Divine Stories (Part 2)

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Divine Stories ( Content) ⤵️

36. हरि-हर मिलन (बैकुंठ चतुर्दशी) की "प्रचलित कथा"

37. राधा का कृष्ण मिलन

38. कार्तिक पूर्णिमा की कथा

39. गौ सेवा का फल

40. रहस्य धनुष के टूटने का

41. चिड़ा-चिड़ी की कहानी

42. एक कदम कृष्ण की ओर

43. क्यों है ज़रूरी भजन-कीर्तन करते हुए हाथ उठाना या ताली बजाना?



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शनिवार दिनांक 25.11.2023 तदनुसार संवत् २०८० कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को होने वाला है श्रीहरि विष्णु का शयन से जागने के बाद  महादेव से प्रथम मिलन। कैसा होगा यह मिलन:-👇


                  "हरि-हर मिलन" (बैकुंठ चतुर्दशी)


          बैकुंठ चतुर्दशी कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाई जाती है। यह पर्व भगवान शिव और भगवान विष्णु के एकाकार स्वरूप को समर्पित है। देवप्रबोधिनी एकादशी पर भगवान विष्णु चार माह की नींद से जागते हैं और चतुर्दशी तिथि पर भगवान शिव की पूजा करते हैं। इस तिथि पर जो भी मनुष्य हरि अर्थात भगवान विष्णु और हर अर्थात भगवान शिव की पूजा करता है, उसे बैकुंठ लोक की प्राप्ति होती है। ऐसा वरदान स्वयं भगवान विष्णु ने नारद जी के माध्यम से मानवजन को दिया था। इसीलिए इस दिन को बैकुंठ चतुर्दशी कहा जाता है। 

विश्व प्रसिद्ध बाबा महाकाल की नगरी उज्जैन में 25 नवंबर की रात अद्भुत नजारा देखने को मिलने वाला है। आज बाबा महाकाल रजत पालकी में सवार होकर द्वारकाधीश श्री हरि विष्णु को सृष्टि का भार सौंपने के लिए गोपाल मंदिर पहुंचेंगे। हरि से हर का मिलन होगा और विष्णु को सत्ता सौंपने के बाद महादेव कैलाश पर्वत पर लौट जाएंगे।


 36.  "हरि-हर मिलन" (बैकुंठ चतुर्दशी) की "प्रचलित कथा"


          सतयुग की एक घटना का विवरण धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इसके अनुसार, जब भगवान विष्णु को अपनी भक्ति से प्रसन्न कर राजा बलि उन्हें अपने साथ पाताल ले गए, उस दिन आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि थी। चार माह तक बैकुंठ लोक श्रीहरि के बिना सूना रहा और सृष्टि का संतुलन गड़बड़ाने लगा। तब माँ लक्ष्मी विष्णुजी को वापस बैकुंठ लाने लिए पाताल गईं। इस दौरान राजा बलि को भगवान विष्णु ने वरदान दिया कि वह हर साल चार माह के लिए उनके पास पाताल रहने आएँगे। इसलिए भगवान विष्णु हर साल चार माह के लिए पाताल अपने भक्त बलि के पास जाते हैं। जिस दिन माँ लक्ष्मी के साथ भगवान विष्णु बैकुंठ धाम वापस लौटे, उस दिन कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि थी। इस दिन भगवान विष्णु के बैकुंठ लौटने के उत्सव को उनके जागने के उत्सव के रूप में मनाया जाता है।

          कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को श्रीहरि जागने के बाद चतुर्दशी तिथि को भगवान शिव की पूजा के लिए काशी आए। यहाँ उन्होंने भगवान शिव को एक हजार कमल पुष्प अर्पित करने का प्रण किया। पूजा-अनुष्ठान के समय भगवान शिव ने श्रीहरि विष्णुजी की परीक्षा लेने के लिए एक कमल पुष्प गायब कर दिया। जब श्रीहरि को एक कमल कम होने का अहसास हुआ तो उन्होंने कमल के स्थान पर अपनी एक आँख (कमल नयन) शिवजी को अर्पित करने का प्रण किया। जैसे ही श्रीहरि अपनी आँख अर्पित करने वाले थे, वहाँ शिवजी प्रकट हो गए।

          शिवजी ने विष्णुजी के प्रति अपना प्रेम और आभार प्रकट किया। साथ ही उन्हें हजार सूर्यों के समान तेज से परिपूर्ण सुदर्शन चक्र भेंट किया। भगवान शिव के आशीर्वाद और उनके प्रति विष्णुजी के प्रेम के कारण ही इस दिन को हरिहर व्रत-पूजा का दिन कहा जाता है। भगवान विष्णु ने वरदान दिया कि जो भी मनुष्य कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी के दिन विष्णु और शिव की पूजा एक साथ करेगा, उसे बैकुंठ लोक की प्राप्ति होगी। इसीलिए इस तिथि को बैकुंठ चतुर्दशी तिथि भी कहा जाता है।


          "देवऋषि नारद से जुड़ी है यह कथा"


          सतयुग में नारदजी देवताओं और मनुष्यों दोनों के ही बीच माध्यम का कार्य करते थे। वह चराचर जगत अर्थात पृथ्वी पर आकर मनुष्यों और सभी प्राणियों का हाल लेते और कैलाश, बैकुंठ लोक और ब्रह्मलोक जाकर चराचर जगत के निवासियों की मुक्ति और प्रसन्नता से जुड़े सवालों का हल प्राप्त करते। फिर अलग-अलग माध्यमों से वह संदेश मनुष्यों तक भी पहुँचाते थे। इसी क्रम में एक बार नारदजी बैकुंठ लोक में भगवान विष्णु के पास पहुँचे और उनसे प्राणियों की मुक्ति का सरल उपाय पूछा।

          तब भगवान विष्णु नारदजी से कहते हैं, जो भी प्राणी मन-वचन और कर्म से पवित्र रहते हुए, बैकुंठ एकादशी पर पवित्र नदियों के जल में स्नान कर भगवान शिव के साथ मेरी पूजा करता है, वह मेरा प्रिय भक्त होता है और उसे मृत्यु के बाद बैकुंठ लोक की प्राप्ति होती है।


         

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                          37.    राधा का कृष्ण मिलन




          गोपाल जी एक कटोरे में मिट्टी लेकर उससे खेल रहे थे।

          राधा रानी ने पूछा:- गोपाल जी ये क्या कर रहे हो ?

          गोपाल जी कहने लगे:- मूर्ति बना रहा हूँ।

          राधा ने पूछा:- किसकी ?

          गोपालजी मुस्कुराते हुए उनकी ओर देखा। और कहने लगे:- एक अपनी और एक तुम्हारी।

          राधा भी देखने के उद्देश्य से उनके पास बैठ गयी। गोपाल जी ने कुछ ही पल में दोनों मूर्तियाँ तैयार कर दी।और राधा रानी से पूछने लगे:- बताओं कैसी बनी है ?

          मूर्ति इतनी सुंदर मानों अभी बोल पड़ेंगी। परन्तु राधा ने कहा:- मजा नहीं आया। इन्हें तोड़ कर दुबारा बनाओ। गोपाल जी अचरज भरी निगाहों से राधा की ओर देखने लगे, और सोचने लगे कि मेरे बनाए में इसे दोष दिखाई दे रहा है। परन्तु उन्होंने कुछ नहीं कहा, और दोबारा उन मूर्तियों को तोड़कर उस कटोरे में डाल दिया और उस मिट्टी को गुथने लगें। उन्होंने फिर से मूर्तियाँ बनानी शुरू की। और हुबहू पहले जैसी मूर्तियाँ तैयार की। अबकी बार प्रश्न चिन्ह वाली दृष्टि से राधे की ओर देखा ?

          राधा ने कहा:- ये वाली पहले वाली से अधिक सुंदर है।

          गोपाल जी बोले:- तुम्हें कोई कला की समझ वमझ हैं भी के नहीं। इसमें और पहले वाली में मैंने रति भर भी फर्क नहीं किया। फिर ये पहले वाली से सुंदर कैसे हैं ?

          राधा ने कहा:- "प्यारे" यहाँ मूर्ति की सुंदरता को कौन देख रहा है। मुझे तो केवल तेरे हाथों से खुद को तुझमें मिलवाना था।

          गोपाल जी:- अर्थात ?????

          राधा रानी गोपाल जी को समझा रही  थी:- देखों मोहन, तुमनें पहले दो मूर्ति बनाई। एक अपनी और एक हमारी।

          गोपाल जी:- हाँ बनाई।

          राधा:- फिर तुमनें इन्हें तोड़कर वापस कटोरे में डालकर गुथ दिया।

          गोपाल जी:- हाँ तो ?

          राधा रानी:- बस इस गुथने की प्रक्रिया मे ही मेरा मनोरथ पूरा हो गया। मैं और तुम मिलकर एक हो गए।

          गोपाल जी बैठे-बैठे मुस्कुरा रहे थे।

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                       "जय जय श्री राधे"

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देवदीपावली एवं कार्तिक पूर्णिमा महात्मय
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कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है इस पुर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे। इसलिए इस दिन देवता अपनी प्रसन्नता को दर्शाने के लिए गंगा घाट पर आकर दीपक जलाते हैं। इसी कारण से इस दिन को देव दीपावली के रूप मनाया जाता है। इस वर्ष देव दीपावली दीप दान के लिये 26 नवम्बर रविवार को और स्नान दानादि के लिये 27 नवम्बर सोमवार को मनाई जाएगी। 

श्रद्धालु भक्तगण 26 नवम्बर प्रदोषकाल मे दीपदान तथा 27 नवम्बर के दिन गंगाघाट एवं अन्य धार्मिक स्थलों पर कार्तिक स्नान पूर्ण करेंगे। ऐसी मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन अश्विनी नक्षत्र में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है इस दिन चन्द्र जब आकाश में उदित हो रहा हो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है।

मान्यता यह भी है कि इस दिन पूरे दिन व्रत रखकर रात्रि में वृषदान यानी बछड़ा दान करने से शिवपद की प्राप्ति होती है जो व्यक्ति इस दिन उपवास करके भगवान भोलेनाथ का भजन और गुणगान करता है उसे अग्निष्टोम नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है इस पूर्णिमा को शैव मत में जितनी मान्यता मिली है उतनी ही वैष्णव मत में भी।

वैष्णव मत में इस कार्तिक पूर्णिमा को बहुत अधिक मान्यता मिली है क्योंकि इस दिन ही भगवान विष्णु ने प्रलय काल में वेदों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि को बचाने के लिए मत्स्य अवतार (मतान्तर से चैत्र शुक्ल तृतीया भी) धारण किया था इस पूर्णिमा को महाकार्तिकी भी कहा गया है यदि इस पूर्णिमा के दिन भरणी नक्षत्र हो तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है अगर रोहिणी नक्षत्र हो तो इस पूर्णिमा का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है इस दिन कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और बृहस्पति हों तो यह महापूर्णिमा कहलाती है कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और विशाखा पर सूर्य हो तो “पद्मक योग” बनता है जिसमें गंगा स्नान करने से पुष्कर से भी अधिक उत्तम फल की प्राप्ति होती है। 

इसके अलावा देव दिपावली की एक और मान्याता भी है। माना जाता है कि इस दिन भगवान विष्णु चर्तुमास की निद्रा से जागते हैं और चतुर्दशी के दिन भगवान शिव और सभी देवी देवता काशी में आकर दीप जलाते हैं। इसी कारण से काशी में इस दिन दीपदान का अधिक महत्त्व माना गया है।


देवदीपावली कार्तिक पूर्णिमा विधि विधान
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कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ करने से सांसारिक पाप और ताप का शमन होता है अन्न, धन एव वस्त्र दान का बहुत महत्व बताया गया है इस दिन जो भी आप दान करते हैं उसका आपको कई गुणा लाभ मिलता है मान्यता यह भी है कि आप जो कुछ इस दिन दान करते हैं वह आपके लिए स्वर्ग में सरक्षित रहता है जो मृत्यु लोक त्यागने के बाद स्वर्ग में आपको प्राप्त होता है।

शास्त्रों में वर्णित है कि कार्तिक पुर्णिमा के दिन पवित्र नदी व सरोवर एवं धर्म स्थान में जैसे, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरूक्षेत्र, अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है महर्षि अंगिरा ने स्नान के प्रसंग में लिखा है कि यदि स्नान में कुशा और दान करते समय हाथ में जल व जप करते समय संख्या का संकल्प नहीं किया जाए तो कर्म फल की प्राप्ति नहीं होती है शास्त्र के नियमों का पालन करते हुए इस दिन स्नान करते समय पहले हाथ पैर धो लें फिर आचमन करके हाथ में कुशा लेकर स्नान करें, इसी प्रकार दान देते समय हाथ में जल लेकर दान करें आप यज्ञ और जप कर रहे हैं तो पहले संख्या का संकल्प कर लें फिर जप और यज्ञादि कर्म करें।

कार्तिक पूर्णिमा का दिन सिख सम्प्रदाय के लोगों के लिए भी काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस दिन सिख सम्प्रदाय के संस्थापक गुरू नानक देव का जन्म हुआ था सिख सम्प्रदाय को मानने वाले सुबह स्नान कर गुरूद्वारों में जाकर गुरूवाणी सुनते हैं और नानक जी के बताये रास्ते पर चलने की सौगंध लेते है।

38. कार्तिक पूर्णिमा की कथा
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पौराणिक कथा के अनुसार तारकासुर नाम का एक राक्षस था। उसके तीन पुत्र थे - तारकक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली। भगवान शिव के बड़े पुत्र कार्तिक ने तारकासुर का वध किया। अपने पिता की हत्या की खबर सुन तीनों पुत्र बहुत दुखी हुए। तीनों ने मिलकर ब्रह्माजी से वरदान मांगने के लिए घोर तपस्या की। ब्रह्मजी तीनों की तपस्या से प्रसन्न हुए और बोले कि मांगों क्या वरदान मांगना चाहते हो। तीनों ने ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्माजी ने उन्हें इसके अलावा कोई दूसरा वरदान मांगने को कहा। 

तीनों ने मिलकर फिर सोचा और इस बार ब्रह्माजी से तीन अलग नगरों का निर्माण करवाने के लिए कहा, जिसमें सभी बैठकर सारी पृथ्वी और आकाश में घूमा जा सके। एक हज़ार साल बाद जब हम मिलें और हम तीनों के नगर मिलकर एक हो जाएं, और जो देवता तीनों नगरों को एक ही बाण से नष्ट करने की क्षमता रखता हो, वही हमारी मृत्यु का कारण हो। ब्रह्माजी ने उन्हें ये वरदान दे दिया।

तीनों वरदान पाकर बहुत खुश हुए। ब्रह्माजी के कहने पर मयदानव ने उनके लिए तीन नगरों का निर्माण किया। तारकक्ष के लिए सोने का, कमला के लिए चांदी का और विद्युन्माली के लिए लोहे का नगर बनाया गया। तीनों ने मिलकर तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया। इंद्र देवता इन तीनों राक्षसों से भयभीत हुए और भगवान शंकर की शरण में गए। इंद्र की बात सुन भगवान शिव ने इन दानवों का नाश करने के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया। 

इस दिव्य रथ की हर एक चीज़ देवताओं से बनीं। चंद्रमा और सूर्य से पहिए बने। इंद्र, वरुण, यम और कुबेर रथ के चाल घोड़े बनें। हिमालय धनुष बने और शेषनाग प्रत्यंचा बनें। भगवान शिव खुद बाण बनें और बाण की नोक बने अग्निदेव। इस दिव्य रथ पर सवार हुए खुद भगवान शिव। भगवानों से बनें इस रथ और तीनों भाइयों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। जैसे ही ये तीनों रथ एक सीध में आए, भगवान शिव ने बाण छोड़ तीनों का नाश कर दिया। इसी वध के बाद भगवान शिव को त्रिपुरारी कहा जाने लगा। यह वध कार्तिक मास की पूर्णिमा को हुआ, इसीलिए इस दिन को त्रिपुरी पूर्णिमा नाम से भी जाना जाने लगा।

कार्तिक पूर्णिमा और कपाल मोचन तीर्थ का संबंध
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कपाल मोचन, भारत के पवित्र स्थलों में से एक है। हरियाणा प्रान्त के यमुनानगर ज़िले में स्थित इस तीर्थ के बारे में मान्यता है कि कपाल मोचन स्थित सोम सरोवर में स्नान करने से भगवान शिव ब्रह्मादोष से मुक्त हुए थे। वहीं इस मेले को लेकर यहऐसी मिथ्या भी बनी हुई है कि कोई भी विधायक या फिर मंत्री कपालमोचन में मेले के दौरान आता है तो वह दोबारा चुनाव में नहीं जीतता और न ही सत्ता में आता है। डुबकी लगाकर भगवान शिव हुए थे श्राप मुक्त स्कंद महापुराण के अनुसार कलयुग के प्रभाव से ब्रह्मा अपनी पुत्री सरस्वती के प्रति मन में बुरे विचार रखने लगे। इससे बचने के लिए सरस्वती ने द्वैतवन में भगवान शंकर से शरण मांगी। सरस्वती की रक्षा के लिए भगवान शंकर ने ब्रह्मा का सिर काट दिया, जिससे उन्हें ब्रह्मा हत्या का पाप लगा। इससे शंकर भगवान के हाथ में ब्रह्मा कपाली का निशान बन गया। सब तीर्थों में स्नान और दान करने के बाद भी वह ब्रह्मा कपाली का चिन्ह दूर नहीं हुआ। घूमते-घूमते भोलेनाथ पार्वती सहित सोमसर (कपाल मोचन) तालाब के निकट देव शर्मा नामक एक ब्राह्मण के घर ठहरे। किवदंती के अनुसार रात के समय ब्राह्मण देव शर्मा के आश्रम में गाय का बछड़ा गौ माता से बात कर रहा था कि सुबह ब्राह्मण उसे बधिया करेगा। इससे क्रोधित बछड़े ने कहा कि वह ब्राह्मण की हत्या कर देगा। इस पर गौ माता ने बछड़े को ऐसा करने से मना कर दिया, क्योंकि बछड़े को ब्रह्मा हत्या का पाप लग जाता। इस पर बछड़े ने गौ माता को ब्रह्मा हत्या दोष से छुटकारा पाने का उपाय बताया। दोष मुक्त होने के उपाय मां पार्वती ने भी सुने। दूसरे ही दिन सुबह होने पर ब्राह्मण ने बछड़े को बधिया करने का कार्य शुरू किया और बछड़े ने ब्राह्मण की हत्या कर दी, जिससे उसे ब्रह्मा हत्या का पाप लग गया। बछड़े और गाय का रंग काला हो गया। इससे गौ माता बहुत दुखी हुई। इस पर बछड़े ने गौ माता को अपने पीछे आने को कहा और दोनों सोमसर तालाब में स्नान किया, जिससे उनका रंग पुन: सफेद हो गया। इस प्रकार वे ब्रह्म दोष से मुक्त हो गए। इस सारे दृश्य को देखने के बाद मां पार्वती के कहने पर भगवान शंकर ने सरोवर में स्नान किया। इससे उनका बह्मा कपाली दोष दूर हो गया। इसलिए सोम सरोवर के इस क्षेत्र का नाम कपाल मोचन हो गया।

पूर्णिमा तिथि आरंभ:👉 26 नवंबर दोपहर 03 बजकर 51 मिनट से।

पूर्णिमा तिथि समाप्‍त:👉 27 नवंबर दोपहर 02 बजकर 45 मिनट तक। 

देव दीपावली प्रदोष काल शुभ मुहूर्त👉 

26 नवम्बर रविवार को शाम 05:07 से 07:45 तक रहेगा।

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39.  *गौ सेवा का फल





आज से लगभग 8 हजार वर्ष पूर्व त्रेता युग में *अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट महाराज दिलीप* के कोई संतान नहीं थी। एक बार वे अपनी पत्नी के साथ गुरु वसिष्ठ के आश्रम गए। गुरु वसिष्ठ ने उनके अचानक आने का प्रयोजन पूछा। तब राजा दिलीप ने उन्हें अपने  पुत्र पाने की इच्छा व्यक्त की और पुत्र पाने के लिए महर्षि से प्रार्थना की।

महर्षि ने ध्यान करके राजा के निःसंतान होने का कारण जान लिया। उन्होंने राजा दिलीप से कहा – “राजन! आप देवराज इन्द्र से मिलकर जब स्वर्ग से पृथ्वी पर आ रहे थे तो आपने रास्ते में खड़ी कामधेनु को प्रणाम नहीं किया। शीघ्रता में होने के कारण आपने कामधेनु को देखा ही नहीं, कामधेनु ने आपको शाप दे दिया कि आपको उनकी संतान की सेवा किये बिना आपको पुत्र नहीं होगा।”

महाराज दिलीप बोले – “गुरुदेव! सभी गायें कामधेनु की संतान हैं। गौ सेवा तो बड़े पुण्य का काम है, मैं गायों की सेवा जरुर करूँगा।”

गुरु वसिष्ठ ने कहा – राजन! मेरे आश्रम में जो नंदिनी नाम की गाय है, वह कामधेनु की पुत्री है। आप उसी की सेवा करें।”

महाराज दिलीप सबेरे ही नंदिनी के पीछे- पीछे वन में गए, वह जब खड़ी होती तो राजा दिलीप भी खड़े रहते, वह चलती तो उसके पीछे चलते, उसके बैठने पर ही बैठते और उसके जल पीने पर ही जल पीते। संध्या के समय जब नंदिनी आश्रम को लौटती तो उसके ही साथ लौट आते। महारानी सुदाक्षिणा उस गौ की सुबह शाम पूजा करती थीं। इस तरह से महाराज दिलीप ने लगातार एक महीने तक नंदिनी की सेवा की।

सेवा करते हुये एक महीना पूरा हो रहा था, उस दिन महाराज वन में कुछ सुन्दर पुष्पों को देखने लगे और इतने में नंदिनी आगे चली गयी। दो – चार क्षण में ही उस गाय के रंभाने की बड़ी करूँ ध्वनि सुनाई पड़ी। महाराज जब दौड़कर वहां पहुंचे तो देखते हैं कि उस झरने के पास एक विशालकाय शेर उस सुन्दर गाय को दबोचे बैठा है शेरकर मारकर गाय को छुडाने के लिए राजा दिलीप ने धनुष उठाया और तरकश से बाण निकालने लगे तो उनका हाथ तरकश से ही चिपक गया। आश्चर्य में पड़े राजा दिलीप से उस विशाल शेर ने मनुष्य की आवाज में कहा – “राजन! मैं कोई साधारण शेर नहीं हूँ। मैं भगवान शिव का सेवक हूँ। अब आप लौट जाइए। मैं भूखा हूँ। मैं इसे खाकर अपनी भूख मिटाऊंगा।”

महाराज दिलीप बड़ी नम्रता से बोले  – ” आप भगवान शिव के सेवक हैं, इसलिए मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आपने जब कृपा करके अपना परिचय दिया है तो आप इतनी कृपा और कीजिये कि आप इस गौ को छोड़ दीजिये और अगर आपको अपनी क्षुधा ही मिटानी है तो मुझे अपना ग्रास बना लीजिये।”

उस शेर ने महाराज को बहुत समझाया, लेकिन राजा दिलीप नहीं माने और अंततः अपने दोनों हाथ जोड़कर शेर के समीप यह सोच कर नतमस्तक हो गए कि शेर उनको अभी कुछ ही क्षणों में अपना ग्रास बना लेगा।

तभी नंदिनी ने मनुष्य की आवाज में कहा – ” महाराज! आप उठ जाइए। यहं कोई शेर नहीं है। सब मेरी माया थी। मैं तो आपकी परीक्षा ले रही थी। मैं आपकी सेवा से अति प्रसन्न हूँ।”

इस घटना के कुछ महीनो बाद रानी गर्भवती हुई और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। उनके *पुत्र का नाम रघु* था। महाराज रघु के नाम पर ही रघुवंश की स्थापना हुई। कई पीढ़ियों के बाद इसी कुल में *भगवान श्री राम* का अवतार हुआ।
     


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40. *रहस्य धनुष के टूटने का*





महाराजा जनक की सभा में दूर-दूर से आये राजा महाराजाओं से शिवजी के धनुष को तोड़ना तो क्या उठा भी नहीं पाए थे ! जब कोई उस धनुष को नहीं तोड़ पाया तो "ब्रम्हा ऋषि" की आज्ञा के अनुसार श्री राम जी ने धनुष तोड़ने का संकल्प लिया और धनुष तोड़ने के लिए आगे बढे और जब धनुष के पास श्री राम जी पहुंचे तो उन्होंने सबसे पहले धनुष के चारो और गोल परिक्रमा की और सभी देवो के साथ महादेव भोलेनाथ शिव की आराधना की।

 हाथ जोड़कर जैसे ही उन्होंने धनुष को हाथ से छुआ उस समय पूरी सभा श्री राम को एक टक लगाकर देख रही थी और सभी राजा ये सोचने लगे की जो काम हम दोंनो हाथ से नहीं कर पाए वो हमसे कम उम्र के बालक ने एक हाथ से इस धनुष को अपने एक हाथ से उठा दिया!

तभी श्री राम जी को लक्ष्मण जी कहते है कि भईया इस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा कर इसे तोड़ दें। मगर श्री राम को एक बात ज्ञात थी कि ये धनुष भगवान भोले नाथ जी का है, और अगर उन्होंने ये धनुष तोड़ा तो पूरी पृथ्वी काँप उठेगी।

 यही बात को ध्यान में रखते हुए श्री राम जी ने लक्ष्मण जी को 'मन से इस बात की अनुभूति कराई' कि आप इस पृथ्वी का भार उठाते है, ( लक्ष्मण जी शेषनाग के अवतार थे जो पृथ्वी का भर उठाते है ) और हम इस धनुष को तोड़ेंगे तो पृथ्वी काँप उठेगी।
आप इस पृथ्वी के भार वाहक है तो आपको इसकी जिम्मेदारी के साथ पृथ्वी को कस के पकड़ने रहना होगा।

 इसी बात को जब राम जी ने लक्ष्मण जी को बताया तो लक्ष्मण जी अपने स्थान पर खड़े हो गए और अपने पाँव के अंगूठे से पृथ्वी को दबा दिया और श्री राम को सुनिश्चित किया कि भगवन में तैयार हूँ आप अब इस धनुष को तोड़ दीजिये।

श्री राम जी ने ये बात जैसे ही सुनी उन्होंने धनुष पर उसी समय प्रत्यंचा चढाई और धनुष को एक झटके में ही तौड दिया!

मगर रोचक बात यह है कि भगवान की लीला कुछ और थी। अभी भी उस सभा में कुछ और लीला होनी थी। धनुष को तोड़ने के बाद श्री राम और माता जगत जननी सीता माता की वरमाला के साथ स्वयंवर पूरा हुआ।

 मगर देखते ही देखते वहाँ भगवान श्री परशुराम जी आ गए और पूरी सभा में सभी लोग भय और डर के मारे सहम से गए। 

जैसे ही भगवन परशुराम ने पूरी सभा में अपना पहला शब्द कहाँ कि कौन है वो दुष्ट पापी जिसने भगवान शिव का धनुष तोड़ने की धृष्ठता की है।

यह देखकर राजा जनक भी डर गए और उनके पास जाकर उनका आदर सत्कार करते हुए उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और विनम्रता से परशुराम भगवान से कहा की आज मेरी बेटी का स्वयंवर का आयोजन किया गया है, और भगवान शिव के धनुष को तोड़ने वाले व्यक्ति से मेरी पुत्री सीता का विवाह सम्पन्न किया गया।

 यह सुनकर परशुराम जी का गुस्सा तो जैसे सातवें आसमान पर चले गया, और उन्होंने राजा जनक को आदेश दिया कि उस पापी को मेरे सामने उपस्थित करो। तब श्री राम जी अपने गुरु ब्रम्हा ऋषि की आज्ञा से परशुराम जी के सामने प्रस्तुत हुए और हाथ जोड़कर कहाँ कि आपका अपराधी आपके सामने है। 
राम के विनय और विश्वामित्र के समझाने पर तथा राम की शक्ति की परीक्षा लेकर अंतत: उनका गुस्सा शांत होता है।



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41. 🐦🦜 *चिड़ा-चिड़ी की कहानी* 🐦🦜

इस कहानी को कार्तिक माह की पूर्णिमा से अगले दिन प्रतिपदा (पड़वा) को पढ़ते हैं

एक बार की बात है चार चिड़िया थी. वह चारों ही कार्तिक का स्नान करती थी. पड़वा (प्रतिपदा) के दिन उन्होंने सोचा कि खिचड़ी बनाते हैं. सभी ने मिलकर घी, चावल तथा दाल का जुगाड़ किया और खिचड़ी बनाई. सबने सोचा कि पहले नहाकर आते हैं फिर खिचड़ी खाएंगे. पहले एक चिड़िया नहाकर आ गई बाकी नहीं आई. उसे भूख लगी थी तो उसने खिचड़ी की भाप खा ली. दूसरी चिड़िया आई तो उसे भी भूख लगी थी उसने खिचड़ी का पानी पी लिया. तीसरी ने खिचड़ी खा ली तो चौथी ने खिचड़ी की खुरचन खा ली. खाने के बाद चारों मर गई.

जिस चिड़िया ने भाप खाई थी वह राजा के घर राजकुमारी के रुप में पैदा हुई. जिस चिड़िया ने खिचड़ी का पानी पीया था वह कुम्हार के घर पैदा हुई. जिसने खिचड़ी खाई वह ब्राह्मण के घर जन्म लेती है और जिसने खुरचन खाई वह हथिनी के रुप में जन्म लेती है. कुम्हार की लड़की राजा के यहाँ दासी बन गई. ब्राह्मण की लड़की राजकुमारी की सहेली बनी. हथिनी भी राजा के यहाँ आ गई. राजकुमारी बनी चिड़िया को पिछले जन्म की सभी बातें याद थी.

राजकुमारी का विवाह हुआ तो उसने राजा से कहा कि मैं अपने साथ इस दासी और अपनी सहेली को भी ससुराल ले जाऊँगी तो राजा ने कहा ठीक है ले जाना. राजकुमारी फिर भी नही गई तो राजा ने पूछा तब उसने कहा कि मेरे साथ इस हथिनी को भी भेज दो लेकिन हथिनी जाने को उठी ही नही तब राजकुमारी उसके कान में पिछले जन्म की सारी बातें कह देती है जिसे सुनकर हथिनी अब उठ जाती है.

राजा यह सब देख रहा था और उसने तलवार निकालकर राजकुमारी से कहा कि सच बता तू कौन है? नही तो मैं तेरा सिर काट दूंगा. राजकुमारी ने राजा को सभी बातें सच बता दी. पिछले जन्म की सभी बातें सुनकर राजा बोला कि यदि कार्तिक स्नान का इतना महत्व है तब हम भी जोड़े से कार्तिक नहाकर दान-पुण्य करेगें.

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 ((((((( जय जय श्री राधे )))))))

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42. *एक कदम कृष्ण की ओर*




एक बार यशोदा माँ यमुना मे दीप दान कर रही थी, वो पत्ते में दीप रखकर प्रवाह कर रही थी। वो देख रही थी कोई दीप आगे नही जा रहा।
ध्यान से देखा तो कान्हा जी एक लकड़ी लेकर जल से सारे दीप बाहर निकाल रहे थे, तो माँ कहती है- क्या कर रहे हो, लल्ला?

कान्हा कहते हैं -  माँ, ये सब डूब रहे थे तो मै इन्हें बचा रहा हूँ।

माँ ये सब सुनकर हँसने लगी और बोली - लल्ला, तू  किस-किस को बचायेगा?

ये सुनकर कान्हा जी ने बहुत सुन्दर जवाब दिया-
"माँ, मैंने सब को थोड़ी बचाना है।
जो मेरी ओर आएंगे , सिर्फ उनको ही बचाऊंगा।"



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43.  क्यों है ज़रूरी भजन कीर्तन करते हुए हाथ उठाकर ताली बजाना?
हम मंदिरों में अक्सर ही यह देखते है कि जब भी आरती अथवा कीर्तन होता है तो, उसमें सभी लोग हाथ उठाकर तालियां बजाते है। लेकिन, हम में से अधिकाँश लोगों को यह नहीं मालूम होता है कि आखिर यह तालियां बजाई क्यों जाती है। हम से अधिकाँश लोग बिना कुछ जाने-समझे ही तालियां बजाया करते हैं क्योंकि, हम अपने बचपन से ही अपने बड़ों को ऐसा करते देखते रहे हैं। आपको यह जानकार काफी हैरानी होगी कि आरती अथवा कीर्तन में ताली बजाने की प्रथा बहुत पुरानी है और, श्रीमद्भागवत के अनुसार कीर्तन में ताली बजाने की प्रथा भक्त प्रह्लाद जी ने शुरू की थी, क्योंकि, जब वे भगवान का भजन करते या नाम संकीर्तन भी करते थे तो साथ-साथ ताली भी बजाते रहते थे।

एक बच्चा अपनी माँ को देख कर रोने लगता है, हाथ ऊपर उठा कर तड़पता है, मचलता है  कहना चाहता है- मुझे गोद में उठा लो। अपने सीने से लगा लो। ठीक वैसे ही एक भक्त कहना चाहता है: हे भगवान! हे गोविंद! हे कृष्ण! मेरा हाथ पकड़ लो और मुझे इस भवसागर से पार लगा दो। मुझे इन चरणों से लगा लो!

हमारी आध्यात्मिक मान्यता के अनुसार कहा जाता है कि जिस प्रकार व्यक्ति अपने बगल में कोई वस्तु छिपा ले और, यदि दोनों हाथ ऊपर करे तो वह वस्तु नीचे गिर जायेगी ठीक उसी प्रकार जब हम दोनों हाथ ऊपर उठकर ताली बजाते है तो, जन्मो से संचित पाप जो हमने स्वयं अपने बगल में दबा रखे है, नीचे गिर जाते हैं अर्थात नष्ट होने लगते है। कहा तो यहाँ तक जाता है कि संकीर्तन (कीर्तन के समय हाथ ऊपर उठाना और ताली बजाना) में काफी शक्ति होती है और, हरिनाम संकीर्तन से हमारे हाथो की रेखाएं तक बदल जाती है। इस बात से संबंधित एक पौराणिक कथा महाभारत काल में भी मिलती है।

द्रौपदी चीर हरण की कथा बड़ी ही मार्मिक औऱ दिल को दहला देने वाली है। महाराज युधिष्ठिर जुए में अपना सारा राज पाठ, धन, इन्द्रप्रस्त, अपने सारे भाई, औऱ खुद को भी हार चुके थे। अंत में द्रौपदी को दांव पर लगाया औऱ द्रौपदी को भी शकुनि ने कुनीति से जीत लिया। अब द्रौपदी को दुर्योधन दासी कहने लगा। दुर्योधन बोला – दु:शासन! तुम जाओ और द्रौपदी को सभा में खींचकर लाओ। दु:शासन द्रौपदी के पास गया और उस बेचारी आर्त अबला को अनाथ की भाँति बालों से पकड़कर घसीटता हुआ सभा में ले आया। द्रौपदी ने देखा सभा में बैठे हुए सभी कुरूवंशी चुपचाप देख रहे हैं। 


द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म, महात्मा विदुर तथा राजा धृतराष्ट्र में अब कोई शक्ति नहीं रह गयी है। अब दुर्योधन ने अपने भाई दु:शासन को कहा कि तुम इस दासी द्रोपदी के चीर का हरण कर लो। द्रोपदी को निर्वस्त्र कर दो। दु:शासन ने भरी सभा में द्रौपदी का वस्त्र बलपूर्वक पकड़कर खींचना शुरू कर दिया। जब वस्त्र खींचा जाने लगा, तब द्रौपदी ने अपनी पूरी क्षमता से खुद को बचाने का प्रयास किया और साथ ही श्री कृष्ण को याद किया। किन्तु कृष्ण वहां उपस्थित नहीं थे। और कोई भी महारथी उसकी सहायता के लिए आगे नहीं आ रहा था। किन्तु एक नारी कितनी देर तक एक शक्तिशाली पुरुष को रोक पाती। जब द्रौपदी ने अपना पूरा ज़ोर लगा लिया और दुः शासन को नहीं रोक पाई तो उसने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाये और कृष्ण को पुकारने लगी। अब दुः शासन उसकी साडी खींचने लगा, किन्तु द्रौपदी अपने आप को कृष्ण को समर्पित कर चुकी थी। द्रौपदी सब कुछ भुलाकर भगवान श्री कृष्ण को याद कर रही थी। द्रौपदी जी ने अपनी साड़ी का पल्लू पकड़ रखा था उसे भी छोड़ दिया। वह केवल और केवल श्री कृष्ण को याद कर रही थी।

 द्रौपदी की प्रार्थना:- 

द्रौपदी कहती हैं- ‘गोविन्द! हे द्वारकावासी श्रीकृष्ण! हे केशव! कौरव मेरा अपमान कर रहे हैं, क्या आप नहीं जानते? हे रमानाथ! हे व्रजनाथ! हे संकटनाशन जनार्दन! मैं कौरव रूप समुद्र में डूबी जा रही हूँ, मेरा उद्धार कीजिये। ’सच्च्िदानन्द स्वरूप श्री कृष्ण! महायोगिन्! विश्रमात्मन्! विश्वभावन! गोविन्द! कौरवों के बीच में कष्ट पाती हुई मुझ शरणागत अबला की रक्षा कीजियें’।

हे कृष्ण ! मेरी लाज तेरी लाज , तेरी लाज मेरी लाज !! मेरी लाज जाएगी तो , तेरी लाज जाएगी..

दु:शासन द्रौपदी की साड़ी खींचने में लगा हुआ था। लेकिन साड़ी खत्म ही नहीं होती। वो खींचता जा रहा था और साडी बढ़ती जा रही थी। द्रौपदी का चीर बढ़ता ही जा रहा था। और सभी भगवान के इस चमत्कार को देख रहे थे। दु:शासन में दस हजार हाथियों जितना बल था और द्रौपदी का चीर छोटा सा था, लेकिन भगवान का प्रेम देखिये–

दस हजार गज बल थक्यो , पर थक्यो न दस गज चीर।।

दस हजार हाथियों की ताकत हार गई और दस गज चीर(साडी) की जीत हुई। भगवान श्री कृष्ण ने द्रौपदी की भरी सभा में लाज बचा ली।

 चाहिए पूर्ण समर्पण:- 

जिस तरह द्रौपदी ने जब तक अपने आप को बचाने के लिए अपना ज़ोर लगाया तब तक भगवान् ने उनकी सहायता नहीं की। किन्तु जैसे ही द्रौपदी ने अपने आप को पूर्ण समर्पित कर के भगवान् को याद किया वो तुरंत सहायता के लिए प्रस्तुत हो गए। इसी तरह हमे भी भजन या कीर्तन करते समय अपनी परेशानियों को भूल कर, अपने दुखों को भगवान् को समर्पित कर देना चाहिए। और दोनों हाथ ऊपर उठा कर स्वयं को पूर्ण समर्पित कर देना चाहिए। पूर्ण समर्पण से ही कृष्ण को पाया जा सकता है अर्थात ईश्वर को पाया जा सकता है।




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