन को अत्यंत चिंता हुई औ अपनी पत्नी से कहा कि हे प्रिये! अब क्या करना चाहिए, मैं किसी प्रकार भी भूख सहन नहीं कर सकूँगा। ऐसा उपाय बतलाओ कि जिससे मेरे प्राण बच सकें, अन्यथा मेरे प्राण अवश्य चले जाएँगे।

चंद्रभागा कहने लगी कि हे स्वामी! मेरे पिता के राज में एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं करता। हाथी, घोड़ा, ऊँट, बिल्ली, गौ आदि भी तृण, अन्न, जल आदि ग्रहण नहीं कर सकते, फिर मनुष्य का तो कहना ही क्या है। यदि आप भोजन करना चाहते हैं तो किसी दूसरे स्थान पर चले जाइए, क्योंकि यदि आप यहीं रहना चाहते हैं तो आपको अवश्य व्रत करना पड़ेगा। ऐसा सुनकर शोभन कहने लगा कि हे प्रिये! मैं अवश्य व्रत करूँगा, जो भाग्य में होगा, वह देखा जाएगा।

इस प्रकार से विचार कर शोभन ने व्रत रख लिया और वह भूख व प्यास से अत्यंत पीडि़त होने लगा। जब सूर्य नारायण अस्त हो गए और रात्रि को जागरण का समय आया जो वैष्णवों को अत्यंत हर्ष देने वाला था, परंतु शोभन के लिए अत्यंत दु:खदायी हुआ। प्रात:काल होते शोभन के प्राण निकल गए। तब राजा ने सुगंधित काष्ठ से उसका दाह संस्कार करवाया। परंतु चंद्रभागा ने अपने पिता की आज्ञा से अपने शरीर को दग्ध नहीं किया और शोभन की अंत्येष्टि क्रिया के बाद अपने पिता के घर में ही रहने लगी।

रमा एकादशी के प्रभाव से शोभन को मंदराचल पर्वत पर धन-धान्य से युक्त तथा शत्रुओं से रहित एक सुंदर देवपुर प्राप्त हुआ। वह अत्यंत सुंदर रत्न और वैदुर्यमणि जटित स्वर्ण के खंभों पर निर्मित अनेक प्रकार की स्फटिक मणियों से सुशोभित भवन में बहुमूल्य वस्त्राभूषणों तथा छत्र व चँवर से विभूषित, गंधर्व और अप्सराअओं से युक्त सिंहासन पर आरूढ़ ऐसा शोभायमान होता था मानो दूसरा इंद्र विराजमान हो।

एक समय मुचुकुंद नगर में रहने वाले एक सोम शर्मा नामक ब्राह्मण तीर्थयात्रा करता हुआ घूमता-घूमता उधर जा निकला और उसने शोभन को पहचान कर कि यह तो राजा का जमाई शोभन है, उसके निकट गया। शोभन भी उसे पहचान कर अपने आसन से उठकर उसके पास आया और प्रणामादि करके कुशल प्रश्न किया। ब्राह्मण ने कहा कि राजा मुचुकुंद और आपकी पत्नी कुशल से हैं। नगर में भी सब प्रकार से कुशल हैं, परंतु हे राजन! हमें आश्चर्य हो रहा है। आप अपना वृत्तांत कहिए कि ऐसा सुंदर नगर जो न कभी देखा, न सुना, आपको कैसे प्राप्त हुआ।

तब शोभन बोला कि कार्तिक कृष्ण की रमा एकादशी का व्रत करने से मुझे यह नगर प्राप्त हुआ, परंतु यह अस्थिर है। यह स्थिर हो जाए ऐसा उपाय कीजिए। ब्राह्मण कहने लगा कि हे राजन! यह स्थिर क्यों नहीं है और कैसे स्थिर हो सकता है आप बताइए, फिर मैं अवश्यमेव वह उपाय करूँगा। मेरी इस बात को आप मिथ्या न समझिए। शोभन ने कहा कि मैंने इस व्रत को श्रद्धारहित होकर किया है। अत: यह सब कुछ अस्थिर है। यदि आप मुचुकुंद की कन्या चंद्रभागा को यह सब वृत्तांत कहें तो यह स्थिर हो सकता है।

ऐसा सुनकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने अपने नगर लौटकर चंद्रभागा से सब वृत्तांत कह सुनाया। ब्राह्मण के वचन सुनकर चंद्रभागा बड़ी प्रसन्नता से ब्राह्मण से कहने लगी कि हे ब्राह्मण! ये सब बातें आपने प्रत्यक्ष देखी हैं या स्वप्न की बातें कर रहे हैं। ब्राह्मण कहने लगा कि हे पुत्री! मैंने महावन में तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा है। साथ ही किसी से विजय न हो ऐसा देवताओं के नगर के समान उनका नगर भी देखा है। उन्होंने यह भी कहा कि यह स्थिर नहीं है। जिस प्रकार वह स्थिर रह सके सो उपाय करना चाहिए।

चंद्रभागा कहने लगी हे विप्र! तुम मुझे वहाँ ले चलो, मुझे पतिदेव के दर्शन की तीव्र लालसा है। मैं अपने किए हुए पुण्य से उस नगर को स्थिर बना दूँगी। आप ऐसा कार्य कीजिए जिससे उनका हमारा संयोग हो क्योंकि वियोगी को मिला देना महान पु्ण्य है। सोम शर्मा यह बात सुनकर चंद्रभागा को लेकर मंदराचल पर्वत के समीप वामदेव ऋषि के आश्रम पर गया। वामदेवजी ने सारी बात सुनकर वेद मंत्रों के उच्चारण से चंद्रभागा का अभिषेक कर दिया। तब ऋषि के मंत्र के प्रभाव और एकादशी के व्रत से चंद्रभागा का शरीर दिव्य हो गया और वह दिव्य गति को प्राप्त हुई।

इसके बाद बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने पति के निकट गई। अपनी प्रिय पत्नी को आते देखकर शोभन अति प्रसन्न हुआ। और उसे बुलाकर अपनी बाईं तरफ बिठा लिया। चंद्रभागा कहने लगी कि हे प्राणनाथ! आप मेरे पुण्य को ग्रहण कीजिए। अपने पिता के घर जब मैं आठ वर्ष की थी तब से विधिपूर्वक एकादशी के व्रत को श्रद्धापूर्वक करती आ रही हूँ। इस पुण्य के प्रताप से आपका यह नगर स्थिर हो जाएगा तथा समस्त कर्मों से युक्त होकर प्रलय के अंत तक रहेगा। इस प्रकार चंद्रभागा ने दिव्य आभू‍षणों और वस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने पति के साथ आनंदपूर्वक रहने लगी।

हे राजन! यह मैंने रमा एकादशी का माहात्म्य कहा है, जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं, उनके ब्रह्महत्यादि समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों की एका‍दशियाँ समान हैं, इनमें कोई भेदभाव नहीं है। दोनों समान फल देती हैं। जो मनुष्य इस माहात्म्य को पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे समस्त पापों से छूटकर विष्णुलोक को प्राप्त होता हैं। इति शुभम्। == उद्देश्य ==कार्तिक मास में तो प्रात: सूर्योदय से पूर्व उठने, स्नान करने और दानादि करने का विधान है। इसी कारण प्रात: उठकर केवल स्नान करने मात्र से ही मनुष्य को जहां कई हजार यज्ञ करने का फल मिलता है, वहीं इस मास में किए गए किसी भी व्रत का पुण्यफल हजारों गुणा अधिक है। रमा एकादशी व्रत में भगवान विष्णु के पूर्णावतार भगवान जी के केशव रूप की विधिवत धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प एवं मौसम के फलों से पूजा की जाती है।

व्रत में एक समय फलाहार करना चाहिए तथा अपना अधिक से अधिक समय प्रभु भक्ति एवं हरिनाम संकीर्तन में बिताना चाहिए। शास्त्रों में विष्णुप्रिया तुलसी की महिमा अधिक है इसलिए व्रत में तुलसी पूजन करना और तुलसी की परिक्रमा करना अति उत्तम है। ऐसा करने वाले भक्तों पर प्रभु अपार कृपा करते हैं जिससे उनकी सभी मनोकामनाएं सहज ही पूरी हो जाती हैं।

वैसे तो किसी भी व्रत में श्रद्धा और आस्था का होना अति आवश्यक है परंतु भगवान सदा ही अपने भक्तों के पापों का नाश करने वाले हैं इसलिए कोई भी भक्त यदि अनायास ही कोई शुभ कर्म करता है तो प्रभु उससे भी प्रसन्न होकर उसके किए पापों से उसे मुक्त करके उसका उद्धार कर देते हैं। जो भक्त प्रभु की भक्ति श्रद्धा और आस्था के साथ करते हैं उनके सभी कष्टों का निवारण प्रभु अवश्य करते हैं क्योंकि इस दिन किए गए पुण्य कर्म में श्रद्धा, भक्ति एवं आस्था से ही मनुष्य को स्थिर पुण्य फल की प्राप्ति हो सकेगी।

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                    17. 🌷 धनतेरस की कहानी 🌷

कहा जाता है कि एक समय भगवान विष्णु मृत्युलोक में विचरण करने के लिए आ रहे थे तब लक्ष्मी जी ने भी उनसे साथ चलने का आग्रह किया। तब विष्णु जी ने कहा कि यदि मैं जो बात कहूं तुम अगर वैसा ही मानो तो फिर चलो। तब लक्ष्मी जी उनकी बात मान गईं और भगवान विष्णु के साथ भूमंडल पर आ गईं। कुछ देर बाद एक जगह पर पहुंचकर भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी से कहा कि जब तक मैं न आऊं तुम यहां ठहरो। मैं दक्षिण दिशा की ओर जा रहा हूं,तुम उधर मत आना। विष्णुजी के जाने पर लक्ष्मी के मन में कौतुहल जागा कि आखिर दक्षिण दिशा में ऐसा क्या रहस्य है जो मुझे मना किया गया है और भगवान स्वयं चले गए। 
 
लक्ष्मी जी से रहा न गया और जैसे ही भगवान आगे बढ़े लक्ष्मी भी पीछे-पीछे चल पड़ीं। कुछ ही आगे जाने पर उन्हें सरसों का एक खेत दिखाई दिया जिसमें खूब फूल लगे थे। सरसों की शोभा देखकर वह मंत्रमुग्ध हो गईं और फूल तोड़कर अपना श्रृंगार करने के बाद आगे बढ़ीं। आगे जाने पर एक गन्ने के खेत से लक्ष्मी जी गन्ने तोड़कर रस चूसने लगीं। 

उसी क्षण विष्णु जी आए और यह देख लक्ष्मी जी पर नाराज होकर उन्हें शाप दे दिया कि मैंने तुम्हें इधर आने को मना किया था,पर तुम न मानी और किसान की चोरी का अपराध कर बैठी। अब तुम इस अपराध के जुर्म में इस किसान की 12 वर्ष तक सेवा करो। ऐसा कहकर भगवान उन्हें छोड़कर क्षीरसागर चले गए। तब लक्ष्मी जी उस गरीब किसान के घर रहने लगीं। 

एक दिन लक्ष्मीजी ने उस किसान की पत्नी से कहा कि तुम स्नान कर पहले मेरी बनाई गई इस देवी लक्ष्मी का पूजन करो,फिर रसोई बनाना,तब तुम जो मांगोगी मिलेगा। किसान की पत्नी ने ऐसा ही किया। पूजा के प्रभाव और लक्ष्मी की कृपा से किसान का घर दूसरे ही दिन से अन्न,धन,रत्न,स्वर्ण आदि से भर गया। लक्ष्मी ने किसान को धन-धान्य से पूर्ण कर दिया। किसान के 12 वर्ष बड़े आनंद से कट गए। फिर 12 वर्ष के बाद लक्ष्मीजी जाने के लिए तैयार हुईं। 

विष्णुजी लक्ष्मीजी को लेने आए तो किसान ने उन्हें भेजने से इंकार कर दिया। तब भगवान ने किसान से कहा कि इन्हें कौन जाने देता है,यह तो चंचला हैं, कहीं नहीं ठहरतीं। इनको बड़े-बड़े नहीं रोक सके। इनको मेरा शाप था इसलिए 12 वर्ष से तुम्हारी सेवा कर रही थीं। तुम्हारी 12 वर्ष सेवा का समय पूरा हो चुका है। किसान हठपूर्वक बोला कि नहीं अब मैं लक्ष्मीजी को नहीं जाने दूंगा। 
 
तब लक्ष्मीजी ने कहा कि हे किसान तुम मुझे रोकना चाहते हो तो जो मैं कहूं वैसा करो। कल तेरस है। तुम कल घर को लीप-पोतकर स्वच्छ करना। रात्रि में घी का दीपक जलाकर रखना और शायंकाल मेरा पूजन करना और एक तांबे के कलश में रुपए भरकर मेरे लिए रखना,मैं उस कलश में निवास करूंगी। किंतु पूजा के समय मैं तुम्हें दिखाई नहीं दूंगी। इस एक दिन की पूजा से वर्ष भर मैं तुम्हारे घर से नहीं जाऊंगी। यह कहकर वह दीपकों के प्रकाश के साथ दसों दिशाओं में फैल गईं। अगले दिन किसान ने लक्ष्मीजी के कथानुसार पूजन किया। उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया। इसी वजह से हर वर्ष तेरस के दिन लक्ष्मीजी की पूजा होने लगी।





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18. 

*छोटी दिवाली / नरक चतुर्दशी, 11 नवंबर शनिवार*

पंचांग के अनुसार, कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि की शुरूआत 11 नवंबर शनिवार को दोपहर 01 बजकर 57 मिनट पर हो रही है. यह तिथि 12 नवंबर रविवार को दोपहर 02 बजकर 44 मिनट पर खत्म होगी. छोटी दिवाली के लिए प्रदोष काल 11 नवंबर को प्राप्त हो रहा है, इसलिए छोटी दिवाली 11 नवंबर को मनाई जाएगी.
                             
नरक चतुर्दशी का त्यौहार प्रतिवर्ष कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन मनाया जाता हैं। कुछ व्यक्ति इसे छोटी दीपावली कहते हैं, क्योंकि यह दीपावली से एक दिन पहले ही मनाया जाता हैं। कुछ लोग इसे नरक चौदस, रूप चौदस, रूप चतुर्दशी आदि नामों से जानते हैं। तो कुछ इसे नरक पूजा तथा नर्क चतुर्दशी के नाम से जानते हैं। इस दिन मुख्य रूप से मृत्यु के देवता यमराज जी की पूजा-अर्चना की जाती हैं।

                     नरक चतुर्दशी की कथा–1

          प्राचीन काल में एक नरकासुर नाम का राजा था। जिसने देवताओं की माता अदिति के आभूषण छीन लिए थे। वरुण देवता को छत्र से वंचित कर दिया था, मंदराचल के मणिपर्वत शिखर पर अपना कब्ज़ा कर लिया था तथा देवताओं, सिद्ध पुरुषों और राजाओं की 16100 कन्याओं का अपहरण कर उन्हें बंदी बना लिया था। कहा जाता हैं, कि दुष्ट नरकासुर के अत्याचारों व पापों का नाश करने के लिए श्री कृष्ण जी ने नरक चतुर्दशी के दिन ही नरकासुर का वध किया था, और उसके बंदी ग्रह में से कन्याओं को छुड़ा लिया। कृष्ण जी ने कन्याओं को नरकासुर के बंधन से तो मुक्त कर दिया। लेकिन देवताओं का कहना था कि समाज इन्हें स्वीकार नहीं करेगा। इसलिए आप ही इस समस्या का हल बताये। यह सब सुनकर श्री कृष्ण जी ने कन्याओं को समाज में सम्मान दिलाने के लिए सत्यभामा की सहायता से सभी कन्याओं से विवाह कर लिया।

                      नरक चतुर्दशी की कथा–2

         नरक चतुर्दशी के दिन से एक और कथा जुडी हुई हैं जिसका वर्णन भी यहाँ किया जा रहा हैं। प्राचीन समय में एक रन्तिदेव नामक राजा हुआ करता था। वह हमेशा धर्म–कर्म के काम में लगा रहता था। जब उनका अंतिम समय आया तब उन्हें लेने के लिए यमराज के दूत आये और उन्होंने कहा कि राजन अब आपका नरक में जाने का समय आ गया हैं। नरक में जाने की बात सुनकर राजा हैरान रह गये और उन्होंने यमदूतों से पूछा की मैंने तो कभी कोई अधर्म या पाप नहीं किया। मैंने हमेशा अपना जीवन अच्छे कार्यों को करने में व्यतीत किया। तो आप मुझे नरक में क्यों ले जा रहे हो। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने बताया, कि एक बार राजन तुम्हारे महल के द्वारा एक ब्राहमण आया था, जो भूखा ही तुम्हारे द्वारा से लौट गया।  इस कारण ही तुन्हें नरक में जाना पड रहा हैं। यह सब सुनकर राजा ने यमराज से अपनी गलती को सुधारने के लिए एक वर्ष का अतिरिक्त समय देने की प्रार्थना की। यमराज ने राजा के द्वारा किये गये नम्र निवेदन को स्वीकार का लिया और उन्हें एक वर्ष का समय दे दिया। यमदूतों से मुक्ति पाने के बाद राजा ऋषियों के पास गए और उन्हें पूर्ण वृतांत विस्तार से सुनाया. यह सब सुनकर ऋषियों ने राजा को एक उपाय बताया। जिसके अनुसार ही उसने कार्तिक मास कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन व्रत रखा, और ब्राहमणों को भोजन कराया जिसके बाद उसे नरक जाने से मुक्ति मिल गई।





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19. पाँच दिन पाँच महापर्वो में तीसरा पर्व
          
                                "दीपावली पूजन"

         दीवाली पर माँ लक्ष्मी, सरस्वती एवं गणेशजी की पूजा की जाती है। इन दिन इन तीनों देवी-देवताओं की विशेष पूजा-अर्चना कर उनसे सुख-समृद्धि, बुद्धि तथा घर में शांति, तरक्की का वरदान माँगा जाता है। दीवाली पर देवी-देवताओं की पूजा में कुछ विशेष बातों का ध्यान रखा जाता है जो निम्न प्रकार हैं-

                                 पूजन सामग्री

        दीवाली पूजा के सामान की लगभग सभी चीजें घर में ही मिल जाती हैं। कुछ अतिरिक्त चीजों को बाहर से लाया जा सकता है। ये वस्तुएं हैं- लक्ष्मी, सरस्वती व गणेश जी का चित्र या प्रतिमा, रोली, कुमकुम, चावल, पान, सुपारी, लौंग, इलायची, धूप, कपूर, अगरबत्तियां, मिट्टी तथा तांबे के दीपक, रुई, कलावा (मौलि), नारियल, शहद, दही, गंगाजल, गुड़, धनिया, फल, फूल, जौ, गेहूँ, दूर्वा, चंदन, सिंदूर, घृत, पंचामृत, दूध, मेवे, खील, बताशे, गंगाजल, यज्ञोपवीत (जनेऊ), श्वेत वस्त्र, इत्र, चौकी, कलश, कमल गट्टे की माला, शंख, आसन, थाली, चांदी का सिक्का, देवताओं के प्रसाद हेतु मिष्ठान्न (बिना वर्क का)

                                 पूजन विधि

        दीवाली की पूजा में सबसे पहले एक चौकी पर सफेद वस्त्र बिछा कर उस पर माँ लक्ष्मी, सरस्वती व गणेश जी का चित्र या प्रतिमा को विराजमान करें। इसके बाद हाथ में पूजा के जलपात्र से थोड़ा-सा जल लेकर उसे प्रतिमा के ऊपर निम्न मंत्र पढ़ते हुए छिड़कें। बाद में इसी तरह से स्वयं को तथा अपने पूजा के आसन को भी इसी तरह जल छिड़ककर पवित्र कर लें।

        ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा। 
        य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स: वाह्याभंतर: शुचि:॥

         इसके बाद माँ पृथ्वी को प्रणाम करके निम्न मंत्र बोलें तथा उनसे क्षमा प्रार्थना करते हुए अपने आसन पर विराजमान हों।

         पृथ्विति मंत्रस्य मेरुपृष्ठः ग ऋषिः सुतलं 
         छन्दः कूर्मोदेवता आसने विनियोगः॥
         ॐ पृथ्वी त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता। 
         त्वं च धारय माँ देवि पवित्रं कुरु चासनम्‌॥ 
         पृथिव्यै नमः आधारशक्तये नमः

        इसके बाद "ॐ केशवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः, ॐ माधवाय नमः" कहते हुए गंगाजल का आचमन करें 

                                 ध्यान व संकल्प

         इस पूरी प्रक्रिया के बाद मन को शांत कर आँखें बंद करें तथा माँ को मन ही मन प्रणाम करें। इसके बाद हाथ में जल लेकर पूजा का संकल्प करें। संकल्प के लिए हाथ में अक्षत (चावल), पुष्प और जल ले लीजिए। साथ में एक रूपए (या यथासंभव धन) का सिक्का भी ले लें। इन सब को हाथ में लेकर संकल्प करें, कि मैं अमुक व्यक्ति अमुक स्थान व समय पर माँ लक्ष्मी, सरस्वती तथा गणेशजी की पूजा करने जा रहा हूं, जिससे मुझे शास्त्रोक्त फल प्राप्त हों। इसके बाद सबसे पहले भगवान गणेशजी व गौरी का पूजन कीजिए। तत्पश्चात कलश पूजन करें, फिर नवग्रहों का पूजन कीजिए। हाथ में अक्षत और पुष्प ले लीजिए, और नवग्रह स्तोत्र बोलिए। इसके बाद भगवती षोडश मातृकाओं का पूजन किया जाता है। इन सभी के पूजन के बाद 16 मातृकाओं को गंध, अक्षत व पुष्प प्रदान करते हुए पूजन करें। पूरी प्रक्रिया मौलि लेकर गणपति, माता लक्ष्मी व सरस्वती को अर्पण कर और स्वयं के हाथ पर भी बंधवा लें। अब सभी देवी-देवताओं के तिलक लगाकर स्वयं को भी तिलक लगवाएं। इसके बाद माँ महालक्ष्मी की पूजा आरंभ करें।
          माँ को रिझाने के लिए करें श्रीसूक्त, लक्ष्मीसूक्त व कनकधारा स्रोत का पाठ सबसे पहले भगवान गणेशजी, लक्ष्मीजी का पूजन करें। उनकी प्रतिमा के आगे 7, 11 अथवा 21 दीपक जलाएं तथा माँ को श्रृंगार सामग्री अर्पण करें। माँ को भोग लगा कर उनकी आरती करें। श्रीसूक्त, लक्ष्मीसूक्त व कनकधारा स्रोत का पाठ करें। इस तरह से आपकी पूजा पूर्ण होती है।

                                  क्षमा-प्रार्थना

         पूजा पूर्ण होने के बाद माँ से जाने-अनजाने हुए सभी भूलों के लिए क्षमा-प्रार्थना करें। उन्हें कहें- माँ न मैं आह्वान करना जानता हूँ, न विसर्जन करना। पूजा-कर्म भी मैं नहीं जानता। हे परमेश्वरि! मुझे क्षमा करो। मन्त्र, क्रिया और भक्ति से रहित जो कुछ पूजा मैंने की है, हे देवि! वह मेरी पूजा सम्पूर्ण हो। यथा-सम्भव प्राप्त उपचार-वस्तुओं से मैंने जो यह पूजन किया है, उससे आप भगवती श्रीलक्ष्मी प्रसन्न हों। (सभी आध्यात्मिक जानकारियों के लिये हमारे फेसबुक पेज श्रीजी की चरण सेवा के साथ जुड़े रहें।)

                         दीपावली की लक्ष्मीजी की कथा

          हमारी लोक संस्कृति में दीपावली त्योहार और माता लक्ष्मी की बड़ी सौंधी सी कथा प्रचलित है। एक बार कार्तिक मास की अमावस को लक्ष्मीजी भ्रमण पर निकलीं। चारों ओर अंधकार व्याप्त था। वे रास्ता भूल गईं। उन्होंने निश्चय किया कि रात्रि वे मृत्युलोक में गुजार लेंगी और सूर्योदय के पश्चात बैकुंठधाम लौट जाएंगी, किंतु उन्होंने पाया कि सभी लोग अपने-अपने घरों में द्वार बंद कर सो रहे हैं।
          तभी अंधकार के उस साम्राज्य में उन्हें एक द्वार खुला दिखा जिसमें एक दीपक की लौ टिमटिमा रही थी। वे उस प्रकाश की ओर चल दीं। वहां उन्होंने एक वृद्ध महिला को चरखा चलाते देखा। रात्रि विश्राम की अनुमति माँग कर वे उस बुढ़िया की कुटिया में रुकीं। 
          वृद्ध महिला लक्ष्मीदेवी को बिस्तर प्रदान कर पुन: अपने कार्य में व्यस्त हो गई। चरखा चलाते-चलाते वृद्धा की आंख लग गई। दूसरे दिन उठने पर उसने पाया कि अतिथि महिला जा चुकी है किंतु कुटिया के स्थान पर महल खड़ा था। चारों ओर धन-धान्य, रत्न-जेवरात बिखरे हुए थे।
          कथा की फलश्रुति यह है कि माँ लक्ष्मीदेवी जैसी उस वृद्धा पर प्रसन्न हुईं वैसी सब पर हों। और तभी से कार्तिक अमावस की रात को दीप जलाने की प्रथा चल पड़ी। लोग द्वार खोलकर लक्ष्मीदेवी के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे।
          किंतु मानव समाज यह तथ्य नहीं समझ सका कि मात्र दीप जलाने और द्वार खोलने से महालक्ष्मी घर में प्रवेश नहीं करेंगी। बल्कि सारी रात परिश्रम करने वाली वृद्धा की तरह कर्म करने पर और अंधेरी राहों पर भटक जाने वाले पथिकों के लिए दीपकों का प्रकाश फैलाने पर घरों में लक्ष्मी विश्राम करेंगी। ध्यान दिया जाए कि वे विश्राम करेंगी, निवास नहीं। क्योंकि लक्ष्मी का दूसरा नाम ही चंचला है। अर्थात् अस्थिर रहना उनकी प्रकृति है।
          इस दीपोत्सव पर कामना करें कि राष्ट्रीय एकता का स्वर्णदीप युगों-युगों तक अखंड बना रहे। हम ग्रहण कर सकें नन्हे-से दीप की कोमल-सी बाती का गहरा-सा संदेश कि बस अंधकार को पराजित करना है और नैतिकता के सौम्य उजास से भर उठना है।

         न क्रोधो न च मात्सर्य न लोभो ना शुभामति:
         भवन्ति कृत पुण्यानां भक्तानां सूक्त जापिनाम्॥

        अर्थात् लक्ष्मी सूक्त का पाठ करने वाले की क्रोध, मत्सर, लोभ व अन्य अशुभ कर्मों में वृत्ति नहीं रहती। वे सत्कर्मों की ओर प्रेरित होते हैं।

                         गणेश जी की आरती

        जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा,
        माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥१॥
        एक दंत दयावंत चार भुजाधारी।
        माथे पर तिलक सोहे, मुसे की सवारी॥२॥
        पान चढ़े फूल चढ़े और चढ़े मेवा।
        लड्डुवन का भोग लगे, संत करे सेवा॥३॥
        अंधन को आंख देत, कोढ़ियन को काया।
        बांझन को पुत्र देत, निर्धन को माया॥४॥
        सुर श्याम शरण आये सफल कीजे सेवा।
        जय गणेश देवा, जय गणेश जय गणेश॥५॥
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                         लक्ष्मीजी की आरती

        ॐ जय लक्ष्मी माता मैया जय लक्ष्मी माता।
        तुमको निसदिन सेवत, हर विष्णु विधाता॥ॐ॥
        उमा, रमा, ब्रम्हाणी, तुम जग की माता।
        सूर्य चद्रंमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता॥ॐ॥
        दुर्गारूप निरंजन, सुख संपत्ति दाता।
        जो कोई तुमको ध्याता, ऋद्धि सिद्धी धन पाता॥ॐ॥
        तुम ही पाताल निवासनी, तुम ही शुभदाता।
        कर्मप्रभाव प्रकाशनी, क्षभवनिधि की त्राता॥ॐ॥
        जिस घर तुम रहती हो, ताँहि में हैं सद्गुण आता।
        सब सभंव हो जाता, मन नहीं घबराता॥ॐ॥
        तुम बिन यज्ञ ना होता, वस्त्र न कोई पाता।
        खान पान का वैभव, सब तुमसे आता॥ॐ॥
        शुभ गुण मंदिर, सुंदर क्षीरनिधि जाता।
        रत्न चतुर्दश तुम बिन, कोई नहीं पाता॥ॐ॥
        महालक्ष्मी जी की आरती, जो कोई नर गाता।
        उर आंनद समाता, पाप उतर जाता॥ॐ॥
                       
             


          "जय जय श्रीलक्ष्मी माता"





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20. दिवाली व्रत कथा

एक गांव में एक साहूकार उसकी पत्नी और उसकी बेटी रहती थे। वह रोजाना पीपल के पेड़ पर जल चढ़ाते थे। इस पीपल के पेड़ में मां लक्ष्मी का निवास था। एक दिन मां लक्ष्मी ने साहूकार की बेटी से कहा कि मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं और अपनी सहेली बनाना चाहती हूं। इस पर लड़की ने कहा कि वह अपने माता-पिता से पूछ कर बताएगी। पिता की आज्ञा मांगने पर उन्होंने इस बात पर स्वीकृति दे दी। इसके बाद मां लक्ष्मी और वह लड़की सहेली बन गए। एक दिन मां लक्ष्मी ने उसे अपने यहां भोजन का निमंत्रण दिया। जब लड़की भोजन करने पहुंची तो मां लक्ष्मी मां ने बड़े ही अच्छे तरीके से उसका स्वागत किया और सोने और चांदी के बर्तनों में खाना खिलाया।
इस दौरान उस लड़की ने भी मां लक्ष्मी को अपने घर आने का निमंत्रण दिया, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। इसलिए वह इस बात को लेकर उदास हो गई कि वह मां लक्ष्मी का स्वागत अच्छे से कैसे कर पाएगी। जब साहूकार ने पाया कि उनकी बेटी उदास है, तब उसने साहूकार को सारी बात बता दी। इस पर साहूकार ने उसे सलाह की वह घर की अच्छे से साफ-सफाई करे, मिट्टी का चौक लगाए, साथ ही मां लक्ष्मी का नाम लेकर चार मुख वाला दिया भी जलाएं। वह लड़की यह सब कर ही रही थी कि इतने में वहां एक चीज आई और किसी रानी का नौलखा हार वहां छोड़ गई। इससे वह लड़की बहुत प्रसन्न हुई और फिर उसे लड़की ने उस हर को बेचकर मां लक्ष्मी के स्वागत और भोजन की तैयारी की। कुछ समय बाद वहां लक्ष्मी जी, गणेश जी के साथ पधारीं। उस लड़की का सेवा भाव देखकर मां लक्ष्मी उससे बहुत ही प्रसन्न हुई और उसने साहूकार के घर को धन-संपत्ति से भर दिया।





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21. गोवर्धन पर्वत की कहानी

































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22. सोमवती अमावस्या की कथा


गरीब ब्राह्मण परिवार था। उस परिवार में पति-पत्नी के अलावा एक पुत्री भी थी। वह पुत्री धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। उस पुत्री में समय और बढ़ती उम्र के सभी स्त्रियोचित गुणों का विकास हो रहा था। वह लड़की सुंदर, संस्कारवान एवं गुणवान थी। किंतु गरीब होने के कारण उसका विवाह नहीं हो पा रहा था।

एक दिन उस ब्राह्मण के घर एक साधु महाराज पधारें। वो उस कन्या के सेवाभाव से काफी प्रसन्न हुए। कन्या को लंबी आयु का आशीर्वाद देते हुए साधु ने कहा इस कन्या के हथेली में विवाह योग्य रेखा नहीं है। तब ब्राह्मण दम्पति ने साधु से उपाय पूछा, कि कन्या ऐसा क्या करें कि उसके हाथ में विवाह योग बन साधु ने कुछ देर विचार करने के बाद अपनी अंतर्दृष्टि से ध्यान करके बताया कि कुछ दूरी पर एक गांव में सोना नाम की धोबिन जाति की एक महिला  बेटे और बहू के साथ रहती है, जो बहुत ही आचार-विचार और संस्कार संपन्न तथा पति परायण है।

यह कन्या उसकी सेवा करे और वह महिला इसकी शादी में अपने मांग का सिंदूर लगा दें, उसके बाद इस कन्या का विवाह हो तो इस कन्या का वैधव्य मिट सकता है। साधु ने यह भी बताया कि वह महिला कहीं आती-जाती नहीं है। यह बात सुनकर ब्राह्मणी ने अपनी बेटी से धोबिन की सेवा करने की बात ही। अगल दिन कन्या प्रातः काल ही उठ कर सोना धोबिन के घर जाकर, साफ-सफाई और अन्य सारे करके अपने घर वापस आ जाती।

एक दिन सोना धोबिन अपनी बहू से पूछती है कि तुम तो सुबह ही उठकर सारे काम कर लेती हो और पता भी नहीं चलता। बहू ने कहा-मां जी, मैने तो सोचा कि आप ही सुबह उठकर सारे काम खुद ही खत्म कर लेती हैं। मैं तो देर से उठती हूं। इस पर दोनों सास-बहू निगरानी करने लगी कि कौन है जो सुबह ही घर का सारा काम करके चला जाता है।


कई दिनों के बाद धोबिन ने देखा कि एक कन्या अंधेरे घर में आती है और सारे काम करने के बाद चली जाती है। जब वह जाने लगी तो सोना धोबिन इसके पैरों पर गिर पड़ी, पूछने लगी कि आप कौन है और इस तरह छुपकर मेरे घर की चाकरी क्यों करती हैं?


तब कन्या ने साधु द्वारा कही गई सारी बात बताई। सोना धोबिन पति परायण थी, उसमें तेज था। वह तैयार हो गई। सोना धोबिन के पति थोड़ा अस्वस्थ थे।

उसने अपनी बहू से अपने लौट आने तक घर पर ही रहने को कहा। सोना धोबिन ने जैसे ही अपने मांग का सिन्दूर उस कन्या की मांग में लगाया, उसका पति मर गया। उसे इस बात का पता चल गया। वह घर से निराजल ही चली थी, यह सोचकर की रास्ते में कहीं पीपल का पेड़ मिलेगा तो उसे भंवरी देकर और उसकी परिक्रमा करके ही जल ग्रहण करेगी।


उस दिन सोमवती अमावस्या थी। ब्राह्मण के घर मिले पूए पकवान की जगह उसने ईंट के टुकड़ों से 108 बार भंवरी देकर 108 बार पीपल के पेड़ की परिक्रमा की और उसके बाद जल ग्रहण किया। ऐसा करते ही उसके पति के मुर्दा शरीर में वापस जान आ गई। धोबिन का पति वापस जीवित हो उठा।





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23. *भाई दूज : 15 नवंबर 2023, बुधवार*

इस दिन बहने अपने भाइयों को अपने घर आमंत्रित करती हैं, और उन्हें तिलक करती हैं। ऐसा माना जाता है कि जो भाई इस दिन यमुना में स्नान करके पूरी श्रद्धा से अपनी बहन का आतिथ्य स्वीकार करता है, तो उसे और उसकी बहन को यम का भय नही रहता।

                           पौराणिक कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान सूर्य नारायण जी की पत्नी संज्ञा अपने पति सूर्य का तेज सहन न कर पाने के कारण अपनी छायामूर्ति का निर्माण करती है, और छाया को अपनी संतानों यमराज और यमी को सौप कर चली जाती हैं। छाया को यमराज और यमी से कोई स्नेह नही था, किन्तु दोनों भाई बहनों में विशेष स्नेह था। बड़े होने पर भी यमी अपने भाई के घर जाती और उनका सुख दुःख पूछती, साथ ही वो अपने भाई यमराज से बार-बार अपने घर आने का निवदेन करती थी, किन्तु अपने कार्यो में व्यस्त होने की वजह से यमराज उनके निवेदन को टालते रहे। इस दिन भी यमुना ने यमराज को अपने घर भोजन का निमंत्रण दिया और उनसे वचन ले लिया कि वो अपने मित्रो के साथ इस बार जरुर आयेंगे। यमराज ने भी सोच विचार किया और देखा कि वो सबके प्राणों को हरते है, तो कोई भी उन्हें अपने पास बुलाना नही चाहता, किन्तु उनकी बहन बार-बार उनको सदभावना से बुला रही है, तो उनका ये धर्म बनता है, कि वो अपनी बहन के पास जायें। तब वो अपनी बहन के घर गये, यमुना का अपने भाई को देखकर ख़ुशी का ठिकाना नही रहा। उसने स्नान करके स्वयं अपने हाथों से अपने भाई की पसंद के पकवान बनायें और स्वयं ही उन्हें परोसा। अपनी बहन के आतिथ्य को देख कर यमराज भी बहुत प्रसंन्न हुए, और उन्होंने यमुना से कोई वरदान मांगने के लिए कहा। इस पर यमुना ने बड़े ही प्यार से अपने भाई को कहा कि भाई ! आप हर वर्ष इसी दिन मेरे घर आया करो, और मेरी तरह जो बहन इस दिन अपने भाई का सादर सत्कार करे, और उसका टीका करे, उसे तुम्हारा भय न रहे। इस पर यमराज ने तथास्तु कहकर यमुना को अमूल्य आभूषण दिए और वापस यमलोक लौट गये। इसी दिन से भाई दूज के व्रत की परंपरा बन गई। इसीलिए भाई दूज के दिन यमराज और यमुना का पूजन किया जाता है।

इस दिन के पीछे एक कथा ये भी है, कि इससे पहले वाले दिन भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर का वध किया था, और इस दिन वो अपनी बहन सुभद्रा के पास गये थे। तब सुभद्रा ने अपने भाई श्री कृष्ण का तिलक करके उनका स्वागत किया था, और उनके लिए उनकी पसंद के पकवान भी बनाये थे।

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                          24. खिचड़ी की कथा

          किसी गाँव में एक बुढ़िया रहती थी और वह कार्तिक का व्रत रखा करती थी। उसके व्रत खोलने के समय कृष्ण भगवान आते और एक कटोरा खिचड़ी का रखकर चले जाते। बुढ़िया के पड़ोस में एक औरत रहती थी। वह हर रोज यह देखकर ईर्ष्या करती कि इसका कोई नहीं है फिर भी इसे खाने के लिए खिचड़ी मिल ही जाती है।
          एक दिन कार्तिक महीने का स्नान करने बुढ़िया गंगा गई। पीछे से कृष्ण भगवान उसका खिचड़ी का कटोरा रख गए। पड़ोसन ने जब खिचड़ी का कटोरा रखा देखा और देखा कि बुढ़िया नही है तब वह कटोरा उठाकर घर के पिछवाड़े फेंक आई।
          कार्तिक स्नान के बाद बुढ़िया घर आई तो उसे खिचड़ी का कटोरा नहीं मिला और वह भूखी ही रह गई। बार-बार एक ही बात कहती कि कहाँ गई मेरी खिचड़ी और कहाँ गया मेरा खिचड़ी का कटोरा। दूसरी ओर पड़ोसन ने जहाँ खिचड़ी गिराई थी वहाँ एक पौधा उगा जिसमें दो फूल खिले। 
          एक बार राजा उस ओर से निकला तो उसकी नजर उन दोनो फूलों पर पड़ी और वह उन्हें तोड़कर घर ले आया। घर आने पर उसने वह फूल रानी को दिए जिन्हें सूँघने पर रानी गर्भवती हो गई। कुछ समय बाद रानी ने दो पुत्रों को जन्म दिया। 
          वह दोनो जब बड़े हो गए तब वह किसी से भी बोलते नही थे लेकिन जब वह दोनो शिकार पर जाते तब रास्ते में उन्हें वही बुढ़िया मिलती जो अभी भी यही कहती कि कहाँ गई मेरी खिचड़ी और कहाँ गया मेरा कटोरा ? बुढ़िया की बात सुनकर वह दोनों कहते कि हम हैं तेरी खिचड़ी और हम हैं तेरा बेला।
          हर बार जब भी वह शिकार पर जाते तो बुढ़िया यही बात कहती और वह दोनो वही उत्तर देते। 
          एक बार राजा के कानों में यह बात पड़ गई। उसे आश्चर्य हुआ कि दोनो लड़के किसी से नहीं बोलते तब यह बुढ़िया से कैसे बात करते हैं। राजा ने बुढ़िया को राजमहल बुलवाया और कहा कि हम से तो किसी से ये दोनों बोलते नहीं है, तुमसे यह कैसे बोलते हैं ?  
          बुढ़िया ने कहा कि महाराज मुझे नहीं पता कि ये कैसे मुझसे बोल लेते हैं। मैं तो कार्तिक का व्रत करती थी और कृष्ण भगवान मुझे खिचड़ी का बेला भरकर दे जाते थे। एक दिन मैं स्नान कर के वापिस आई तो मुझे वह खिचड़ी नहीं मिली। जब मैं कहने लगी कि कहाँ गई मेरी खिचड़ी और कहाँ गया मेरा बेला ? तब इन दोनों लड़कों ने कहा कि तुम्हारी पड़ोसन ने तुम्हारी खिचड़ी फेंक दी थी तो उसके दो फूल बन गए थे। वह फूल राजा तोड़कर ले गया और रानी ने सूँघा तो हम दो लड़को का जन्म हुआ। हमें भगवान ने ही तुम्हारे लिए भेजा है।
          सारी बात सुनकर राजा ने बुढ़िया को महल में ही रहने को कहा। हे कार्तिक महाराज ! जैसे आपने बुढ़िया की बात सुनी वैसे ही आपका व्रत करने वालों की भी सुनना।
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                          "जय जय श्री राधे"





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 25. कहानी : धन की दात्री लक्ष्मी 
 
बनारस में एक बड़े धनवान सेठ रहते थे। वह  विष्णु भगवान् के परम भक्त थे और हमेशा सच बोला करते थे

एक बार जब भगवान् सेठ जी की प्रशंशा कर रहे थे तभी माँ लक्ष्मी ने कहा , ” स्वामी , आप इस सेठ की इतनी प्रशंशा किया करते हैं , क्यों न आज उसकी परीक्षा ली जाए और जाना जाए कि क्या वह सचमुच इसके लायक है या नहीं ? ”

भगवान् बोले , ” ठीक है ! अभी सेठ गहरी निद्रा में है आप उसके स्वप्न में जाएं और उसकी परीक्षा ले लें। ”

अगले ही क्षण सेठ जी को एक स्वप्न आया।

स्वप्न मेँ धन की देवी लक्ष्मी उनके सामनेँ आई और बोली ,” हे मनुष्य !  मैँ धन की दात्री लक्ष्मी हूँ।”

सेठ जी को अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ और वो बोले , ” हे माता आपने साक्षात अपने दर्शन देकर मेरा जीवन धन्य कर दिया है , बताइये मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ?”

” कुछ नहीं ! मैं तो बस इतना बताने आयी हूँ कि मेरा स्वाभाव चंचल है, और वर्षों से तुम्हारे भवन में निवास करते-करते मैं ऊब चुकी हूँ और यहाँ से जा रही हूँ। ”

सेठ जी बोले , ” मेरा आपसे निवेदन है कि आप यहीं रहे , किन्तु अगर आपको यहाँ अच्छा नहीं लग रहा है तो मैं भला आपको कैसे रोक सकता हूँ, आप अपनी इच्छा अनुसार जहाँ चाहें जा सकती हैं। ”

और माँ लक्ष्मी उसके घर से चली गई।

थोड़ी देर बाद वे रूप बदल कर पुनः सेठ के स्वप्न मेँ यश के रूप में आयीं और बोलीं ,” सेठ मुझे पहचान रहे हो?”

सेठ – “नहीं महोदय आपको नहीँ पहचाना।

यश – ” मैं यश हूँ , मैं ही तेरी कीर्ति और प्रसिध्दि का कारण हूँ । लेकिन अब मैँ तुम्हारे साथ नहीँ रहना चाहता क्योँकि माँ लक्ष्मी यहाँ से चली गयी हैं अतः मेरा भी यहाँ कोई काम नहीं। ”

सेठ -” ठीक है , यदि आप भी जाना चाहते हैं तो वही सही। ”

सेठ जी अभी भी स्वप्न में ही थे और उन्होंने देखा कि वह दरिद्र हो गए है और धीरे- धीरे उनके सारे रिश्तेदार व मित्र भी उनसे दूर हो गए हैं। यहाँ तक की जो लोग उनका गुणगान किया करते थे वो भी अब बुराई करने लगे हैं।

कुछ और समय बीतने पर माँ लक्ष्मी धर्म का रूप धारण कर पुनः सेठ के स्वप्न में आयीं और बोलीं , ” मैँ धर्म हूँ। माँ लक्ष्मी और यश के जाने के बाद मैं भी इस दरिद्रता में तुम्हारा साथ नहीं दे सकता , मैं जा रहा हूँ। ”

” जैसी आपकी इच्छा। ” , सेठ ने उत्तर दिया।

और धर्म भी वहाँ से चला गया।

कुछ और समय बीत जाने पर माँ लक्ष्मी सत्य के रूप में स्वप्न में प्रकट हुईं और बोलीं ,”मैँ सत्य हूँ।

लक्ष्मी , यश, और धर्म के जाने के बाद अब मैं भी यहाँ से जाना चाहता हूँ. “

ऐसा सुन सेठ जी ने तुरंत सत्य के पाँव पकड़ लिए और बोले ,” हे महाराज , मैँ आपको नहीँ जानेँ दुँगा। भले ही सब मेरा साथ छोड़ दें , मुझे त्याग दें पर कृपया आप ऐसा मत करिये , सत्य के बिना मैँ एक क्षण नहीँ रह सकता , यदि आप चले जायेंगे तो मैं तत्काल ही अपने प्राण त्याग दूंगा। “

” लेकिन तुमने बाकी तीनो को बड़ी आसानी से जाने दिया , उन्हें क्यों नहीं रोका। ” , सत्य ने प्रश्न किया।

सेठ जी बोले , ” मेरे लिए वे तीनो भी बहुत महत्त्व रखते हैं लेकिन उन तीनो के बिना भी मैं भगवान् के नाम का जाप करते-करते उद्देश्यपूर्ण जीवन जी सकता हूँ , परन्तु यदि आप चले गए तो मेरे जीवन में झूठ प्रवेश कर जाएगा और मेरी वाणी अशुद्ध हो जायेगी , भला ऐसी वाणी से मैं अपने भगवान् की वंदना कैसे कर सकूंगा, मैं तो किसी भी कीमत पर आपके बिना नहीं रह सकता।

सेठ जी का उत्तर सुन सत्य प्रसन्न हो गया ,और उसने कहा , “तुम्हारी अटूट भक्ति नेँ मुझे यहाँ रूकनेँ पर विवश कर दिया और अब मैँ यहाँ से कभी नहीं जाऊँगा। ” और ऐसा कहते हुए सत्य अंतर्ध्यान हो गया।

सेठ जी अभी भी निद्रा में थे।

थोड़ी देर बाद स्वप्न में धर्म वापस आया और बोला , “ मैं अब तुम्हारे पास ही रहूँगा क्योंकि यहाँ सत्य का निवास है .”
सेठ जी ने प्रसन्नतापूर्वक धर्म का स्वागत किया।

उसके तुरंत बाद यश भी लौट आया और बोला , “ जहाँ सत्य और धर्म हैं वहाँ यश स्वतः ही आ जाता है , इसलिए अब मैं भी तुम्हारे साथ ही रहूँगा।

सेठ जी ने यश की भी आव -भगत की।

और अंत में माँ लक्ष्मी आयीं।

उन्हें देखते ही सेठ जी नतमस्तक होकर बोले , “ हे देवी ! क्या आप भी पुनः मुझ पर कृपा करेंगी ?”

“अवश्य , जहां , सत्य , धर्म और यश हों वहाँ मेरा वास निश्चित है। ”, माँ लक्ष्मी ने उत्तर दिया।

यह सुनते ही सेठ जी की नींद खुल गयी। उन्हें यह सब स्वप्न लगा पर वास्तविकता में वह एक कड़ी परीक्षा से उत्तीर्ण हो कर निकले थे।

मित्रों, हमें भी हमेशा याद रखना चाहिए कि जहाँ सत्य का निवास होता है वहाँ यश, धर्म और लक्ष्मी का निवास स्वतः ही हो जाता है । सत्य है तो सिध्दि, प्रसिध्दि और समृद्धि है।





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26. *करमा बाई की कथा*

अध्यात्म जगत में करमा बाई की कथा भक्तों की प्रेरणा मानी जाती है। जिनके भक्ति भाव से प्रसन्न होकर खुद भगवान ने उनके हाथ की खिचड़ी खाई थी। आइए आज हम आपको जीवन चरित्र और चमत्कारों के बारे में बताते हैं।


करमा बाई जब 13 साल की थी तब कार्तिक पूर्णिमा पर स्नान के लिए पत्नी सहित पुष्कर जाते समय पिता जीवणराम ने उन्हें घर में भगवान के भोग की जिम्मेदारी सौंपी। कहा, भगवान को भोग लगाने के बाद ही वह खुद भोजन करें। उनके जाने के अगले दिन ही करमा बाई ने सुबह स्नान कर बाजरे का खीचड़ा बनाया। उसमें खूब घी डालकर उसने भगवान की मूर्ति के सामने रख दिया। वह बोली कि भगवान आपको जब भी भूख लगे तब भोग लगा लेना, तब तक मैं घर के अन्य काम कर लेती हूं। इसके बाद वह काम में जुट गई और बीच-बीच में थाली देखने आने लगी। पर जब भगवान को खीचड़ा नहीं खाते पाया तो वह वह चिंता में पड़ गई। फिर खीचड़ी में घी व मीठा कम होना सोच उसने उसमें घी व गुड़ और मिला दिया। इस बार भगवान के सामने थाली रखकर वह भी वहीं बैठ गई। पर इस बार भी भगवान को भोजन ना करते देख उसकी चिंता और बढ़ गई। वह कहने लगी कि हे प्रभु आप भोग लगा लीजिए। मां-बापू पुष्कर नहाने गए हैं और आपको भोग लगाने की जिम्मेदारी मेरे पास ही है। आपके भोग लगाने के बाद ही मैं खाना खाऊंगी। लेकिन जब भगवान ने फिर भी भोग नहीं लगाया तो वह शिकायत करने लगी कि मां-बापू जिमाते हैं तब तो आप भोग लगा लेते हो और आज मैं खिला रही हूं तो नहीं खा रहे हो। खुद भी भूखे बैठे हो और मुझे भी भूखी रखोगे क्या? मनुहार व शिकायत करते पूरा दिन बीत गया। आखिरकार शाम तक जब करमा बाई ने भी भोजन नहीं किया तो कन्हैया को प्रगट होना ही पड़ा। भगवान बोले, करमा तुम्हारे पर्दा नहीं करने की वजह से वे भोजन नहीं कर पाए। यह सुनकर करमा ने अपनी ओढ़नी की ओट कर श्रीकृष्ण को खिचड़ी का भोग लगाया। जिसके बाद भगवान ने पूरी खिचड़ी खाली। इसके बाद तो वह रोज भगवान को भोग लगाती और भगवान भी उसके हाथ का भोजन ग्रहण करते। जब पिता-माता ने वापस आकर गुड़, घी व अनाज में कमी पाई तो कारण पूछने पर सरल करमा बाई ने उन्हें सारी बात कह सुनाई। पर उन्हें उसकी बात का विश्वास नहीं हुआ। अगले दिन परीक्षा के लिए फिर करमा बाई से भोग लगवाया गया तो भक्त का मान रखने के लिए फिर भगवान खिचड़ी खाने आ गए। इसके बाद तो पूरे गांव में ये बात फैल गई और जल्द ही करमा बाई जगत में विख्यात हो गईं।

इसके बाद तो करमा बाई का पूरा जीवन कृष्ण भक्ति में बीता। जीवन के अंतिम दिनों में करमा बाई भगवान जगन्नाथ की नगरी पुरी चली गई। वहां भी वह रोज भगवान को खिचड़े का ही भोग लगाती थी। उनकी इसी परंपरा की वजह से आज भी भगवान जगन्नाथ को खिचड़े का ही भोग लगाया जाता है।






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27. 

श्रीकृष्ण की बांसुरी और राधा की कहानी 


राधा-श्रीकृष्ण के प्रेम को परिभाषित करना संभव नहीं है। आज भी प्रेम की बात होने पर राधा-कृष्ण के प्रेम की मिसाल दी जाती है। भले ही दोनों की प्रेम कहानी अधूरी रह गई थी। लेकिन इसके बावजूद राधा-कृष्ण की प्रेम कहानी प्रचलित है। एक ना होने पर भी दोनों ने जीवनभर अपने प्रेम को मन में संजोए रखा। दोनों का मिलन भले ही ना हुआ हो लेकिन इसे बावजूद राधा के बिना कृष्ण और कृष्ण के बिना राधा अधूरी है। यही कारण है कि दोनों का नाम 'राधाकृष्ण' एक साथ लिया जाता है। यही तो राधा-कृष्ण के रिश्ते की सबसे बड़ी खूबसूरती है।


श्रीकृष्ण को दो चीजें सबसे प्रिय थीं राधा और बांसुरी, जिसे वह सपने में भी खुद से अलग करने के बारे में नहीं सोच सकते थे। लेकिन जीवन में एक पड़ाव ऐसा आया जब कृष्ण से ये दोनों ही अलग हो गए। कृष्ण बचपन से ही बांसुरी बजाते थे। कृष्ण की बांसुरी की मधुर धुन सुनकर ही राधा उनपर मोहित हो गई थीं। राधा और कृष्ण में अथाह प्रेम होने के बावजूद उनका मिलन न हो सका। लेकिन कृष्ण की बांसुरी के कारण राधा-कृष्ण हमेशा एक सूत्र में बंधे रहे। यही कारण है कि श्रीकृष्ण की हर प्रतिमा में राधा और बांसुरी जरूर होते हैं। लेकिन राधा के देह त्याग करने के बाद कृष्ण ने कभी दोबारा अपनी प्रिय बांसुरी नहीं बजाई।

माना जाता है कि श्रीकृष्ण मथुरा जाने से पहले वृंदावन में राधा से मुलाकात करने गए थे। उन्होंने राधा से वादा किया कि वे जल्द वापस आएंगे। लेकिन कृष्ण ने रुक्मिणी से शादी कर ली और कभी राधा के पास नहीं लौटे। इधर राधा की भी शादी हो गई। पति के साथ राधा ने दांपत्य जीवन से जुड़े सारे कर्तव्य पूरे किए लेकिन उनके मन में कृष्ण सदा बसे रहे।


कहा जाता है कि दांपत्य जीवन के कर्तव्यों से मुक्त होने के बाद राधा जीवन के आखिरी समय कृष्ण से मिलने द्वारका पहुंचीं। तब उन्हें पता चला कि कृष्ण का विवाह रुक्मिणी और सत्यभामा के साथ हुआ है। राधा और कृष्ण सालों बाद एक दूसरे से मिले। लेकिन संकेतों की भाषा में ही दोनों ने एक दूसरे से बातें कीं। राधा सेविका के रूप में पूरे दिन कृष्ण के महल में ही रहती थीं और महल से जुड़े कार्य देखती थीं। लेकिन कुछ समय बात राधा को लगा कि वह कृष्ण के साथ आत्मीय संबंध स्थापित नहीं कर पा रही हैं इसलिए वह उन्हें बिना बताए महल छोड़कर चली गईं।  



प्रचलित कहानियों के अनुसार कृष्ण भले ही राधा से दूर थे। लेकिन जब जीवन के अंतिम समय में राधा को कृष्ण की जरूरत पड़ी तो वह उनके समक्ष आ गए। तब कृष्ण ने राधा से कुछ मांगने का अनुरोध किया। राधा ने कहा कि वह अंतिम समय में उन्हें बांसुरी बजाते हुए देखना चाहती हैं। तब कृष्ण ने मधुर धुन में बांसुरी बजाई। कृष्ण तब तक बांसुरी बजाते रहे जब तक राधा आध्यात्मिक रूप से कृष्ण में विलीन नहीं हुईं। बांसुरी की धुन सुनते-सुनते राधा कृष्ण में विलीन हो गईं और उन्होंने अपनी देह त्याग दी। राधा के जाने के बाद कृष्ण ने एक झाड़ी में अपनी प्रिय बांसुरी फेंक दी और फिर कभी बांसुरी नहीं बजाई।

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28. चकवा चकवी की कहानी

एक समय की बात है किसी जंगल मे चकवा पक्षी का एक जोडा रहा करता था। चकवा और चकवी दोनो मे बडा प्रेम था। दोनो अपना हसी खुशी जीवन व्यतीत कर रहे थे। इन दोनो मे इतना प्रेम था कि जंगल मे मौजूद पशु पक्षी इनके प्रेम का मिशाल दिया करते थे। यहाँ तक की चकवा चकवी एक दूसरे पर प्राण न्योछावर करने के लिये तैयार रहते थे। जब चकवी से कोई गलती हो जाती तो चकवा जब उसे सुनाता तो वह चकवी चुपचाप सुन लेती है।

और पलटकर कभी भी जवाब नही देती है ठीक इसी तरह जब चकवे से कोई गलती हो जाती है तो चकवी चकवे को सुना देती तो चकवा भी चुपचाप सुन लेता और पलटकर कभी भी जवाब नही देता था। जब दोनो मे किसी बात को लेकर खटपट होती तो थोडी ही देर मे दोनो मे सुलह भी हो जाती। चकवा का पडोसी एक कौआ था। कौआ का अपनी पत्नी से हमेशा हर बात पर झगडा हुआ करता था। उन दोनो मे हमेशा क्लेश रहता था। इतना झगडा करते कि मारपीट की नौबत आ जाती। कौआ बडा ही दरिद्र था उसके घर मे हमेशा अन्न की कमी रहती थी।

वही चकवा धन धान्य से संपन्न रहता था क्योंकि इसके घर मे खुशहाली और शांति थी। कौआ जब चकवा चकवी को देखता कि ये दोनो कितनी खुशी और आनन्द से रहते है तो उसे जलन होती थी। कौआ अपने मन मे सोचता है कि मै किस तरह इन दोनो मे फूट डालू और इन दोनो को अलग कर दू जिससे इसके घर की शांति भंग हो सके। कौआ चकवा का मित्र भी था मित्र ही मित्र के बारे मे गलत सोच रखता था उसके मन मे चकवा और चकवी के प्रति हमेशा जलन रहती थी।

कौवे ने अपने मन मे सोचा कि अब मै इसे शांति से नही रहने दूंगा जब मेरे घर मे झगते और लडाइयां होती है मै परेशान रहता हूँ तो फिर ये कैसे सुख शांति से रह सकता है। अब इसके घर मे भी अशांति फैलानी है। इसका जीवन भी हमें नरक करना है। जब कभी भी चकवा घर पर नही रहता तो कौआ चकवी के पास जाता और चकवे के बारे बुराई करता और कहता कि चकवी बहन चकवा भाई आपसे बिल्कुल भी प्रेम नही करते वह तो किसी दूसरे से प्रेम करते है मैने उन्हे कुछ समय पहले किसी अन्य से बात करते हुये देखा कौवे की इस बात को सुनकर चकवी को बिल्कुल भी भरोसा नही होता था।

चकवी कौवे की बात को नही सुनती है और उसके बात को हवा मे उडा देती है। जब कभी चकवा अकेला रहता तो कौआ चकवा के पास जाकर चकवी की बुराई करता और कहता कि चकवा भाई चकवी आपसे बिल्कुल भी प्रेम नही करती है क्योंकि वह किसी अन्य से प्रेम करती है। मैने आज ही चकवी बहन को किसी और से बात करते हुये देखा है। चकवा इन बातों को सुनकर हसते-हसते टाल देता है और उस बात पर बिल्कुल भी भरोसा नही करता। अब इसी प्रकार कौआ चकवा और चकवी दोनो मे बारी-बारी से फूट डालने की कोशिश करता लेकिन चकवा चकवी मे इतना दृण प्रेम था

कि एक दूसरे पर विश्वास किया करते थे और दूसरो के बहकावे मे नही आते थे। अब इस प्रकार कौआ जब हार जाता है तो कौआ अपनी पत्नी से जाकर कहता कि यदि तुम चाहती हो कि मै तुमसे कभी भी झगडा न करू तो तुम मेरा एक काम करो चकवा और चकवी दोनो मे मनमुटाव करवा दो दोनो के बीच झगडा पैदा कर दो जिससे उनकी शांति भंग हो सके। कौआ ने अपनी से कहा कि जब भी तुम्हे मौका मिले तुम चकवी बहन का कान भरती रहना और मूझे भी जब भी समय मिलेगा मै भी चकवा भाई का कान भरता रहूँगा जिससे दोनो मे लडाई झगडा हो सके।

अब कौवे की पत्नी चकवी से जाकर कहती कि तुम्हारा पति तुमसे प्रेम नही करता वह तो किसी दूसरे से प्रेम करता है। ठीक इसी तरह कौआ भी चकवा के पास जाकर कहता है चकवा भाई चकवी बहन आपसे प्रेम नही करती वह किसी दूसरे से प्रेम करती है। कौआ और उसकी पत्नी अब प्रतिदिन चकवा और चकवी के कान भरते। जिससे धीरे-धीरे चकवी को विश्वास होने लगा कि चकवी जरूर अब हमसे प्रेम नही करती है ठीक इसी तरह चकवी को भी धीरे-धीरे यह लगने लगा कि मेरा पति मुझसे प्रेम नही करता है। अब चकवा और चकवी मे मनमुटाव होने लगा दोनो के बीच झगडे होने लगे।

जिसकी वजह से लक्ष्मी जी ने चकवा और चकवी के घर को छोड दिया क्योंकि जिस घर मे लडाई झगडे होते है उस घर मे माँ लक्ष्मी का वाश नही होता है। अब चकवा और चकवी के घर मे दरिद्रता ने अपना वाश कर लिया। जब चकवा और चकवी धन की कमी के कारण भूखो मरने लगते है तो यह देखकर कौआ को बडा सुकून मिलता है उसे बडी प्रसन्नता मिलती है। एक दिन चकवा को यह एहसास होता है कि हमारे लडाई झगडे की वजह से यह सब हो रहा है तो वह अपनी पत्नी से कहता है कि प्रिये देखा तुमने जब हम दोनो एक दूसरे से लडाई झगडे नही करते थे

तो हमारा जीवन कितना सुखमय था और हमारे घर मे अन्न धन की कोई कमी नही थी लेकिन जब से हम दोनो आपस मे लडने झगडने करने लगे है तब से हमारे घर मे अन्न धन की कमी हो गई है। चकवे की बात सुनकर चकवी को अपनी गलती का ऐहसास होता है और वह चकवे से कहती है कि स्वामी मुझसे गलती हो गई मुझे माफ कर दीजिये। हमें इस प्रकार दूसरो के बातो मे आकर आपस मे लडना झगडना नही चाहिये। तब चकवी ने चकवे से कहा कि इस समस्या के समाधान के लिये हमें क्या करना चाहिये तब चकवे ने कहा कि यही पास ही गुफा मे एक सिद्ध पूरूष महत्मा रहते है हम उनके पास चलते है।

वही हमारी इस समस्या का समाधान करेंगे और हमें यह बतायेंगे कि हमें अब क्या करना चाहिये। यह सोचकर चकवा और चकवी उस महात्मा के पास चले जाते है और महात्मा को प्रणाम करके बैठ जाते है। जब महात्मा ने चकवा और चकवी के आने का कारण पूछा जब चकवा की आंखो मे आसू आ जाते है दोनो पति पत्नी रोने लगते है। चकवा विस्तारपूर्वक पूरी कहानी उस महात्मा को सुना देता है।

तब महात्मा कहते है कि हे चकवा मेरी बातों को ध्यान से सुनो आज मै तुम्हे ऐसी पाँच बातें बताऊंगा जिसे यदि तुमने अपने जीवन मे उतार लिया और उस पर अमल कर लिया तो कभी भी तुम्हारे घर मे लडाई झगडे नही होगें इसके साथ ही जो मनुष्य मेरी इन पाँच बातों पर अमल करेगा उसके घर मे कभी भी लडाई झगडा नही होगा तथा उसके घर मे कभी भी धन की कमी नही होगी और उसके घर से लक्ष्मी कभी भी रूठकर नही जायेंगी।




महात्मा के द्वारा कही गई पाँच बातें-
1. जो तुम्हारे जानने वाले होते है सगे संबंधी होते है जो तुम्हे अच्छे से समझ रहे होते है तथा जो तुम्हे अच्छे से जान रहे होते है वही तुम्हारा जड काटते है। ये बात बिल्कुल सत्य है जो व्यक्ति तुम्हे अच्छी तरह से जानता और समझता है वही व्यक्ति तुम्हारे घर मे झगडा, लडाई करवाते है। जिससे घर मे क्लेश उत्पन्न होता है। यही लोग आपके दुखो और समस्याओं का कारण बनते है। इसीलिये अपने करीबियों को राज की बातें या गुप्त बातें कभी भी मत बताना।

2. अपने मित्र के सामने धनी होने का कभी भी दिखावा मत करना। अपने मित्र के सामने अपनी बडाई और दिखावा करोगे कि मै बहुत धनवान हूँ तो वो मित्र आपके बारे मे गलत धारणा बना लेगा और आपसे घृणा करने लगेगा तथा आपसे दूर रहने लगेगा। इसीलिये अपने मित्र के सामने धनी होने का दिखावा मत करो।

3. अन्य दूसरे के कहने पर कभी भी विश्वास नही करना चाहिये। जब तक कि स्वयं आप अपनी आंखो से देख न लो तब तक आपको उन बातो पर विश्वास नही करना चाहिये। यदि किसी ने आपके अपनो के प्रति मनमुटाव पैदा कर दिया है तो ऐसे मे आप बिना कुछ जाने समझे उस पर विश्वास बिल्कुल भी न करें। कही कहाई और सुनी सुनाई बातों मे नही आना चाहिये।

4. हमें अपनो पर कभी भी शक नही करना चाहिये। यदि आप अपनो पर शक करेंगे तो आप विनाश के कगार पर पहुंच जायेंगे। पती-पत्नी, माता-पिता, पिता-पुत्र इन्हे आपस मे किसी के ऊपर शक नही करना चाहिये। आप गैरो पर शक कर सकते है लेकिन अपनो पर कभी भी शक नही करना चाहिये।

5. कभी भी बिना बुलाये समारोह और उत्सव मे नही जाना चाहिये क्योंकि यदि आप बिना बुलाये किसी समारोह या उत्सव मे जाते है तो इससे आपके सम्मान को ठेस पहुंच सकती है। जिससे आपके मान सम्मान मे कमी आ जायेगी।
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29.                           "गोपाष्टमी"

          गोपाष्टमी, ब्रज में भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख पर्व है। गायों की रक्षा करने के कारण भगवान श्री कृष्ण जी का अतिप्रिय नाम ‘गोविन्द’ पड़ा। कार्तिक शुक्ल पक्ष, प्रतिपदा से सप्तमी तक गो-गोप-गोपियों की रक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत को धारण किया था। इसी समय से अष्टमी को गोपाष्टमी का पर्व मनाया जाने लगा, जो कि अब तक चला आ रहा है।
          हिन्दू संस्कृति में गाय का विशेष स्थान हैं। माँ का दर्जा दिया जाता हैं क्योंकि जैसे एक माँ का ह्रदय कोमल होता हैं, वैसा ही गाय माता का होता हैं। जैसे एक माँ अपने बच्चो को हर स्थिति में सुख देती हैं, वैसे ही गाय भी मनुष्य जाति को लाभ प्रदान करती हैं।
          गोपाष्टमी के शुभ अवसर पर गौशाला में गो-संवर्धन हेतु गौ पूजन का आयोजन किया जाता है। गौमाता पूजन कार्यक्रम में सभी लोग परिवार सहित उपस्थित होकर पूजा अर्चना करते हैं। गोपाष्टमी की पूजा विधि पूर्वक विद्वान पंडितो द्वारा संपन्न की जाती है। बाद में सभी प्रसाद वितरण किया जाता है। सभी लोग गौ माता का पूजन कर उसके वैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक महत्व को समझ गौ-रक्षा व गौ-संवर्धन का संकल्प करते हैं।
          शास्त्रों में गोपाष्टमी पर्व पर गायों की विशेष पूजा करने का विधान निर्मित किया गया है। इसलिए कार्तिक माह की शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि को प्रात:काल गौओं को स्नान कराकर, उन्हें सुसज्जित करके गन्ध पुष्पादि से उनका पूजन करना चाहिए। इसके पश्चात यदि संभव हो तो गायों के साथ कुछ दूर तक चलना चाहिए कहते हैं ऐसा करने से प्रगति के मार्ग प्रशस्त होते हैं। गायों को भोजन कराना चाहिए तथा उनकी चरण को मस्तक पर लगाना चाहिए। ऐसा करने से सौभाग्य की वृद्धि होती है।



गोपाष्टमी की कथा
मान्यता के अनुसार कान्हा जिस दिन गौ चराने के लिए पहली बार घर से निकले थे, वह कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि थी, इसलिए इस तिथि को गोपाष्टमी के रूप में मनाया जाता है। गोपाष्टमी की पौराणिक कथा के अनुसार जब श्री कृष्ण छह वर्ष के हुए तो यशोदा जी से कहने लगे, 'मईया अब मैं बड़ा हो गया हूं। यशोदा जी प्रेम पूर्वक बोलीं- अच्छा लल्ला अब तुम बड़े हो गए हो तो बताओ अब क्या करें। इस पर कन्हैया बोले- अब मैं बछड़े चराने नहीं जाउंगा, अब मैं गाय जाउंगा। इसपर यशोदा जी ने कहा- ठीक है बाबा से पूछ लेना। अपनी मईया के इतना कहते ही झट से कृष्ण जी नंद बाबा से पूछने पहुंच गए।

नंद बाबा ने कहा- लल्ला अभी तुम बहुत छोटे हो अभी तुम बछड़े ही चराओ, लेकिन कन्हैया हठ करने लगे। तब नंद जी ने कहा ठीक है लल्ला तुम पंडित जी को बुला लाओ- वह गौ चारण का मुहूर्त देख कर बता देंगे।बाबा की बात सुनकर कृष्ण जी झट से पंडित जी के पास पहुंच गए और बोले- पंडित जी, आपको बाबा ने बुलाया है, गौ चारण का मुहूर्त देखना है, आप आज ही का मुहूर्त बता देना मैं आपको बहुत सारा माखन दुंगा।

पंडित जी नंद बाबा के पास पहुंचे और बार-बार पंचांग देख कर गणना करने लगे, तब नंद बाबा ने पूछा, क्या बात है पंडित जी? आप बार-बार क्या गिन रहे हैं? तब पंडित जी ने कहा, क्या बताएं गौ चारण के लिए केवल आज का ही मुहूर्त निकल रहा है, इसके बाद तो एक वर्ष तक कोई मुहूर्त नहीं है। पंडित जी की बात सुनने के बाद नंदबाबा को गौ चारण की स्वीकृति देनी पड़ी। उसी दिन भगवान ने गौ चारण आरंभ किया। यह शुभ तिथि कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष अष्टमी तिथि थी, भगवान के द्वारा गौ-चारण आरंभ करने के कारण यह तिथि गोपाष्टमी कहलाई।
     

एक अन्य पौराणिक मान्यता के अनुसार कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से लेकर सप्तमी तक भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी उंगली पर गोवर्धन पर्वत को उठाए रखा था. आठवें दिन जब इंद्र देव का अहंकार टूटा ओर वें श्रीकृष्ण के पास क्षमा मांगने आए, तभी से कार्तिक शुक्ल अष्टमी को गोपाष्टमी का उत्सव मनाया जा रहा है.

         इस दिन गाय की पूजा की जाती हैं। सुबह जल्दी उठकर स्नान करके गाय के चरण-स्पर्श किये जाते हैं। सुबह  गाय और उसके बछड़े को नहलाकर तैयार किया जाता है। उसका श्रृंगार किया जाता हैं, पैरों में घुंघरू बांधे जाते हैं, अन्य आभूषण पहनायें जाते हैं। गो-माता की परिक्रमा भी की जाती हैं। सुबह गायों की परिक्रमा कर उन्हें चराने बाहर ले जाते हैं। गौ माता के अंगो में मेंहदी, रोली, हल्दी आदि के थापे लगाये जाते हैं। गायों को सजाया जाता है, प्रातःकाल ही धूप, दीप, पुष्प, अक्षत, रोली, गुड, जलेबी, वस्त्र और जल से गौ-माता की पूजा की जाती है, और आरती उतारी जाती है। पूजन के बाद गौ ग्रास निकाला जाता है, गौ-माता की परिक्रमा की जाती है, परिक्रमा के बाद गौओं के साथ कुछ दूर तक चला जाता है। कहते हैं ऎसा करने से प्रगति के मार्ग प्रशस्त होते हैं। इस दिन ग्वालों को भी दान दिया जाता है। कई लोग इन्हें नये कपड़े दे कर तिलक लगाते हैं। शाम को जब गाय घर लौटती है, तब फिर उनकी पूजा की जाती है, उन्हें अच्छा भोजन दिया जाता है।

                               विशेष

1. इस दिन गाय को हरा चारा खिलाएँ।
2. जिनके घरों में गाय नहीं है वे लोग गौशाला जाकर गाय की पूजा करें।
3. गंगा जल, फूल चढाये, दिया जलाकर गुड़ खिलाये।
4. गाय को तिलक लगायें, भजन करें, गोपाल (कृष्ण) की पूजा भी करें, सामान्यतः लोग अपनी सामर्थ्यानुसार गौशाला में खाना और अन्य समान का दान भी करते हैं।
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                          "जय जय श्री राधे"




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30. वृंदावन से मथुरा जाने के बाद कृष्ण फिर कभी वृंदावन वापस नहीं लौटे।

केवल दो बार वह राधा से मिले थे। एक कुरुक्षेत्र मे और दूसरी बार उस मूसल युद्ध के पहले की जिसमें शराब पीकर आपस में लड़ते हुए सभी यदुवंशी मर गये थे। प्रभास क्षेत्र यादवों का एक बहुत पवित्र स्थल था। ध्यान दीजिए कि विख्यात प्रथम शिवलिंग सोमनाथ प्रभास क्षेत्र में ही है। इस मंदिर का सुसज्जीकरण भी श्रीकृष्ण ने ही कराया था। इसके उत्तर में प्रभास का विस्तृतभू भाग है। इसी स्थान पर मैदान से थोड़ी दूर पर बहेलिये ने श्रीकृष्ण के पैर में बाण मारा था। यहां हर वर्ष एक पूजा समारोह होता था जिसमें यादव गणतंत्र के सभी लोग आबालवृद्ध भाग लेते थे। गोलोक जाने के पहले एक बार श्रीकृष्ण ने समस्त ब्रजवासियों को प्रभास तीर्थ में मिलने के लिए बुलाया था। वृंदावन से जाने के बाद राधा कृष्ण की यही दूसरी और अंतिम भेंट थी। रुक्मिणी भी आई थीं। इस पर सूरदास जी ने एक बहुत भावपूर्ण पद लिखा है...

रुक्मणि राधा ऐसो भेंटी
बहुत दिनन की बिछुरी जइसे एक बाप की बेटी

इसके बाद राधा कृष्ण का आमना सामना हुआ। मिलते ही राधा ने कहा कहो कृष्ण कैसे हो? कृष्ण हतप्रभ रह गए। कृष्ण ने अचकचाते हुए कहा क्या कहती हो राधा?

मैं तुम्हारे लिए कृष्ण कब से हो गया?

मैं तो अब भी तुम्हारे लिए कान्हा ही हूं। राधा ने कहा नहीं कृष्ण अब तुम कान्हा नहीं रहे, बहुत बदल गये हो।

क्या बदलाव आ गया है मुझमें?

राधा: कोई एक हो तब न बताऊं। अगर तुम श्याम होते तो सुदामा के पास तुम जाते। सुदामा को तुम्हारे पास नहीं आना पड़ता। तुम वनमाली थे। तुम्हारे गले में वनमाला शोभती थी। शायद तुम्हें नहीं मालूम हुआ होगा कि तुम्हारे लिए माला बनाने के लिए मैं और मेरी सखियां ललिता विशाखा अनुराधा कुसुम शैव्या आदि वृंदावन के सात वनों से फूल चुनती थीं। कितनी बार बाहों में खरोंच आई। ओढनियां फट जाती थीं। घर पर मार पड़ती थी। पर जब तुम वही वनमाला पहन कर हंसते थे तो आत्मा तृप्त हो जाती थी। लगता था कि लोक परलोक दोनों बन गये। आज तुम्हारे गले की वह वनमाला कहां गई?

आज तुम्हारे गले में हीरे जवाहरात जड़ित सोने की माला है। जिन हाथों में मुरली शोभायमान होती थी उन हाथों में सुदर्शन चक्र आ गया है। जब तुम मुरली बजाते थे तो मनुष्य क्या पशु पक्षी भी सुनने के लिए जुट जाते थे। आज उन्हीं हाथों से संहार कर रहे हो। लोग कहते हैं कि तुम भगवान हो और ऐसा तुमने भी गीता में कहा है...

मत्तम् परततरंनान्यत किंचिदस्ति धनंजय:
मयि सर्वमदिमश्रोतं सूत्रे मणिगणाइव।

पर मैंने तो तुम्हें ब्रह्म माना ही नहीं। तुम तो मेरे नंद के लाल मुरलीधर श्याम थे एक सामान्य ग्वाला। तुम्हारे इस रूप का तो पता ही नहीं था। तुमने ऊधौ को भेजा था हमें निर्गुण ज्ञान बताने के लिए। ऊधौ ने तो बताया ही होगा कि हमारा प्रेम क्या है और उनकी क्या गति।

कृष्ण सुनते रहे और तब कहा... लेकिन मैं तो तुम्हें अब भी याद करता हूं। तुम्हारी याद आती है तो आंखों आंसू निकलते हैं।

राधा: लेकिन मैं तो तुम्हें कभी याद नहीं करती। याद तो उसको किया जाता है जो कहीं दूर चला गया हो। तुम तो कभी मेरे हृदय से गये ही कहां थे जो याद करना पड़ता। रही मेरे न रोने की बात तो कान्हा मैं इस लिए नहीं रोई कि मेरी आंखों में बसे हुए तुम कहीं आंसुओं के साथ निकल न जाओ। भक्त का भाव देखकर भगवान विह्वल हो गए। बोले राधा तुम जीती मैं हारा।

राधा: याद रखना कृष्ण मेरे बिना अधूरे रहोगे। संसार में जहां भी तुम्हारी पूजा होगी मैं साथ रहूंगी। एक को छोड़कर (जगन्नाथ जी)। कोई ऐसा मंदिर नहीं होगा जहां मैं तुम्हारे साथ नहीं होऊंगी। हमेशा तुम्हारे नाम के पहले मेरा नाम लिया जाएगा ठीक उसी प्रकार जैसे पूर्व में प्रभु श्रीराम के पहले माँ सीता का नाम आया।

भगवान श्रीकृष्ण ने एवमस्तु कहा और एक अंतिम बात कही कि राधा अब इस जीवन में मेरी तुम्हारी भेंट नहीं होगी पर मैं तुम्हें कुछ देना चाहता हूँ, जो भी इच्छा हो मांग लो। राधा ने कहा, कन्हैया मुझे तो सब कुछ मिल चुका है और कुछ नहीं चाहिए। मेरा तुम्हारा प्यार अमर रहे। जब तक इस धराधाम पर एक भी प्राणी जीवित रहे मुझे तुम्हारे साथ याद करता रहे। परंतु कहते ही हो तो एक बार वही मुरली की तान एक बार और सुना दो।

भगवान भक्त की इस इच्छा को टाल न सके जबकि सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान कृष्ण इसके भयावह परिणाम को जानते थे। फिर भी उन्होंने बहुत दिनों से संजोकर रखी हुई बांसुरी निकाली और एक अद्भुत अविस्मरणीय तान छेड़ दिया। सारा संसार तरंगित हो उठा। यद्यपि कृष्ण ने अनेकों बार मुरली बजाया था पर यह तान विलक्षण थी, अद्भुत शांति थी और हृदय के तार को झंकृत करने वाली थी। ऐसी धुन न कभी बजी थी और न कभी बजेगी।

सुध बुध खोकर राधा बंशी की धुन सुनती हुई श्रीकृष्ण में समा गई।



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31. 

. “आँवला नवमी”

          कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की नवमी बहुत खास और शुभ मानी जाती है। इस दिन उत्तर भारत और मध्य भारत में अक्षय नवमी या आँवला नवमी का पर्व मनाया जाता है। जबकि दक्षिण और पूर्व भारत में इसी दिन जगद्धात्री पूजा का पर्व मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन अच्छे कार्य करने से अगले कई जन्मों तक हमें इसका पुण्य फल मिलता रहेगा। धर्म ग्रंथो के अनुसार आँवला नवमी के दिन आँवले के पेड़ पर भगवान विष्णु एवं शिव जी वास करते हैं। इसलिए इस दिन सुबह उठकर इस वृक्ष की सफाई करनी चाहिए। साथ ही इस पर दूध एवं फल चढ़ाना चाहिए। पुष्प अर्पित करने चाहिए और धूप-दीप दिखाना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार आँवला नवमी या अक्षय नवमी उतनी ही शुभ और फलदायी है जीतनी की वैशाख मास की अक्षय तृतीया।

                         आँवला नवमी कथा–1

          किसी समय काशी नगरी में एक व्यापारी और उसकी पत्नी रहते थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। इसी कारण व्यापारी की पत्नी हमेशा दु:खी रहती थी। एक दिन उसे किसी ने कहा कि यदि वह संतान चाहती है तो उसे किसी जीवित बच्चे की बलि भैरव को चढ़ाना होगी। उसने यह बात अपने पति से कही, लेकिन पति को यह बात जरा भी पसन्द नहीं आई।
          चूंकि उसकी पत्नी को संतान की बहुत अधिक लालसा थी, इसलिए उसने पति से छुपाकर और अच्छे-बुरे की परवाह किए बिना एक बच्चा चुराकर उसकी बलि भैरव बाबा को दे दी। इसका गंभीर परिणाम हुआ और व्यापारी की पत्नी को कई रोग हो गए। पत्नी की यह हालत देख व्यापारी दु:खी था। उसने इसका कारण पूछा तो पत्नी ने बताया कि बच्चे की बलि के कारण उसकी यह हालत हुए है। ("श्रीजी की चरण सेवा" की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें) यह सुनकर व्यापारी को बहुत क्रोध आया, लेकिन पत्नी की हालत से वह दु:खी था। इसलिए उसने उपाय बताया कि वह इस पाप से मुक्ति के लिए गंगा स्नान करे और सच्चे मन से ईश्वर से प्रार्थना करे। व्यापारी की पत्नी ने कई दिनों तक यह किया।
          इससे प्रसन्न होकर गंगा माता ने एक बूढ़ी औरत के रूप में व्यापारी की पत्नी को दर्शन दिए और कहा कि उसके शरीर के सारे रोग दूर हो जाएंगे, यदि वह कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन वृंदावन में व्रत रखकर आँवले के वृक्ष की पूजा करे। व्यापारी की पत्नी ने बड़े विधि-विधान से आँवला नवमी का व्रत-पूजन किया। इससे शीघ्र ही उसके सभी कष्ट दूर हो गए और उसे एक स्वस्थ व सुन्दर संतान की प्राप्ति हुई। इसी दिन से महिलायें सुख-सौभाग्य, रोग मुक्ति और उत्तम संतानसुख की प्राप्ति के लिए आँवला नवमी का व्रत करती हैं।

                         आँवला नवमी कथा–2

          एक राजा था, उसका प्रण था वह रोज सवा मन आँवले दान करके ही खाना खाता था। इससे उसका नाम आँवलया राजा पड़ गया। एक दिन उसके बेटे बहु ने सोचा कि राजा इतने सारे आँवले रोजाना दान करते हैं, इस प्रकार तो एक दिन सारा खजाना खाली हो जायेगा। इसीलिए बेटे ने राजा से कहा की उसे इस तरह दान करना बन्द कर देना चाहिए।
          बेटे की बात सुनकर राजा को बहुत दुःख हुआ और राजा रानी महल छोड़कर बियाबान जंगल में जाकर बैठ गये। राजा रानी आँवला दान नहीं कर पाए और प्रण के कारण कुछ खाया नहीं। जब भूखे प्यासे सात दिन हो गए तब भगवान ने सोचा कि यदि मैने इसका प्रण नहीं रखा और इसका सत नहीं रखा तो विश्वास चला जायेगा। इसलिए भगवान ने, जंगल में ही महल, राज्य और बाग -बगीचे सब बना दिए और ढेरों आँवले के पेड़ लगा दिए। सुबह राजा रानी उठे तो देखा की जंगल में उनके राज्य से भी दुगना राज्य बसा हुआ है।
          राजा रानी से कहने लगा - रानी देख कहते हैं, सत मत छोड़े। सूरमा सत छोड़या पत जाये, सत की छोड़ी लक्ष्मी फेर मिलेगी आय। आओ नहा धोकर आँवले दान करें और भोजन करें। राजा रानी ने आँवले दान करके खाना खाया और खुशी- खुशी जंगल में रहने लगे।
          उधर आँवला देवता का अपमान करने व माता पिता से बुरा व्यवहार करने के कारण बहु बेटे के बुरे दिन आ गए। राज्य दुश्मनों ने छीन लिया दाने-दाने को मोहताज हो गए और काम ढूंढते हुए अपने पिताजी के राज्य में आ पहुँचे। उनके हालात इतने बिगड़े हुए थे कि पिता ने उन्हें बिना पहचाने हुए काम पर रख लिया। ("श्रीजी की चरण सेवा" की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें) बेटे बहु सोच भी नहीं सकते कि उनके माता-पिता इतने बड़े राज्य के मलिक भी हो सकते है सो उन्होंने भी अपने माता-पिता को नहीं पहचाना।
          एक दिन बहु ने सास के बाल गूँथते समय उनकी पीठ पर मस्सा देखा। उसे यह सोचकर रोना आने लगा की ऐसा मस्सा मेरी सास के भी था। हमने ये सोचकर उन्हें आँवले दान करने से रोका था की हमारा धन नष्ट हो जायेगा। आज वे लोग न जाने कहाँ होंगे ? यह सोचकर बहु को रोना आने लगा और आँसू टपक-टपक कर सास की पीठ पर गिरने लगे। रानी ने तुरन्त पलट कर देखा और पूछा की , तू क्यों रो रही है ?
          उसने बताया आपकी पीठ जैसा मस्सा मेरी सास की पीठ पर भी था। हमने उन्हें आँवले दान करने से मना कर दिया था इसलिए वे घर छोड़कर कही चले गए। तब रानी ने उन्हें पहचान लिया। सारा हाल पूछा और अपना हाल बताया। अपने बेटे बहु को समझाया की दान करने से धन कम नहीं होता बल्कि बढ़ता है। बेटे बहु भी अब सुख से राजा रानी के साथ रहने लगे।
          हे भगवान ! जैसा राजा रानी का सत रखा वैसा सबका सत रखना। कहते सुनते सारे परिवार का सुख रखना।

                               पूजन सामग्री

          आँवले का पौधा, फल, तुलसी के पत्ते एवं तुलसी का पौधा, कलश और जल, कुमकुम, सिंदूर, हल्दी, अबीर-गुलाल, चावल, नारियल, सूत, धूप-दीप, श्रृंगार का सामान और साड़ी-ब्लाउज, दान के लिए अनाज।

                                  पूजन विधि

          प्रात:काल स्नान कर आँवले के वृक्ष की पूजा की जाती है। पूजा करने के लिए आँवले के वृक्ष की पूर्व दिशा की ओर उन्मुख होकर षोडशोपचार पूजन करें। दाहिने हाथ में जल, चावल, पुष्प आदि लेकर व्रत का संकल्प करें। संकल्प के बाद आँवले के वृक्ष के नीचे पूर्व दिशा की ओर मुख करके 'ॐ धात्र्यै नम:' मंत्र से आह्वानादि षोडशोपचार पूजन करके आँवले के वृक्ष की जड़ में दूध की धारा गिराते हुए पितरों का तर्पण करें। फिर कर्पूर या घृतपूर्ण दीप से आँवले के वृक्ष की आरती करें।
          अब पूजन की कथा कहें एवं सभी महिलायें इक्कट्ठा होकर कथा सुनें। पूजा के बाद पेड़ की कम से कम सात बार परिक्रमा करें, तभी सूत भी लपेटे। वैसे मान्यता है कि जो भी इस दिन आँवले के वृक्ष की 108 बार परिक्रमा करता है, उसकी सारी मनोकामनाएं पूरी होती है। परिक्रमा के समाप्त होने पर फिर वहीं पेड़ के नीचे अथवा पास में बैठकर भोजन करें। ऐसी मान्यता है की इस परम्परा की शुरुआत माता लक्ष्मी ने की थी।
          इस संदर्भ में कथा है कि एक बार माता लक्ष्मी पृथ्वी भ्रमण करने आयीं। रास्ते में भगवान विष्णु एवं शिव की पूजा एक साथ करने की इच्छा हुई। लक्ष्मी माँ ने विचार किया कि एक साथ विष्णु एवं शिव की पूजा कैसे हो सकती है। तभी उन्हें ख्याल आया कि तुलसी एवं बेल का गुण एक साथ आँवले में पाया जाता है। तुलसी भगवान विष्णु को प्रिय है और बेल शिव को।
          आँवले के वृक्ष को विष्णु और शिव का प्रतीक चिन्ह मानकर माँ लक्ष्मी ने आँवले की वृक्ष की पूजा की। पूजा से प्रसन्न होकर विष्णु और शिव प्रकट हुए। लक्ष्मी माता ने आँवले के वृक्ष के नीचे भोजन बनाकर विष्णु और भगवान शिव को भोजन करवाया। इसके बाद स्वयं भोजन किया। जिस दिन यह घटना हुई थी उस दिन कार्तिक शुक्ल नवमी तिथि थी। इसी समय से यह परम्परा चली आ रही है।
          इस दिन किसी गरीब अथवा ब्राह्मण महिला को श्रृंगार का सामान एवं साड़ी-ब्लाउज दान करें एवं दक्षिणा दें। इस दिन अपने सामर्थ्य अनुसार गरीबों को अनाज का भी दान करें।

                      आँवला नवमी का महत्व

1. मान्यता है कि जो व्यक्ति आँवला नवमी या अक्षय नवमी का व्रत रखता है अथवा पूजा करता है उसे असीम शांति मिलती है। उसका मन पवित्र होता है और वह जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है। इसलिए उसे बार-बार जन्म लेने की आवश्यकता नही होती है। वह अपने लक्ष्य को भली-भांति समझता है।

2. जो महिलायें आँवला नवमी की पूजा करती हैं उन्हें उत्तम संतान की प्राप्ति होती है। वह दीर्घायु होता है और समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। वह अपने वंश का नाम रोशन करने वाला होता है। इसके अतिरिक्त इस पूजा से घर का वंश भी बढ़ता है।

3. कहते हैं आँवला नवमी की पूजा से पति-पत्नी के बीच रिश्ता बहुत ही मधुर होता है। दोनों के बीच आपसी तालमेल बहुत अच्छा रहता है। इसका एक वैज्ञानिक फायदा भी है। कहा जाता है कि ये आँवले के सेवन से गरिष्ठ भोजन जल्दी पच जाता है।

4. आँवला नवमी के दिन आँवले के पेड़ के नीचे बैठकर ही भोजन करना चाहिए। मान्यता है कि इस दिन भोजन करते समय यदि आपकी थाली में आँवला या उसका पत्ता गिरे तो यह बहुत ही शुभ संकेत होता है। माना जाता है कि इससे आप वर्ष भर स्वस्थ्य रहेंगे।

5. अक्षय नवमी को कार्तिक शुक्ल नवमी भी कहते हैं। इसी दिन द्वापर युग का भी आरम्भ हुआ था। इसके अतिरिक्त इस दिन भगवान विष्णु ने कुष्माँडक नामक असुर का वध किया था। तभी उसके रोम से कुष्माँड नामक बेल उत्पन्न हुई थी। इसलिए इस इस बेल का दान करने से बेहतर परिणाम मिलते है। 
                             ० ० ०

                           "जय जय श्री राधे"



*आँवला नवमी : 21 नवंबर 2023, मंगलवार*

गोपाष्टमी से अगले दिन ही कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी को आमला नौमी के नाम से मनाया जाता है. जैसा की नाम से ही स्पष्ट है इस दिन आँवले के वृक्ष की पूजा की जाती है. दीया व धूप जलाकर आँवले के वृक्ष की 108 बार परिक्रमा की जानी चाहिए. अपनी सामर्थ्यानुसार ब्राह्मण को दान दक्षिणा दी जाती है. इस दिन भोजन में आँवले का सेवन जरुर करना चाहिए. 

आंवला नवमी का महत्व इसी बात से समझा जा सकता है क्योंकि इसी दिन द्वापर युग का प्रारंभ हुआ था, जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म लिया था। 

आंवला नवमी के दिन ही भगवान श्रीकृष्ण ने वृंदावन-गोकुल की गलियां छोड़कर मथुरा प्रस्थान किया था। संतान और पारिवारिक सुखों की प्राप्ति के लिए रखा जाता है व्रत इस दिन उन्होंने अपनी बाल लीलाओं का त्याग करके कर्तव्य के पथ पर पहला कदम रखा था। 

इसी दिन से वृंदावन की परिक्रमा भी प्रारंभ होती है। आंवला नवमी का व्रत संतान और पारिवारिक सुखों की प्राप्ति के लिए किया जाता है। यह व्रत पति-पत्नी साथ में रखें तो उन्हें इसका दोगुना शुभ फल प्राप्त होता है। 

आंवला नवमी के दिन स्नान आदि करके किसी आंवला वृक्ष के समीप जाएं। उसके आसपास साफ-सफाई करके आंवला वृक्ष की जड़ में शुद्ध जल अर्पित करें। फिर उसकी जड़ में कच्चा दूध डालें। 

पूजन सामग्रियों से वृक्ष की पूजा करें और उसके तने पर कच्चा सूत या मौली 8 परिक्रमा करते हुए लपेटें। कुछ जगह 108 परिक्रमा भी की जाती है। इसके बाद परिवार के सुख-समृद्धि की कामना करके वृक्ष के नीचे ही बैठकर परिवार, मित्रों सहित भोजन किया जाता है। 

आंवला को वेद-पुराणों में अत्यंत उपयोगी और पूजनीय कहा गया है। आंवला का संबंध कनकधारा स्तोत्र से भी है।

आंवला नवमी और शंकराचार्य की कथा- 

एक कथा के अनुसार एक बार जगद्गुरु आदि शंकराचार्य भिक्षा मांगने एक कुटिया के सामने रुके। वहां एक बूढ़ी औरत रहती थी, जो अत्यंत गरीबी और दयनीय स्थिति में थी। शंकराचार्य की आवाज सुनकर वह बूढ़ी औरत बाहर आई। उसके हाथ में एक सूखा आंवला था। वह बोली महात्मन मेरे पास इस सूखे आंवले के सिवाय कुछ नहीं है जो आपको भिक्षा में दे सकूं। 

शंकराचार्य को उसकी स्थिति पर दया आ गई और उन्होंने उसी समय उसकी मदद करने का प्रण लिया। उन्होंने अपनी आंखें बंद की और मंत्र रूपी 22 श्लोक बोले। ये 22 श्लोक कनकधारा स्तोत्र के श्लोक थे।

मां लक्ष्मी ने दिव्य दर्शन दिए इससे प्रसन्न होकर मां लक्ष्मी ने उन्हें दिव्य दर्शन दिए और कहा कि शंकराचार्य, इस औरत ने अपने पूर्व जन्म में कोई भी वस्तु दान नहीं की। यह अत्यंत कंजूस थी और मजबूरीवश कभी किसी को कुछ देना ही पड़ जाए तो यह बुरे मन से दान करती थी। इसलिए इस जन्म में इसकी यह हालत हुई है। यह अपने कर्मों का फल भोग रही है इसलिए मैं इसकी कोई सहायता नहीं कर सकती।

शंकराचार्य ने देवी लक्ष्मी की बात सुनकर कहा- हे महालक्ष्मी इसने पूर्व जन्म में अवश्य दान-धर्म नहीं किया है, लेकिन इस जन्म में इसने पूर्ण श्रद्धा से मुझे यह सूखा आंवला भेंट किया है। इसके घर में कुछ नहीं होते हुए भी इसने यह मुझे सौंप दिया। इस समय इसके पास यही सबसे बड़ी पूंजी है, क्या इतना भेंट करना पर्याप्त नहीं है। शंकराचार्य की इस बात से देवी लक्ष्मी प्रसन्न हुई और उसी समय उन्होंने गरीब महिला की कुटिया में स्वर्ण के आंवलों की वर्षा कर दी।



*इसके बाद बिन्दायक जी की कहानी कहते हैं*–

बिन्दायक जी की कहानी

एक बार एक छोटा लड़का किसी बात पर लड़कर घर से चला गया. कहने लगा कि आज मैं बिन्दायक जी से मिलकर ही घर जाऊँगा. लड़का चलते-चलते उजाड़ जगह पर पहुंच गया तब बिन्दायक जी सोचने लगे कि इसने मेरे नाम से ही घर छोड़ा है. मुझे इसकी सहायता करनी होगी अन्यथा उजाड़ में शेर आदि इसे खा सकते हैं. बिन्दायक जी बूढ़े व्यक्ति के भेष में आकर बोले कि लड़के तू कहाँ से आया है और कहाँ जा रहा है? इस पर वह बोला कि मैं तो बिन्दायक जी से मिलने जा रहा हूँ. बिन्दायक जी ने कहा कि मैं ही बिन्दायक हूँ, बोल तू क्या माँगता है! लेकिन जो भी माँगना वह एक बार में ही माँग लेना. 

बिन्दायक जी की बात सुनकर लड़का बोला कि मैं क्या माँगू! फिर बोला कि क्या माँगू बाप की कमाई, हाथी की सवारी, दाल-भात  मुठ्ठी परासें, ढोकता मुठ्ठी भर कर डोल, स्त्री ऎसी कि जैसे फूल गुलाब का. बिन्दायक जी कहने लगे कि लड़के तूने सब कुछ माँग लिया. जो तूने कहा है सब वैसा ही हो जाएगा. घर वापिस आने पर उसने देखा कि छोटी सी बहू चौकी पर बैठी है और घर में बहुत धन हो गया है. लड़का माँ से बोला कि माँ देख कितना धन हो गया है, यह मैं बिन्दायक जी से माँग कर लाया हूँ. हे बिन्दायक जी महाराज जैसे आपने लड़के को धन दिया वैसे ही आप सभी की सुने.






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आज की कहानी: कहानी # 32 *छोटी सी गौरैया का श्रीकृष्ण पर विश्वास*



कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र को विशाल सेनाओं के आवागमन की सुविधा के लिए तैयार किया जा रहा था। उन्होंने हाथियों का इस्तेमाल पेड़ों को उखाड़ने और जमीन साफ करने के लिए किया।

ऐसे ही एक पेड़ पर एक गौरैया अपने चार बच्चों के साथ रहती थी। जब उस पेड़ को उखाड़ा जा रहा था तो उसका घोंसला जमीन पर गिर गया, लेकिन चमत्कारी रूप से उसकी संताने अनहोनी से बच गई। लेकिन वो अभी बहुत छोटे होने के कारण उड़ने में असमर्थ थे।

कमजोर और भयभीत गौरैया मदद के लिए इधर-उधर देखती रही। तभी उसने कृष्ण को अर्जुन के साथ वहा आते देखा। वे युद्ध के मैदान की जांच करने और युद्ध की शुरुआत से पहले जीतने की रणनीति तैयार करने के लिए वहां गए थे।

उसने कृष्ण के रथ तक पहुँचने के लिए अपने छोटे पंख फड़फड़ाए और किसी प्रकार श्री कृष्ण के पास पहुंची।

हे कृष्ण, कृपया मेरे बच्चों को बचाये क्योकि लड़ाई शुरू होने पर कल उन्हें कुचल दिया जायेगा।

सर्व व्यापी भगवन बोले: मैं तुम्हारी बात सुन रहा हूं, लेकिन मैं प्रकृति के कानून में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।

गौरैया ने कहा: हे भगवान! मै जानती हूँ कि आप मेरे उद्धारकर्ता हैं, मैं अपने बच्चों के भाग्य को आपके हाथों में सौंपती हूं। अब यह आपके ऊपर है कि आप उन्हें मारते हैं या उन्हें बचाते हैं।

काल चक्र पर किसी का बस नहीं है, श्री कृष्ण ने एक साधारण व्यक्ति की तरह उससे बात की जिसका आशय था कि वहा ऐसा कुछ भी नहीं था जिसके बारे में वो कुछ भी कर सकते थे।

गौरैया ने विश्वास और श्रद्धा के साथ कहा: प्रभु, आप कैसे और क्या करते है वो मै नहीं जान सकती। आप स्वयं काल के नियंता हैं, यह मुझे पता है। मैं सारी स्थिति एवं परिस्थति एवं स्वयं को परिवार सहित आपको समर्पण करती हूँ।

कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र को विशाल सेनाओं के आवागमन की सुविधा के लिए तैयार किया जा रहा था। उन्होंने हाथियों का इस्तेमाल पेड़ों को उखाड़ने और जमीन साफ करने के लिए किया।ऐसे ही एक पेड़ पर एक गौरैया अपने चार बच्चों के साथ रहती थी। जब उस पेड़ को उखाड़ा जा रहा था तो उसका घोंसला जमीन पर गिर गया, लेकिन चमत्कारी रूप से उसकी संताने अनहोनी से बच गई। लेकिन वो अभी बहुत छोटे होने के कारण उड़ने में असमर्थ थे।

कमजोर और भयभीत गौरैया मदद के लिए इधर-उधर देखती रही। तभी उसने कृष्ण को अर्जुन के साथ वहा आते देखा। वे युद्ध के मैदान की जांच करने और युद्ध की शुरुआत से पहले जीतने की रणनीति तैयार करने के लिए वहां गए थे।

उसने कृष्ण के रथ तक पहुँचने के लिए अपने छोटे पंख फड़फड़ाए और किसी प्रकार श्री कृष्ण के पास पहुंची।

हे कृष्ण, कृपया मेरे बच्चों को बचाये क्योकि लड़ाई शुरू होने पर कल उन्हें कुचल दिया जायेगा।

सर्व व्यापी भगवन बोले: मैं तुम्हारी बात सुन रहा हूं, लेकिन मैं प्रकृति के कानून में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।

गौरैया ने कहा: हे भगवान! मै जानती हूँ कि आप मेरे उद्धारकर्ता हैं, मैं अपने बच्चों के भाग्य को आपके हाथों में सौंपती हूं। अब यह आपके ऊपर है कि आप उन्हें मारते हैं या उन्हें बचाते हैं।

काल चक्र पर किसी का बस नहीं है, श्री कृष्ण ने एक साधारण व्यक्ति की तरह उससे बात की जिसका आशय था कि वहा ऐसा कुछ भी नहीं था जिसके बारे में वो कुछ भी कर सकते थे।

गौरैया ने विश्वास और श्रद्धा के साथ कहा: प्रभु, आप कैसे और क्या करते है वो मै नहीं जान सकती। आप स्वयं काल के नियंता हैं, यह मुझे पता है। मैं सारी स्थिति एवं परिस्थति एवं स्वयं को परिवार सहित आपको समर्पण करती हूँ।

भगवन बोले: अपने घोंसले में तीन सप्ताह के लिए भोजन का संग्रह करो।

गौरैया और श्री कृष्ण के सवाद से अनभिज्ञ, अर्जुन गौरैया को दूर भगाने की कोशिश करते है। गौरैया ने अपने पंखों को कुछ मिनटों के लिए फुलाया और फिर अपने घोंसले में वापस चली गई।

दो दिन बाद, शंख के उद् घोष से युद्ध शुरू होने की घोषणा की गई।

कृष्ण ने अर्जुन से कहा की अपने धनुष और बाण मुझे दो। अर्जुन चौंका क्योंकि कृष्ण ने युद्ध में कोई भी हथियार नहीं उठाने की शपथ ली थी। इसके अतिरिक्त, अर्जुन का मानना था कि वह ही सबसे अच्छा धनुर्धर है।

मुझे आज्ञा दें, भगवान: अर्जुन ने दृढ़ विश्वास के साथ कहा, मेरे तीरों के लिए कुछ भी अभेद्य नहीं है।

चुपचाप अर्जुन से धनुष लेकर कृष्ण ने एक हाथी को निशाना बनाया। लेकिन, हाथी को मार के नीचे गिराने के बजाय, तीर हाथी के गले की घंटी में जा टकराया और एक चिंगारी सी उड़ गई।

अर्जुन ये देख कर अपनी हसी नहीं रोक पाई कि कृष्ण एक आसान सा निशान चूक गए।

क्या मैं प्रयास करू? उसने स्वयं को प्रस्तुत किया।

उसकी प्रतिक्रिया को नजरअंदाज करते हुए, कृष्ण ने उन्हें धनुष वापस दिया और कहा कि कोई और कार्रवाई आवश्यक नहीं है।

लेकिन केशव आपने हाथी को क्यों तीर मारा? अर्जुन ने पूछा।

क्योंकि इस हाथी ने उस गौरैया के आश्रय उसके घोंसले को जो कि एक पेड़ पर था उसको गिरा दिया था।

कौन सी गौरैया? अर्जुन ने पूछा। इसके अतिरिक्त, हाथी तो अभी स्वस्थ और जीवित है। केवल घंटी ही टूट कर गिरी है!

अर्जुन के सवालों को खारिज करते हुए, कृष्ण ने उसे शंख फूंकने का निर्देश दिया।

युद्ध शुरू हुआ, अगले अठारह दिनों में कई जानें चली गईं। अंत में पांडवों की जीत हुई। एक बार फिर, कृष्ण अर्जुन को अपने साथ सुदूर क्षेत्र में भ्रमण करने के लिए ले गए। कई शव अभी भी वहाँ हैं जो उनके अंतिम संस्कार का इंतजार कर रहे हैं। जंग का मैदान गंभीर अंगों और सिर, बेजान सीढ़ियों और हाथियों से अटा पड़ा था।

कृष्ण एक निश्चित स्थान पर रुके और एक घंटी जो कि हाथी पर बाँधी जाती थी उसे देख कर विचार करने लगे ।

अर्जुन, उन्होंने कहा: क्या आप मेरे लिए यह घंटी उठाएंगे और इसे एक तरफ रख देंगे?

निर्देश बिलकुल सरल था परन्तु अर्जुन के समझ में नहीं आया। आख़िरकार, विशाल मैदान में जहाँ बहुत सी अन्य चीज़ों को साफ़ करने की ज़रूरत थी, कृष्ण उसे धातु के एक टुकड़े को रास्ते से हटाने के लिए क्यों कहेंगे? उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से उनकी ओर देखा।

हाँ, यह घंटी, कृष्ण ने दोहराया: यह वही घंटी है जो हाथी की गर्दन पर पड़ी थी जिस पर मैंने तीर मारा था।

अर्जुन बिना किसी और सवाल के भारी घंटी उठाने के लिए नीचे झुका। जैसे ही उन्होंने इसे उठाया, उसकी हमेशा के लिए जैसे दुनिया बदल गई।

एक, दो, तीन, चार और पांच। चार युवा पक्षियों और उसके बाद एक गौरैया उस घंटी के नीचे से निकले। बाहर निकल के माँ और छोटे पक्षी कृष्ण के इर्द-गिर्द मंडराने लगे एवं बड़े आनंद से उनकी परिक्रमा करने लगे। अठारह दिन पहले काटी गई एक घंटी ने पूरे परिवार की रक्षा की थी।

मुझे क्षमा करें हे कृष्ण, अर्जुन ने कहा: आपको मानव शरीर में देखकर और सामान्य मनुष्यों की तरह व्यवहार करते हुए, मैं भूल गया था कि आप वास्तव में कौन हैं।

आइये हम भी तब तक इस घंटी के नीचे विश्राम करे जब तक ये हमारे लिए उठाई ना जाये!



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33. श्रीराम की अंगूठी खोजने नागलोक पहुंचे हनुमान फिर नहीं लौटे अयोध्या





























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34. ब्राह्मण और ब्राह्मणी के बेटा-बहु



          एक ब्राह्मण और ब्राह्मणी थे, वो सात कोस दूर गंगा जमुना स्नान करने जाते थे। रोज इतनी दूर आने-जाने से ब्राह्मणी थक जाती थी। एक दिन ब्राह्मणी कहती है कि कोई बेटा होता तो बहु आ जाती। घर वापिस आने पर खाना बना हुआ तो मिलता, कपड़े धुले मिलते। ब्राह्मण कहता है कि तूने भली बात चलाई ! चल, मैं तेरे लिए बहु ला ही देता हूँ। ब्राह्मण फिर बोला कि एक पोटली में थोड़ा सा आटा बाँध दे उसमें थोड़ी सी मोहर-अशरफी डाल दे। उसने पोटली बाँध दी और ब्राह्मण पोटली लेकर चल दिया।
          चलते-चलते कुछ ही दूर एक गाँव में जमुना जी के किनारे बहुत सारी सुन्दर लड़कियाँ अपने घर बनाकर खेल रही थी। उनमें से एक लड़की बोलती है कि मैं तो अपना घर नहीं बिगाडूंगी, मुझे तो रहने के लिए ये घर चाहिए। उसकी बात सुन ब्राह्मण के मन पर वही लड़की छा गई और मन ही मन सोचने लगा कि बहु बनाने के लिए यही लड़की ठीक रहेगी। जब वह लड़की जाने लगी तो ब्राह्मण भी उसके पीछे चला और जब वह लड़की अपने घर पहुँचती है तब बूढ़ा ब्राह्मण बोला, "बेटी ! कार्तिक का महीना है, मैं किसी के यहाँ खाना नहीं खाता, तुम अपनी माँ से पूछो कि मेरा आटा छानकर चार रोटी बना देगी क्या ? यदि वह मेरा आटा छानकर रोटी बनाएगी तभी मैं खाऊँगा।"
          लड़की अपनी माँ को सारी बात बताती है, माँ कहती है कि बेटी, बाबा से कह दे कि रोटी में चार रोटी वह भी खा लेगें लेकिन लड़की कहती है कि नही माँ ! बाबा ने कहा है कि मेरा आटा छानकर बनाओगी तभी वह खाएँगे। तब उसकी माँ कहती है कि ठीक है जा बाबा से कह दे कि अपना आटा दे दें। उसने आटा छाना तो उसमें से मोहर अशर्फी निकलती है। वह सोचती है कि जिसके आटे में इतनी मोहर अशर्फी है उसके घर ना जाने कितनी होंगी ! जब ब्राह्मण रोटी खाने बैठा तो लड़की की माँ बोली, "बाबा ! तुम लड़के की सगाई करने जा रहे हो ?" बाबा बोला कि "मेरा लड़का तो काशी बनारस पढ़ने गया हुआ है लेकिन अगर तुम कहो तो मैं खाँड़-कटोरे से तेरी लड़की को ब्याह कर साथ ले जाऊँ।"
          लड़की की माँ बोली, ठीक है बाबा और वह ब्याह कर लाया। घर आकर बोला रामू की माँ दरवाजा खोलकर देख, मैं तेरे लिए बहू लेकर आया हूँ। आकर बहू का स्वागत सत्कार कर। ब्राह्मणी बोली, दुनिया ताने मारती थी, अब तू भी मार ले। हमारे तो सात जन्म तक कोई बेटा-बेटी नहीं है तो बहू कहाँ से आएगी ? ब्राह्मण बोला, "ना ! तू दरवाजा तो खोल !” ब्राह्मणी ने दरवाजा खोला तो सामने बहू खड़ी देखी तब वह आदर-सत्कार से बहू को अन्दर ले गई। अब जब ब्राह्मण-ब्राह्मणी नहाने जाते तो बहू घर का सारा काम कर के रखती। खाना बनाती और सास-ससुर के कपड़े धोती और रात में उनके पैर दबाती। इस तरह से काफी समय बीत जाता है।
          सास बहू को सीख देती है कि बहू चूल्हे की आग ना बुझने देना और मटके का पानी खत्म ना होने देना। एक दिन चूल्हे की आग बुझ गई, बहू भागी-भागी पड़ोसन के घर गई और बोली, "मुझे थोड़ी सी आग दे दो, मेरे चूल्हे की आग बुझ गई है। मेरे सास-ससुर सुबह चार बजे से बाहर गए हुए हैं और वे थके-हारे वापिस आएँगे, मुझे उनके लिए खाना बनाना है।” पड़ोसन कहती है, अरी तू तो बावली है, तूझे तो ये दोनों मिलकर पागल बना रहे हैं। इनका ना कोई बेटा है और ना ही कोई बेटी ही है। बहू बोली, ना, ना आप ऎसे मत बोलो क्योंकि इनका बेटा काशी बनारस पढ़ने गया है। पड़ोसन फिर बोली, अरे, तूझे ये झूठ बोलकर लाए हैं, इनका कोई बेटा नहीं है।
          अब बहू पड़ोसन की बातों में आ गई और कहने लगी कि अब आप ही बताओ मैं क्या करूँ ? पड़ोसन कहने लगी, करना क्या है, जब सास-ससुर आयें तब जली-फूँकी रोटी बना देना, अलूनी-पलूनी दाल बना देना। खीर की कड़छी दाल में और दाल की कड़छी खीर में डाल देना। बहू पड़ोसन की सारी सीख लेकर अपने घर आ गई और जैसा पड़ोसन ने बताया वैसा ही उसने किया। जब सास-ससुर घर आए तब भूखों का कोई आदर-सत्कार बहू ने नहीं किया और ना ही उनके कपड़े धोये।
          जब सास-ससुर को खाना दिया तो सास बोली, बहू ये जली-फूँकी रोटी क्यों हैं ? और दाल भी अलूनी है ? बहू पलटकर जवाब देती है कि आज यही खाओ सासू जी। अगर एक दिन ऐसा खाना खा भी लिया तो तुम्हारा कुछ बिगड़ नहीं जाएगा। मुझे तो जीवनभर ही अनूठी रहना है। बहू की बातें सुनकर सास बोली कि आज तो बहू ने अच्छी सीख नहीं सीखी है। अब बहू फिर से पड़ोसन के घर भागती है और कहती है कि अब आगे बताओ कि मुझे क्या करना है ? पड़ोसन बोली कि अब तुम सातों कोठों की चाबी माँग लेना।
          अगले दिन जब सास जाने लगी तो बहू अड़ गई कि मुझे तो सातों कोठों की चाबी चाहिए तो ससुर कहने लगा कि दे दो इसे चाबी, आज नहीं तो कल चाबी इसे ही देनी है। हम आज हैं कल नहीं इसलिए चाबी दे दो। सास-ससुर के जाने के बाद बहू ने कोठे खोलकर देखे तो किसी में अन्न भरा है, किसी में धन भरा है, किसी में बरतन भरे हैं, सभी में अटूट भंडार भरे पड़े हैं। जब बहू ने सातवाँ कोठा खोला तो उसमें महादेव जी, पार्वती जी, गणेश, लक्ष्मी जी, पीपल पथवारी, कार्तिक के ठाकुर, राई दामोदर, तुलसा जी का बिड़वा, गंगा-जमुना बह रही है, छत्तीस करोड़ देवी-देवता भी विराजमान है और वहीं एक लड़का चंदन की चौकी पर बैठा माला जप रहा है।
          सब देख बहू लड़के से कहती है, तू कौन है ? लड़का कहता है कि मेरा तेरा पति हूँ, दरवाजा बन्द कर दे जब मेरे माँ-बाप आयेंगे तब खोलना। सारा नजारा देखकर बहू बहुत खुश हुई और नाचती फिरने लगी। सोलह श्रृंगार कर, सुंदर वस्त्र पहन-ओढ़ सास-ससुर का इंतजार करने लगी। उनके लिए छत्तीस प्रकार के पकवान बनाकर रखे। सास-ससुर जब वापिस आए तब उसने उनका बहुत आदर-सत्कार किया, उनके कपड़े धोए, उनके पैर दबाए। बहू सास के पैर दबाते कहने लगी कि माँ जी आप इतनी दूर बारह कोस यात्रा कर के गंगा-जमुना का स्नान करने जाती हो, थक जाती हो तो तुम घर में स्नान क्यों नहीं करती हो ?
          बहू की बात सुन सास कहने लगी कि भला गंगा-जमुना भी घर में बहा करती है क्या ? बहू बोली हाँ माँजी बहती हैं चलो मैं आपको दिखाती हूँ। उसने सातवाँ कोठा खोलकर दिखाया तो उसमें गणेश, लक्ष्मी, महादेव, पार्वती, पीपल पथवारी माता लहरा रही है, तुलसा जी लहरा रही है, कार्तिक के ठाकुर, राई दामोदर, गंगा जमुना बह रही है। छत्तीस करोड़ देवी-देवता विराजमान है और वहीं तिलक लगाए चंदन की चौकी पर एक लड़का माला जप रहा है। माँ ने कहा कि तू कौन है ? लड़का बोला, माँ मैं तेरा बेटा हूँ। बुढ़िया फिर बोली, तू कहाँ से आया है ? लड़के ने कहा कि मुझे कार्तिक देवता ने भेजा है।
          बुढ़िया कहती है कि बेटा ये दुनिया कैसे जानेगी, कैसे जानेगा मेरा घर का धनी, क्या जानेंगी देवरानी-जेठानी, क्या जानेगा मेरा अगड़-बगड़ पड़ोस कि तू मेरा ही बेटा है ? बुढ़िया ने विद्वान पंडितों से सलाह ली तो वह बोले, इस पार बहू-बेटा साथ खड़े हो जायें और उस पार बुढ़िया खड़ी हो जाये। बुढ़िया चाम (चमड़ा) की अंगिया (ब्लाउज) पहने, छाती में से दूध की धार निकल जाये, बेटे की दाढ़ी-मूँछ भीग जायें, पवन पानी से गठजोड़ा बँध जाये तो जब जाने कि यह बुढ़िया का ही बेटा है। उसने ऎसा ही किया।
          चाम की अंगिया फट गई, छाती में से दूध की धार निकली, बेटे की दाढ़ी-मूँछ भीग गई, पवन पानी से बहू बेटे का गठजोड़ बंध गया। ब्राह्मण-ब्राह्मणी की खुशी का पार ना रहा, वे बहुत खुश हुए। हे कार्तिक के ठाकुर, राई दामोदर भगवान ने जैसे बहू-बेटा उसको दिए वैसे सभी को देना।     
                   
     !जय श्री नारायण हरि 
  
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35.  " *श्रीकृष्ण का नर्तकी वेश*"

              एक दिन श्री राधा अत्यधिक रूष्ट हो गईं। श्रीकृष्ण बहुत प्रकार के उपायों द्वारा भी उन्हें प्रसन्न करने में असमर्थ हुए, तब वे कुन्दलताजी के पास गए और श्रीराधाजी का मान भंग करने एक मन्त्रणा किए।
       वस्त्र,भूषणादि परिधानों से सुसज्जित होकर उन्हाने सुंदर नर्तकी का वेश धारण किया। कोयल जैसी मधुर वाणी से वार्तालाप करते हुए कुन्दलताजी के साथ श्रीराधारानी जी से मिलने चल पड़े। जब वे सुललित मन्थर गति से चल रहे थे, तब श्रीचरण युगल में पहने हुए मणि नूपुर मधुर झंकार कर रहे थे। ऐसी रूप लावण्यवती नारी को मार्ग में जिन गोपियों ने देखा,वो चमत्कृत हो ठगी सी खड़ी रह गईं। श्रीराधा साखियों के संग बैठी थी, दूर से ही उन्हें राधारानी ने आते देखा। ऐसा रूप लावण्य देखकर वो विस्मित हो गईं। श्रीराधा बोलीं- "कहो कुंदलते! आज यहां इस समय किस कारण आना हुआ और यह नवयौवना कौन है तुम्हारे संग ?"
        कुंदलताजी बोलीं-"राधे! ये मेरी सखी है। ये मथुरा से तुमसे मिलने आई है। इसने तुम्हारा बड़ा नाम सुना है, तुम्हारा यश तो त्रिभुवन में फैला है। तुम नृत्य संगीत कला में गन्धर्वो की भी गुरुरूपा हो। "मेरी यह सखी गीत -वाद्य-नृत्य इन तीन विद्याओं में परम प्रवीण है, देव मनुष्यादि में कोई नही जो इसके समान नृत्य कर सके। इसका नृत्य पशु,पक्षी,मनुष्य,देवता आदि का भी चित्त हरण कर लेता है, इसके नृत्य कला गुरु श्रीसंगीतदामोदर जी हैं !"
          इतनी प्रशंसा सुन श्रीराधा भी कौतुकी हो उठीं। सखियाँ भी सब उन्हें घेरकर खड़ीं हो गईं। श्रीराधा बोलीं-"ऐसा है तो सखी क्या तुम हमे अपना नृत्य दिखाओगी ? मेरी सखियाँ वाद्य संभालेंगी !"
         श्याम सुंदर को और क्या चाहिए था, वे सहर्ष तैयार हो गए, सखियों के मधुर वाद्य और संगीत ने दिशाओं को झंकृत कर दिया। अब नटवर ने नृत्य शुरू किया, नर्तकी वेश में अद्भुत ताल,लय के साथ नृत्य करने लगे। भाव भंगिमा, अंगो के संचालन में अद्भुत लास्य है, नृत्य की गति कभी मद्धिम कभी द्रुत हो रही थी, श्रीराधा सह सखियाँ भी चकित हो गईं, ऐसा नृत्य न कभी देखा और ना ही सुना।
        जब श्याम सुंदर श्रीराधा को रिझाने नृत्य करें तो उससे सुंदर नृत्य क्या कुछ हो सकता है ? वन के मृग, पशु, पक्षी, मोर भी स्तम्भित हो नृत्य देख रहे थे, और ऐसा अद्भुत नृत्य देख श्रीराधा का चित्त भी द्रवित हो गया। श्रीराधा भी खुद को रोक नही पाई। अद्भुत सम्मोहन श्याम सुंदर के नृत्य में, श्रीराधा भी उनके साथ नाच उठीं। क्या अप्रतिम सौंदर्य। नील और सुवर्ण वर्ण दो सौंदर्य मूर्ति कैसे ताल मिलाकर नाच रहे। सखियाँ देखकर परमानंद में मग्न हुई जा रही हैं।
        नृत्य का विश्राम हुआ, अति प्रसन्न श्रीराधा बोलीं- "हे सखी! तुमने मुझे अति आनंद प्रदान किया। मैं तुम्हे कुछ उपहार देना चाहती हूँ। बोलो सखी ! तुम्हे क्या चाहिये ?"
       श्री श्याम सुंदर इसी की तो प्रतीक्षा कर रहे थे, ऐसा उद्दाम सुललित नृत्य इसी एक पल के लिए ही तो था। श्याम सुंदर बोले-"सखी! मेरी केवल एक इच्छा है। तुम मुझे अपना आलिंगन रूप उपहार दो !" श्रीराधारानी ने प्रसन्न हो उन्हें गले लगा लिया। गले लगते ही अपने चित्त में होने वाले परिवर्तन से वो अपने प्रियतम को पहचान गईं। श्रीराधा मुस्कुरा दीं। सखियाँ भी मुस्कुराने लगीं, श्रीराधा का दुर्जय मान जाता रहा। उन्होंने पुनः श्याम सुंदर का आलिंगन कर लिया। श्याम सुंदर ने कृतज्ञता पूर्वक मुस्कुरा कर कुन्दलता जी की ओर देखा- "कुंदलते! आज भी तुमने बचा लिया !"
       श्याम सुंदर श्रीराधा के मान भंजन के लिए ना जाने कितने रूप धरते हैं। अद्भुत नृत्यांगना रूपधारी श्याम सुंदर की जय हो।
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        "जय जय श्री राधे"




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Disclaimer: 
इस post में दी गई सभी जानकारियां और तथ्य मान्यताओं के आधार पर हैं।

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