Chapter # 1| Daily Verse/ Shloka | Divya Gyan
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दिव्य ज्ञान (श्रीमद्भगवद्गीता के पावन पन्नों से)
भगवद्गीता का प्रकटीकरण राजा धृतराष्ट्र और उसके मंत्री संजय के बीच हुए वार्तालाप से आरम्भ होता है। चूंकि धृतराष्ट्र नेत्रहीन था इसलिए वह व्यक्तिगत रूप से युद्ध में उपस्थित नहीं हो सका। अत: संजय उसे युद्धभूमि पर घट रही घटनाओं का पूर्ण सजीव विवरण सुना रहा था। संजय महाभारत के प्रख्यात रचयिता वेदव्यास का शिष्य था। ऋषि वेदव्यास ऐसी चमत्कारिक शक्ति से संपन्न थे जिससे वह दूर-दूर तक घट रही घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से देखने में समर्थ थे। अपने गुरु की अनुकंपा से संजय ने भी दूरदृष्टि की दिव्य चमत्कारिक शक्ति प्राप्त की थी। इस प्रकार से वह युद्ध भूमि में घटित सभी घटनाओं को दूर से देख सका।
Chapter # 1: अर्जुन विषाद योग
(47/ 47 श्लोक)
Daily Verse # 1
Chapter # 1, Verse 1
28 November 2023
इस श्लोक में धृतराष्ट्र ने संजय से यह प्रश्न पूछा कि उसके और पाण्डव पुत्रों ने युद्धभूमि में एकत्रित होने के पश्चात क्या किया?
अपने पुत्रों के प्रति अथाह मोह के कारण वह सत्यपथ से च्युत हो गया था और पाण्डवों के न्यायोचित राज्याधिकार को हड़पना चाहता था। अपने भतीजों पाण्डव पुत्रों के प्रति उसने जो अन्याय किया था, उसका उसे भलीभांति बोध था।
इसी अपराध बोध के कारण वह युद्ध के परिणाम के संबंध में चिन्तित था।
🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि अगर हम अपने कर्तव्यों एवं धर्म से विमुक्त हो कर कार्य करेंगे तो हमारा मन भी परिणाम के संबंध में चिन्तित रहेगा।
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Daily Verse  # 2
Chapter # 1, Verse 2
प्रथम श्लोक द्वारा धृतराष्ट्र इस बात की पुष्टि करना चाहता था कि क्या उसके पुत्र अब भी युद्ध करने के उत्तरदायित्व का निर्वहन करेंगे?
संजय धृतराष्ट्र के इस प्रश्न के तात्पर्य को समझ गया और उसने ऐसा कहकर कि पाण्डवों की सेना व्यूह रचना कर युद्ध करने को तैयार है, यह पुष्टि की कि युद्ध अवश्य होगा। फिर उसके पश्चात उसने वार्ता का विषय बदलते हुए यह बताया कि दुर्योधन क्या कर रहा था।
🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि निर्दयी और दुष्ट प्रवृत्ति का व्यक्ति परिणाम के बारे में सोचकर भयभीत हो जाता है और अपनी चिन्ता को कम करने के लिए गुरु का आश्वासन चाहता है।
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🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि वर्तमान की प्रस्थिति से जूझने के लिए तैयार रहना  है तो हर स्थिति को अच्छी तरह से जांच- परख लेना चाहिए।
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Daily Verse # 5
Chapter # 1, Verse 5
2 December 2023
🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें  चुनौतियों की वास्तविकता का सही अंदाजा लगाना चाहिए ताकि पूरी तैयारी के साथ हर चुनौती का सामना कर सकें ।
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Daily Verse # 6
Chapter # 1, Verse 6
3 December 2023
दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना जो कि असाधारण महापराक्रमी योद्धाओं (युधमन्यु, शूरवीर, उत्तमौजा, सुभद्रा और द्रोपदी के पुत्रों ) का उल्लेख भी किया जो अर्जुन और भीम के समान बलशाली महान सेना नायक थे जिन्हें युद्ध में पराजित करना कठिन होगा।
🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि अगर हम चुनौतियों की वास्तविकता का सही अंदाजा लगा लेते हैं तो हर चुनौती का सामना करने की हिम्मत कर सकते हैं।
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Daily Verse # 7
Chapter # 1, Verse 7
4 December 2023
इस श्लोक में दुर्योधनका ऐसा भाव प्रतीत होता है कि हमारा पक्ष किसी भी तरह कमजोर नहीं है। परन्तु राजनीतिके अनुसार शत्रुपक्ष चाहे कितना ही कमजोर हो और अपना
पक्ष चाहे कितना ही सबल हो, ऐसी अवस्थामें भी शत्रुपक्षको कमजोर नहीं समझना चाहिये और अपनेमें उपेक्षा, उदासीनता आदिकी भावना किञ्चिन्मात्र भी नहीं आने देनी चाहिये। इसलिये सावधानीके लिये मैंने उनकी सेना की बात कही और अब अपनी सेना की बात कहता हूँ।
दूसरा भाव यह है कि पाण्डवों की सेनाको देखकर दुर्योधन पर बड़ा प्रभाव पड़ा और उसके मन में कुछ भय भी हुआ। कारण कि संख्या में कम होते हुए भी पाण्डव-सेना के पक्षमें बहुत-से धर्मात्मा पुरुष थे और स्वयं भगवान् थे।
🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि जिस पक्ष में धर्म और भगवान् रहते हैं, उसका सब पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। पापी-से-पापी, दुष्ट-से-दुष्ट व्यक्ति पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। 
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Daily Verse # 8
Chapter # 1, Verse 8
5 December 2023
इस श्लोक में दुर्योधन का ऐसा भाव प्रतीत होता है कि आप और पितामह भीष्म--दोनों ही बहुत विशेष पुरुष हैं। आप दोनों के समकक्ष संसार में तीसरा कोई भी नहीं है। आप दोनों के पराक्रम की बात जगत में प्रसिद्ध है। पितामह भीष्म तो आबाल ब्रह्मचारी हैं, और इच्छामृत्यु हैं अर्थात् उनकी इच्छा के बिना उन्हें कोई मार ही नहीं सकता।
कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण तथा सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा आदि भी बहुत ही शूरवीर हैं। मुझे तो ऐसा विश्वास है कि ये अकेले ही पाण्डव-सेना पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।
🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें विजय प्राप्त करने के लिए अपने पक्ष की प्राप्तियों को नज़रंदाज नहीं करना चाहिए।
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Daily Verse # 9
Chapter # 1, Verse 9
6 December 2023
इस श्लोक में दुर्योधन का ऐसा भाव है कि सभी योद्धा हाथ में रखकर प्रहार करने वाले तलवार, गदा, त्रिशूल आदि नाना प्रकारके शस्त्रों की कला में निपुण हैं और हाथ से फेंककर प्रहार करने वाले बाण, तोमर, शक्ति आदि अस्त्रों की कला में भी निपुण हैं। युद्ध कैसे करना चाहिये; किस तरह से, किस पैंतरेसे और किस युक्तिसे युद्ध करना चाहिये; सेना को किस तरह खड़ी करनी चाहिये आदि युद्ध की कलाओं में भी ये बड़े निपुण हैं, कुशल हैं।
🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें चुनौतियों का सामना बहुत कुशलता, निपुणता से करना चाहिए।
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Daily Verse # 10
Chapter # 1, Verse 10
December 7, 2023
Daily Verse # 11
Chapter # 1, Verse 11
 December 8, 2023
दुर्योधन यह समझ गया था कि भीष्म पितामह मानसिक रूप से पाण्डवों के विरूद्ध आक्रान्त होकर युद्ध लड़ने को इच्छुक नही हैं जिसके कारण वे सैनिकों को वीरता और उत्साह से युद्ध करने के लिए प्रेरित नही करेंगे। इसलिए उसने अपनी सेना के अन्य सेना नायकों से अपनी-अपनी स्थिति पर अडिग रहने के साथ-साथ चारों ओर से भीष्म पितामह की सुरक्षा का भी ध्यान रखने को कहा।
🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें अपनी स्थिति पर अडिग रहने के साथ-साथ दूसरों की सुरक्षा का भी ध्यान  भी रखना चाहिए।
December 8, 2023
दुर्योधन यह समझ गया था कि भीष्म पितामह मानसिक रूप से पाण्डवों के विरूद्ध आक्रान्त होकर युद्ध लड़ने को इच्छुक नही हैं जिसके कारण वे सैनिकों को वीरता और उत्साह से युद्ध करने के लिए प्रेरित नही करेंगे। इसलिए उसने अपनी सेना के अन्य सेना नायकों से अपनी-अपनी स्थिति पर अडिग रहने के साथ-साथ चारों ओर से भीष्म पितामह की सुरक्षा का भी ध्यान रखने को कहा।
🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें अपनी स्थिति पर अडिग रहने के साथ-साथ दूसरों की सुरक्षा का भी ध्यान भी रखना चाहिए।
Daily Verse # 12
Chapter # 1, Verse 12
 December 9, 2023
December 9, 2023
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🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें पूरी तैयारी, हौंसले और उत्साह के साथ हर चुनौती का सामना करना चाहिए ।
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Daily Verse # 14
Chapter # 1, Verse 14
 December 11, 2023
कौरवों की सेना के शंख नाद की ध्वनि धीमी पड़ने के पश्चात भव्य रथ पर आसीन भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने निर्भीकता से पूरी शक्ति के साथ शंख नाद करते हुए उसी प्रकार से पाण्डवों द्वारा वीरता से युद्ध लड़ने की उत्कंठा प्रकट की। संजय ने माधव शब्द का प्रयोग श्रीकृष्ण के लिए किया। 'मा' का अर्थ भाग्य के देवता से है और 'धव' का अर्थ पति से है। भगवान श्रीकृष्ण विष्णु के रूप में भाग्य की देवी लक्ष्मी के पति है। यह श्लोक दर्शाता है कि भाग्य की देवी की अनुकंपा पाण्डवों पर थी और वे शीघ्र युद्ध में विजय प्राप्त कर अपना छीना गया साम्राज्य प्राप्त कर लेंगे। पाण्डवों से तात्पर्य पाण्डु के पुत्रों से है। पाँच भाइयों में किसी भी भाई को पाण्डव कहकर संबोधित किया जाता है। यहाँ पर पाण्डव शब्द अर्जुन के लिए प्रयुक्त हुआ है। जिस भव्य रथ पर वह आसीन था वह उसे अग्नि देवता ने उपहार स्वरूप भेंट किया था।
चित्ररथ गन्धर्व ने अर्जुन को सौ दिव्य घोड़े दिये थे। इन घोड़ों में यह विशेषता थी कि इनमें से युद्ध में कितने ही घोड़े क्यों न मारे जायँ, पर ये संख्या में सौ-के-सौ ही बने रहते थे, कम नहीं होते थे। ये पृथ्वी, स्वर्ग आदि सभी स्थानों में जा सकते थे। इन्हीं सौ घोड़ों में से सुन्दर और सुशिक्षित चार सफेद घोड़े अर्जुन के रथ में जुते हुए थे।
🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि जिस भक्त के साथ साक्षात् भगवान् श्री कृष्ण हों, उसकी शोभा और तेज बहुत ज्यादा बढ़ जाता है ।
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Daily Verse # 15
Chapter # 1, Verse 15
 December 12, 2023
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Daily Verse # 16
Chapter # 1, Verse 16
 December 13, 2023
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Daily Verse # 17
Chapter # 1, Verse 17
 December 14, 2023
महारथी शिखण्डी बहुत शूरवीर था। यह पहले जन्म में स्त्री (काशिराज की कन्या अम्बा) था और इस जन्म में भी राजा द्रुपद को पुत्री रूप से प्राप्त हुआ था। आगे चलकर यही शिखण्डी स्थूणाकर्ण नामक यक्ष से पुरुषत्व प्राप्त करके पुरुष बना। भीष्मजी इन सब बातों को जानते थे और शिखण्डी को स्त्री ही समझते थे। इस कारण वे इस पर बाण नहीं चलाते थे। अर्जुन ने युद्ध के समय इसी को आगे करके भीष्म जीपर बाण चलाये और उनको रथ से नीचे गिरा दिया।
🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें सहयोग, साहस और उत्साह से अपने कार्य को करना चाहिए। (शंख साहस और उत्साह का प्रतीक है।)  
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Daily Verse # 18
Chapter # 1, Verse 18
 December 15, 2023
सञ्जय ने शंखवादन के वर्णन में कौरव सेना के शूरवीरों में से केवल भीष्म जी का ही नाम लिया और पाण्डव सेना के शूरवीरों में से भगवान् श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीम आदि अठारह वीरों के नाम लिये। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि सञ्जय के मन में अधर्म के पक्ष-(कौरवसेना-) का आदर नहीं है। इसलिये वे अधर्म के पक्ष का अधिक वर्णन करना उचित नहीं समझते। परन्तु उनके मन में धर्म के पक्ष-(पाण्डवसेना-) का आदर होने से और भगवान् श्रीकृष्ण तथा पाण्डवोंके प्रति आदरभाव होने से वे उनके पक्ष का ही अधिक वर्णन करना उचित समझते हैं और उनके पक्ष का वर्णन करने में ही उनको आनन्द आ रहा है।
सम्बन्ध--पाण्डवसेना के शंखवादन का कौरव सेना पर क्या असर हुआ--इसको आगे के श्लोक में कहते हैं।
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Daily Verse # 19
Chapter # 1, Verse 19
 December 16, 2023
पाण्डव सेना द्वारा बजाए गए विविध प्रकार के शंखों से उत्पन्न भयंकर ध्वनि से कौरव सेना के सैनिकों के हृदय विदीर्ण हो गये जबकि कौरवों की सेना ने जब शंखनाद किया था तब पाण्डवों की सेना पर इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव नही पड़ा क्योंकि पाण्डवों को भगवान श्रीकृष्ण का आश्रय प्राप्त था। इसलिए उन्हें अपनी सुरक्षा का पूरा भरोसा था। दूसरी ओर कौरवों को केवल अपनी स्वयं की शक्ति और सामर्थ्य पर भरोसा था और अपने अत्याचारों के अपराध बोध की कसक से उनके भीतर पराजित होने का भय व्याप्त हो गया था।
🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि जिनके हृदय में अधर्म, पाप, अन्याय नहीं है अर्थात् जो धर्मपूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करते हैं, उनका हृदय मजबूत होता है, उनके हृदय में भय नहीं होता। न्याय का पक्ष होने से उनमें उत्साह होता है ,शूरवीरता होती है।
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Daily Verse # 20
Chapter # 1, Verse 20
 December 17, 2023
इस श्लोक में अर्जुन के रथ को कपि-ध्वज कह कर संबोधित किया गया है क्योंकि उसके रथ पर महावीर हनुमान के चिन्ह की ध्वजा प्रदर्शित हो रही थी। इसकी पृष्ठभूमि में एक कथा इस प्रकार है। अर्जुन को एक बार अपनी धनुर्विद्या पर घमण्ड हो गया था और उसने श्रीकृष्ण से कहा कि भगवान श्रीराम के समय वानरों ने भारत से लंका के बीच समुद्र में सेतु बनाने में व्यर्थ ही इतना परिश्रम क्यों किया? यदि वह वहाँ उपस्थित होता तो वह बाणों से सेतु का निर्माण कर देता। श्रीकृष्ण ने उसे इसका प्रदर्शन करने को कहा। अर्जुन ने अपने धनुष से चलाये गये बाणों की बौछार से एक सेतु का निर्माण कर दिया। श्रीकृष्ण ने वीर हनुमान को बुलाया और उन्हें उस सेतु का परीक्षण करने को कहा। जब वीर हनुमान ने उस सेतु पर चलना आरंभ किया तो वह टूटने लगा। तब अर्जुन ने अनुभव किया कि उसके बाणों द्वारा बनाया गया सेतु कभी भी भगवान श्रीराम की सेना के भार को सहने के लिए उपयुक्त नहीं होता और उसने अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी। तब वीर हनुमान ने अर्जुन को शिक्षा दी कि कभी भी अपने बल और कौशल का घमंड नहीं करना चाहिए। उन्होंने अपनी इच्छा से अर्जुन को यह वरदान दिया कि महाभारत के युद्ध के दौरान वह उसके रथ पर आसीन रहेंगे। इसलिए अर्जुन के रथ पर हनुमान के चित्र से अंकित ध्वजा लगाई गई थी जिसके कारण उसका नाम 'कपि-ध्वज' या 'वानर-ध्वज' पड़ गया।
🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि जहां हनुमान जी होते हैं, वहां विजय होती है। कपि-ध्वज इस बात का प्रतीक है कि हनुमान जी युद्ध दौरान अर्जुन के रथ पर आसीन थे।
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Daily Verse # 21
Chapter # 1, Verse 21
 December 18, 2023
दोनों सेनाएँ जहाँ युद्ध करने के लिये एक-दूसरे के सामने खड़ी थीं, वहाँ उन दोनों सेनाओं में इतनी दूरी थी कि एक सेना दूसरी सेना पर बाण आदि मार सके। उन दोनों सेनाओं का मध्यभाग दो तरफसे मध्य था-- (1) सेनाएँ जितनी चौड़ी खड़ी थीं, उस चौड़ाई का मध्यभाग और (2) दोनों सेनाओं का मध्यभाग, जहाँ से कौरव-सेना जितनी दूरी पर खड़ी थी, उतनी ही दूरी पर पाण्डव-सेना खड़ी थी। ऐसे मध्यभाग में रथ खड़ा करने के लिये अर्जुन भगवान से कहते हैं, जिससे दोनों सेनाओं को आसानी से देखा जा सके।
अर्जुन की श्रद्धा और भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध में उसके रथ के सारथी बने जबकि अर्जुन यात्री के रूप में उस रथ के आसन पर सुविधापूर्वक बैठे हुए श्रीकृष्ण को निर्देश देता रहा।
हम जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, हमें श्री कृष्ण के कई नाम सुनने को मिलेंगे। तो ‘केशव’, ‘ऋषिकेश’ और अभी यहाँ पर कहा ‘अच्युत’; अच्युत माने जो बटा हुआ नहीं है, खंडित नहीं है। नामों की बड़ी महत्ता है और नाम यूँ ही नहीं होते।
🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि 
- श्रद्धा और भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान भक्त के सारथी भी बन जाते हैं और निर्देश का पालन भी करते हैं। 
 - जीवन में आ रही हर चुनौती एवं प्रस्थिति का नजदीक से अध्ययन करना चाहिए। तभी हम सही निर्णय लेने में समर्थ हो सकते हैं।
 
दोनों सेनाएँ जहाँ युद्ध करने के लिये एक-दूसरे के सामने खड़ी थीं, वहाँ उन दोनों सेनाओं में इतनी दूरी थी कि एक सेना दूसरी सेना पर बाण आदि मार सके। उन दोनों सेनाओं का मध्यभाग दो तरफसे मध्य था-- (1) सेनाएँ जितनी चौड़ी खड़ी थीं, उस चौड़ाई का मध्यभाग और (2) दोनों सेनाओं का मध्यभाग, जहाँ से कौरव-सेना जितनी दूरी पर खड़ी थी, उतनी ही दूरी पर पाण्डव-सेना खड़ी थी। ऐसे मध्यभाग में रथ खड़ा करने के लिये अर्जुन भगवान से कहते हैं, जिससे दोनों सेनाओं को आसानी से देखा जा सके।
अर्जुन की श्रद्धा और भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध में उसके रथ के सारथी बने जबकि अर्जुन यात्री के रूप में उस रथ के आसन पर सुविधापूर्वक बैठे हुए श्रीकृष्ण को निर्देश देता रहा।
हम जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, हमें श्री कृष्ण के कई नाम सुनने को मिलेंगे। तो ‘केशव’, ‘ऋषिकेश’ और अभी यहाँ पर कहा ‘अच्युत’; अच्युत माने जो बटा हुआ नहीं है, खंडित नहीं है। नामों की बड़ी महत्ता है और नाम यूँ ही नहीं होते।
🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि
- श्रद्धा और भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान भक्त के सारथी भी बन जाते हैं और निर्देश का पालन भी करते हैं।
 - जीवन में आ रही हर चुनौती एवं प्रस्थिति का नजदीक से अध्ययन करना चाहिए। तभी हम सही निर्णय लेने में समर्थ हो सकते हैं।
 
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Daily Verse # 22
Chapter # 1, Verse 22
 December 19, 2023
अर्जुन संपूर्ण सृष्टि के परम स्वामी भगवान श्रीकृष्ण का परम भक्त था। यद्यपि इस श्लोक में अर्जुन ने भगवान को अपनी इच्छानुसार अपेक्षित स्थान पर रथ ले जाने का निर्देश दिया है जोकि यह दर्शाता है कि भगवान अपने प्रिय भक्तों से अगाध प्रेम करते हैं। भक्त के प्रति अपने निश्छल प्रेम के कारण भगवान उनके ऋणी हो जाते हैं।
अर्जुन कहते हैं कि युद्धकी इच्छाको लेकर कौरव-सेनामें आये हुए सेनासहित जितने भी राजालोग खड़े हैं, उन सबको जबतक मैं देख न लूँ, तबतक आप रथको वहीं खड़ा रखिये। इस युद्धके उद्योगमें मुझे किन-किनके साथ युद्ध करना है? उनमें कौन मेरे समान बलवाले हैं? कौन मेरे से कम बलवाले हैं? और कौन मेरेसे अधिक बलवाले हैं? उन सबको मैं जरा देख लूँ।
यहाँ  'योद्धुकामान्'  पदसे अर्जुन कह रहे हैं कि हमने तो सन्धिकी बात ही सोची थी, पर उन्होंने सन्धिकी बात स्वीकार नहीं की; क्योंकि उनके मनमें युद्ध करनेकी ज्यादा इच्छा है। अतः उनको मैं देखूँ कि कितने बलको लेकर वे युद्ध करनेकी इच्छा रखते हैं।
🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि भगवान अपने प्रिय भक्तों से अगाध प्रेम करते हैं। भक्त के प्रति अपने निश्छल प्रेम के कारण भगवान उनके ऋणी हो जाते हैं।
जीवन में आ रही हर चुनौती एवं प्रस्थिति का नजदीक से अध्ययन करना चाहिए। तभी हम सही निर्णय लेने में समर्थ हो सकते हैं।
अर्जुन संपूर्ण सृष्टि के परम स्वामी भगवान श्रीकृष्ण का परम भक्त था। यद्यपि इस श्लोक में अर्जुन ने भगवान को अपनी इच्छानुसार अपेक्षित स्थान पर रथ ले जाने का निर्देश दिया है जोकि यह दर्शाता है कि भगवान अपने प्रिय भक्तों से अगाध प्रेम करते हैं। भक्त के प्रति अपने निश्छल प्रेम के कारण भगवान उनके ऋणी हो जाते हैं।
अर्जुन कहते हैं कि युद्धकी इच्छाको लेकर कौरव-सेनामें आये हुए सेनासहित जितने भी राजालोग खड़े हैं, उन सबको जबतक मैं देख न लूँ, तबतक आप रथको वहीं खड़ा रखिये। इस युद्धके उद्योगमें मुझे किन-किनके साथ युद्ध करना है? उनमें कौन मेरे समान बलवाले हैं? कौन मेरे से कम बलवाले हैं? और कौन मेरेसे अधिक बलवाले हैं? उन सबको मैं जरा देख लूँ।
यहाँ 'योद्धुकामान्' पदसे अर्जुन कह रहे हैं कि हमने तो सन्धिकी बात ही सोची थी, पर उन्होंने सन्धिकी बात स्वीकार नहीं की; क्योंकि उनके मनमें युद्ध करनेकी ज्यादा इच्छा है। अतः उनको मैं देखूँ कि कितने बलको लेकर वे युद्ध करनेकी इच्छा रखते हैं।
🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि भगवान अपने प्रिय भक्तों से अगाध प्रेम करते हैं। भक्त के प्रति अपने निश्छल प्रेम के कारण भगवान उनके ऋणी हो जाते हैं।
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Daily Verse # 23
Chapter # 1, Verse 23
 December 20, 2023
धृतराष्ट्र के दुष्ट पुत्रों ने छल से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया था इसलिए कौरवों के पक्ष में युद्ध करने आये योद्धागण भी स्वाभाविक रूप से दुष्ट प्रवृत्ति वाले थे। अर्जुन उन योद्धाओं को जिनके साथ उसे युद्ध करना था, को देखना चाहता था। आरम्भ में अर्जुन की वीरतापूर्वक युद्ध लड़ने की प्रबल इच्छा थी। इसलिए वह धृतराष्ट्र के पुत्रों को दुष्ट मनोवृत्ति से ग्रस्त कह कर यह इंगित करना चाहता था कि किस प्रकार से दुर्योधन ने कई बार पाण्डवों का विनाश करने का षडयंत्र रचा। उस समय अर्जुन ने ऐसे मनोभाव व्यक्त किए-“हम विधिपूर्वक आधे साम्राज्य के अधिकारी थे, किन्तु वह उसे हड़पना चाहता था। वह दुष्ट मनोवृत्ति वाला है इसलिए उसकी सहायता के लिए एकत्रित राजा लोग भी दुश्चरित्र हैं। मैं उन योद्धाओं को देखना चाहता हूँ जो युद्ध करने के लिए व्यग्र हैं। वे अन्याय का पक्ष ले रहे हैं और इसलिए हमारे हाथों उनका विनाश निश्चित है।"
🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि 
●जो लोग अधर्म का, अन्याय का पक्ष लेते हैं, वे सत्य और धर्म के सामने टिक नहीं सकेंगे, नष्ट हो जायँगे।
● जिसकी जैसी मनोवृत्ति होती है, वैसी ही संगति होती है। धूर्त का साथ देने वाले भी धूर्त ही समझे जाते हैं।
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Daily Verse # 24
Chapter # 1, Verse 24
21 December 2023
अपने सखा भक्त अर्जुन के द्वारा आज्ञा देने पर अन्तर्यामी भगवान् श्री कृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीचमें अर्जुन का रथ खड़ा कर दिया।
जो इन्द्रियों के ईश अर्थात् स्वामी हैं, उनको हृषीकेश कहते हैं। पहले इक्कीसवें श्लोक में और यहाँ  'हृषीकेश'  कहने का तात्पर्य है कि जो मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि सबके प्रेरक हैं सबको आज्ञा देने वाले हैं, वे ही अन्तर्यामी भगवान् यहाँ अर्जुन की आज्ञा का पालन करने वाले बन गये हैं! यह उनकी अर्जुन पर कितनी अधिक कृपा है!
🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि जो निद्रा-आलस्य के सुख का गुलाम नहीं होता और जो विषय-भोगों का दास नहीं होता, केवल भगवान् का  ही दास (भक्त) होता है, उस भक्त की बात भगवान् सुनते हैं; केवल सुनते ही नहीं, उसकी आज्ञा का पालन भी करते हैं। 
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Daily Verse # 25
Chapter # 1, Verse 25
22 December 2023
 "कुरु" शब्द का प्रयोग कौरवों और पाण्डवों दोनों के लिए किया गया है क्योंकि दोनों कुरु वंशज थे। भगवान श्रीकृष्ण ने जान बूझकर इस शब्द का प्रयोग किया ताकि अर्जुन में बंधुत्व की भावना जागृत हो और उसे यह प्रतीत हो कि वे सब एक ही हैं। वे चाहते थे कि बंधुत्व की भावना से अर्जुन में मोह उत्पन्न होगा और जिससे वह विचलित हो जाएगा जिसके परिणामस्वरूप उन्हें आगे आने वाले कलियुग में मानव मात्र के कल्याण के लिए गीता के सिद्धान्त का दिव्य उपदेश देने का अवसर प्राप्त होगा। इसलिए उन्होंने 'धृतराष्ट्रतन' धृतराष्ट्र के पुत्रों के स्थान पर 'कुरु' कुरुवंशज शब्द का प्रयोग किया। जिस प्रकार एक सर्जन फोड़े की पीड़ा से ग्रस्त रोगी को पहले उसकी पीड़ा कम करने के लिए औषधि देता है और उसके रूग्ण अंग की चीर-फाड़ करता है, उसी प्रकार से भगवान श्रीकृष्ण ने भी पहले अर्जुन के भीतर छिपे मोह को जागृत किया ताकि बाद में उसे नष्ट किया जा सके।
युद्ध के लिये एकत्र हुए इन कुरुवंशियों को देख--ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि इन कुरुवंशियों को देखकर अर्जुन के भीतर यह भाव पैदा हो जाय कि हम सब एक ही तो हैं! इस पक्ष के हों, चाहे उस पक्षके हों; भले हों, चाहे बुरे हों; सदाचारी हों; चाहे दुराचारी हों; पर हैं सब अपने ही कुटुम्बी। इस कारण अर्जुन में छिपा हुआ कौटुम्बिक ममतायुक्त मोह जाग्रत् हो जाय और मोह जाग्रत् होने से अर्जुन जिज्ञासु बन जाय, जिससे अर्जुनको निमित्त बनाकर भावी कलियुगी जीवोंके कल्याणके लिये गीताका महान् उपदेश किया जा सके।
🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि भगवान् भक्त के भीतर छिपे हुए मोह को पहले जाग्रत् करके फिर उसको मिटाते हैं।
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Daily Verse # 26
Chapter # 1, Verse 26
 December 23, 2023
अर्जुन युद्धभूमि में अपने सभी सम्बंधियों को देख सका। वह अपने पिता के समकालीन भूरिश्रवा जैसे व्यक्तियों, भीष्म तथा सोमदत्त जैसे पितामहों, द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य जैसे गुरुओं, शल्य तथा शकुनि जैसे मामाओं, दुर्योधन जैसे भाईयों, लक्ष्मण जैसे पुत्रों, अश्वत्थामा जैसे मित्रों एवं कृतवर्मा जैसे शुभचिन्तकों को देख सका। वह उन सेनाओं को भी देख सका जिनमें उसके मित्र थे।
🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि अपने भाई-बंधु कितने भी अच्छे-बुरे हों, इंसान के मन में उनके लिए मोह उत्पन्न हो ही जाता है।
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Daily Verse # 27
Chapter # 1, Verse 27
 December 24, 2023
अपने बंधु बान्धवों को युद्ध स्थल पर एकत्रित देखकर अर्जुन का ध्यान पहली बार भातृहत्या वाले इस भयंकर युद्ध के परिणामों की ओर गया। वह महापराक्रमी योद्धा जो युद्ध लड़ने के लिए उद्यत था और पाण्डवों के प्रति किए गए अन्यायपूर्ण व्यवहार का प्रतिशोध लेने हेतु शत्रुओं को मृत्यु के द्वार पहुँचाने के लिए मानसिक रूप से तैयार था, उस अर्जुन का हृदय अचानक परिवर्तित हो गया। शत्रु पक्ष की ओर से एकत्रित अपने कुरु बंधु बान्धवों को देखकर अर्जुन का हृदय शोक में डूब गया, उसकी बुद्धि भ्रमित हो गयी और अपने कर्त्तव्य का पालन करने के लिए उसकी निडरता कायरता में परिवर्तित हो गई। उसके हृदय की दृढ़ता ने कोमलता का स्थान ले लिया। इसलिए संजय उसे कुन्ती 'उसकी माता' पुत्र कहकर उसके स्वभाव की सहृदयता और उदारता को व्यक्त करता है।
दोनों ही सेनाओं में जन्म के और विद्या के सम्बन्धी-ही-सम्बन्धी देखने से अर्जुनके मन में यह विचार आया कि युद्ध में चाहे इस पक्ष के लोग मरें, चाहे उस पक्षके लोग मरें, नुकसान हमारा ही होगा, कुल तो हमारा ही नष्ट होगा, सम्बन्धी तो हमारे ही मारे जायँगे! ऐसा विचार आनेसे अर्जुनकी युद्ध की इच्छा तो मिट गयी और भीतर में कायरता आ गयी।
🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि आपसी झगडे में दोष चाहे किसी  भी पक्ष के लोगों  का हो , नुकसान दोनों का ही होगा, कुल तो उनका ही नष्ट होगा, सम्बन्ध तो उनके ही खराब होंगे।
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Daily Verse # 28
Chapter # 1, Verse 28
 December 25, 2023
अर्जुन के मन में युद्ध के भावी परिणाम को लेकर चिन्ता हो रही है, दुःख हो रहा है। उस चिन्ता, दुःख का असर अर्जुन के सारे शरीर पर पड़ रहा है। उसी असर को अर्जुन स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि मेरे शरीर का हाथ, पैर, मुख आदि एक-एक अङ्ग (अवयव) शिथिल हो रहा है! मुख सूखता जा रहा है। जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है! सारा शरीर थर-थर काँप रहा है! शरीर के सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर रोमाञ्चित हो रहा है! जिस गाण्डीव धनुष की प्रत्यञ्चा की टङ्कार से शत्रु भयभीत हो जाते हैं वही गाण्डीव धनुष आज मेरे हाथ से गिर रहा है! त्वचा में--सारे शरीरमें जलन हो रही है । मेरा मन भ्रमित हो रहा है अर्थात् मेरे को क्या करना चाहिये--यह भी नहीं सूझ रहा है! यहाँ युद्धभूमि में रथ पर खड़े रहने में भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ! ऐसा लगता है कि मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ूँगा! ऐसे अनर्थकारक युद्ध में खड़ा रहना भी एक पाप मालूम दे रहा है। पूर्वश्लोक में अपने शरीर के शोकजनित आठ चिह्नों का वर्णन करके अब अर्जुन भावी परिणाम के सूचक शकुनों की दृष्टि से युद्ध करने का अनौचित्य बताते हैं।
🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि सांसारिक मोह का अनुभव कर इंसान शोक के महासागर में डूब जाता है और वह अपने कर्तव्य पालन के विचार से कांपने लगता है।
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Daily Verse # 29
Chapter # 1, Verse 29
 December 28, 2023
अर्जुन के मनमें युद्ध के भावी परिणाम को लेकर चिन्ता हो रही है, दुःख हो रहा है। उस चिन्ता, दुःख का असर अर्जुन के सारे शरीर पर पड़ रहा है। उसी असर को अर्जुन स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि मेरे शरीर का एक-एक अङ्ग (अवयव) शिथिल हो रहा है! मुख सूखता जा रहा है। जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है! सारा शरीर थर-थर काँप रहा है! शरीर के सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर रोमाञ्चित हो रहा है! 
 
🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें बताता है कि पारिवारिक मोह  के मायाजाल में इंसान इतना फंस जाता है कि इसका प्रभाव उसके मन- मस्तिष्क और शरीर पर  स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है।
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Daily Verse  # 30
Chapter # 1, Verse  30
29 December 2023
दुर्योधनका देखना तो एक तरह का ही रहा अर्थात् दुर्योधन का तो युद्ध का ही एक भाव रहा; परन्तु अर्जुन का देखना दो तरह का हुआ। पहले तो अर्जुन धृतराष्ट्र के पुत्रों को देखकर वीरता में आकर युद्ध के लिये धनुष उठाकर खड़े हो जाते हैं और अब स्वजनों को देखकर कायरता से आविष्ट हो रहे हैं, युद्ध से उपरत हो रहे हैं और उनके हाथ से धनुष गिर रहा है।
 अर्जुन के मन, में युद्धके भावी परिणाम को लेकर चिन्ता हो रही है, दुःख हो रहा है। उस चिन्ता, दुःख का असर अर्जुन के सारे शरीर पर पड़ रहा है। उसी असर को अर्जुन स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि मेरे शरीरका हाथ, पैर, मुख आदि एक-एक अङ्ग (अवयव) शिथिल हो रहा है! मुख सूखता जा रहा है। जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है! सारा शरीर थर-थर काँप रहा है! शरीर के सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर रोमाञ्चित हो रहा है! जिस गाण्डीव धनुष की प्रत्यञ्चा की टङ्कार से शत्रु भयभीत हो जाते हैं, वही गाण्डीव धनुष आज मेरे हाथसे गिर रहा है! त्वचा में--सारे शरीर में जलन हो रही है । मेरा मन भ्रमित हो रहा है अर्थात् मेरे को क्या करना चाहिये--यह भी नहीं सूझ रहा है! यहाँ युद्धभूमि में रथ पर खड़े रहने में भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ! ऐसा लगता है कि मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ूँगा! ऐसे अनर्थकारक युद्ध में खड़ा रहना भी एक पाप मालूम दे रहा है।
🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक हमें कुछ ना कुछ नया और अच्छा सिखाता है।
*गीता जी का यह श्लोक (#30) हमें सिखाता है कि हम  भावी परिणाम मे बारें में सोच कर भयभीत और चिंतित हो जाते हैं और कमजोर पड़ जाते हैं ।उस चिन्ता, दुःख का असर हमारे  सारे शरीर पर पड़ता है।*
29 December 2023
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Daily Verse # 31
Chapter # 1, Verse 31
 December 30, 2023
जब अर्जुन ने युद्ध के परिणामों पर विचार किया तब वह चिन्तित और उदास हो गया। अर्जुन का वह धनुष जिसकी टंकार से शक्तिशाली शत्रु भयभीत हो जाते थे, उसके हाथ से सरकने लगा। यह सोचकर कि युद्ध करना एक पाप पूर्ण कार्य है, उसका सिर चकराने लगा। मन की इस अस्थिरता के कारण वह हीन भावना से ग्रसित होकर अमंगलीय लक्षणों को स्वीकार करने लगा और विनाशकारी विफलता व सन्निकट परिणामों का पूर्वानुमान करने लगा।
 🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक ज्ञानवर्धक है।
*गीता जी का यह श्लोक (#31) हमें सिखाता है कि किसी भी कार्य के आरम्भ में मन में जितना अधिक उत्साह (हर्ष) होता है, वह उत्साह उस कार्य को उतना ही सिद्ध करने वाला होता है। परन्तु अगर कार्य के आरम्भ में ही उत्साह भङ्ग हो जाता है, मनमें संकल्प-विकल्प ठीक नहीं होते, तो उस कार्य का परिणाम अच्छा नहीं होता।
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Daily Verse # 32
Chapter # 1, Verse 32
 December 31, 2023
अर्जुन के मन में यह सत्य जानकर उलझन उत्पन्न हुई कि हत्या करना अपने आप में एक पापपूर्ण कृत्य है और अपने ही स्वजनों को मारना तो पूर्णतया और अधिक कुत्सित कार्य है। अर्जुन को यह प्रतीत हुआ कि यदि उसने राज्य प्राप्त करने के लिए इस प्रकार के निर्दयतापूर्ण कार्य किए तब उसे ऐसी विजय से अंततोगत्वा कोई सुख प्राप्त नही होगा और वह इस ख्याति को अपने उन मित्रों और सगे-संबंधियों में बांटने में असमर्थ रहेगा जिन्हे युद्ध में मारकर उसे विजय प्राप्त होगी। यहाँ अर्जुन संवेदनशीलता की अधोः सीमा प्रदर्शित कर रहा है और उसे श्रेष्ठ मान रहा है। सांसारिक भोगों और भौतिक सुख-समृद्धि के प्रति विरक्ति प्रशंसनीय और सदगुण है किन्तु अर्जुन आध्यात्मिक भावों को भली भांति धारण नहीं कर पा रहा है अपितु इसके विपरीत उसका मोह करुणा के रूप में उसे धोखा दे रहा है। शुद्ध मनोभाव, आंतरिक सामंजस्य और संतोष आत्मा को सुख प्रदान करते हैं। यदि अर्जुन की संवेदनशीलता लोकातीत स्तर की होती तब वह संवेदनाओं से ऊपर उठ चुका होता। लेकिन उसके मनोभाव सर्वथा प्रतिकूल हैं क्योंकि वह अपने मन और बुद्धि में असामंजस्य और अपने कर्तव्य पालन के प्रति असंतोष और उस पर हावी संवेदनाओं का प्रभाव यह दर्शाता है कि उसकी संवेदनाएं उसके मोह से उत्पन्न हुई हैं।
 🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक ज्ञानवर्धक है।
*गीता जी का यह श्लोक (#32) हमें सिखाता है कि हमें संवेदनाओं को अपने मस्तिष्क पर इतना हावी नहीं  होने देना चाहिए कि वह हमें विजय प्राप्त करने में असक्षम बना दें ।
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Daily Verse # 33
Chapter # 1, Verse 33
 January 1, 2024
अर्जुन कहता है- हम राज्य, सुख, भोग आदि जो कुछ चाहते हैं, उनको अपने व्यक्तिगत सुख के लिये नहीं चाहते, प्रत्युत इन कुटुम्बियों, प्रेमियों, मित्रों आदि के लिये ही चाहते हैं। आचार्यों, पिताओं, पितामहों, पुत्रों आदिको सुख-आराम पहुँचे, इनकी सेवा हो जाय, ये प्रसन्न रहें--इसके लिये ही हम युद्ध करके राज्य लेना चाहते हैं, भोग-सामग्री इकट्ठी करना चाहते हैं।
पर वे ही ये सब-के-सब अपने प्राणों की और धन की आशा को छोड़कर युद्ध करने के लिये हमारे सामने इस रणभूमि में खड़े हैं। इन्होंने ऐसा विचार कर लिया है कि हमें न प्राणों का मोह है और न धन की तृष्णा है; हम मर बेशक जायँ, पर युद्ध से नहीं हटेंगे। अगर ये सब मर ही जायँगे, हमें राज्य किसके लिये चाहिये? सुख किसके लिये चाहिये धन किसके लिये चाहिये? अर्थात् इन सबकी इच्छा हम किसके लिये करें?
 वे प्राणों की और धन की आशा का त्याग करके खड़े हैं अर्थात् हम जीवित रहेंगे और हमें धन मिलेगा--इस इच्छा को छोड़कर वे खड़े हैं। अगर उन में प्राणों की और धन की इच्छा होती, तो वे मरने के लिये युद्ध में क्यों खड़े होते? अतः यहाँ प्राण और धन का त्याग करने का तात्पर्य उनकी आशा का त्याग करने में ही है।
🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक ज्ञानवर्धक है।
*गीता जी का यह श्लोक (#33) हमें सिखाता है कि शुद्ध मनोभाव, आंतरिक सामंजस्य और संतोष आत्मा को सुख प्रदान करते हैं। मन और बुद्धि में असामंजस्य और अपने कर्तव्य पालन के प्रति असंतोष और मन पर हावी संवेदनाओं का प्रभाव यह दर्शाता है कि संवेदनाएं  मोह से उत्पन्न होती हैं।
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Daily Verse # 34
Chapter # 1, Verse 34
 January 2, 2024
यहाँ पर जाति तथा कुटुम्बियों के प्रति अर्जुन का प्रगाढ़ स्नेह आंशिक रूप से इन सबके प्रति उसकी स्वभाविक करुणा के कारण है | अतः वह युद्ध करने के लिए तैयार नहीं है | हर व्यक्ति अपने वैभव का प्रदर्शन अपने मित्रों तथा परिजनों के समक्ष करना चाहता है किन्तु अर्जुन को भय है कि उसके सारे मित्र तथा परिजन युद्धभूमि में मारे जायेंगे और वह विजय के पश्चात् उनके साथ अपने वैभव का उपयोग नहीं कर सकेगा।
इस श्लोक में आपने सुना कि कैसे अर्जुन अनेक तर्क देकर अपने विचार को उचित सिद्ध करना चाहता है।
🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक ज्ञानवर्धक है।
*गीता जी का यह श्लोक (#34) हमें सिखाता है कि हम अनेक तर्क देकर अपने ग़लत विचार को उचित सिद्ध करना चाहते हैं । वास्तव में हम कर्तव्य करने से दूर भाग रहे होते हैं।*
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Daily Verse # 35
Chapter # 1, Verse 35
 January 3, 2024
द्रोणाचार्य और कृपाचार्य अर्जुन के गुरुजन थे और भीष्म एवं सोमदत पितामह, सोमदत का पुत्र, भूरिश्रवा जैसे लोग पिता तुल्य थे। पुरुजित, कुंतिभोज, शल्य, शकुनि मामा और धृतराष्ट्र के सौ पुत्र उनके चचेरे भाई थे। दुर्योधन का पुत्र, लक्ष्मण उसके पुत्र के समान था। अर्जुन युद्धस्थल पर उपस्थित अपने स्वजनों के साथ अपने संबंधों की व्याख्या कर रहा है। इस श्लोक में अर्जुन ने दो बार अपि शब्द-जिसका अर्थ 'यद्यपि' है, का प्रयोग किया है। प्रथम बार 'यद्यपि' के प्रयोग का अर्थ है-यदि वे मुझ पर आक्रमण करते हैं तब भी मेरी इच्छा उनका वध करने की नहीं होगी। दूसरी बार 'यद्यपि' के प्रयोग का अर्थ है-यदि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध कर देते हैं, तब भले ही हमें इससे पृथ्वी के तीनों लोक प्राप्त क्यों न होते हों, उसके पश्चात भी उनका वध करने से हमें कैसे सुख और शांति मिलेगी?
🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक ज्ञानवर्धक है।
*गीता जी का यह श्लोक (#35) हमें सिखाता है कि कर्तव्य परायण व्यक्ति न्यायशील होता है। परंतु मोह एवं उदारता जब कर्तव्य पर हावी हो जातें हैं तो व्यक्ति अपने कर्म के साथ न्याय नहीं कर पाता।*
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Daily Verse # 36
Chapter # 1, Verse 36
 January 4, 2024
अधिकतर परिस्थितियों में युद्ध लड़ना और किसी का वध करना प्रायः अधर्म माना जाता है जिसके कारण बाद में पश्चाताप और अपराध का बोध होता है। वेदों के अनुसार अहिंसा परम धर्म है और अपवाद स्वरूप कुछ विषम परिस्थतियों को छोड़कर अहिंसा पापकर्म भी है: मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि, अर्थात 'किसी भी प्राणी को मत मारो' यहाँ अर्जुन अपने कुटुम्बियों को मारना नही चाहता क्योंकि वह इसे पापपूर्ण कार्य मानता है। 
अर्जुन कहता है: कुटुम्बियों की याद आने पर उनका अभाव बार-बार खटकेगा। चित्त में उनकी मृत्युका शोक सताता रहेगा। ऐसी स्थिति में हमें कभी प्रसन्नता हो सकती है क्या ?तात्पर्य है कि इनको मारने से हम इस लोकमें जब तक जीते रहेंगे, तब तक हमारे चित्तमें कभी प्रसन्नता नहीं होगी और इनको मारने से हमें जो पाप लगेगा, वह परलोक में हमें भयंकर दुःख देने वाला होगा।
🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक नैतिकता सिखाता है।
*गीता जी का यह श्लोक (#36) हमें सिखाता है कि अहिंसा परम धर्म है और हिंसा पापकर्म है। ममताजनित मोह के कारण अगर हम पापकर्म कर बैठते हैं  बाद में हमें पश्चत्ताप ही करना पड़ेगा। 
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Daily Verse # 37
Chapter # 1, Verse 37
 January 5, 2024
अर्जुन अपने कुटुम्बियों को मारना नही चाहता क्योंकि वह इसे पापपूर्ण कार्य मानता है। 
विशिष्ट स्मृति (श्लोक 3:19) में छह प्रकार के आतातायियों का उल्लेख किया गया है जिनके विरूद्ध हमें अपनी रक्षा करने का अधिकार है। 
(1) किसी के घर को आग से जलाने वाला, 
(2) किसी के भोजन में विष मिलाने वाला, 
(3) किसी की हत्या करने वाला,
 (4) किसी का धन लूटने वाला, 
(5) पराई स्त्री का अपहरण करने वाला और 
(6) दूसरे का राज्य या भूमि हड़पने वाला। इन सब अत्याचारियों से अपनी रक्षा करने और इनका वध करने का सबको अधिकार है। मनु स्मृति 'श्लोक 8:351' में वर्णित है कि यदि कोई ऐसे अत्याचारियों का वध करता है तो उसे पाप नही लगता।
🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक नैतिकता के पथ पर चलना सिखाता है।
गीता जी का यह श्लोक (#37) हमें सिखाता है कि जहाँ मोह होता है, वहाँ मनुष्य का विवेक दब जाता है। विवेक दबने से मोह की प्रबलता हो जाती है। मोह के प्रबल होने से अपने कर्तव्य का स्पष्ट भान नहीं होता।
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Daily Verse # 38
Chapter # 1, Verse 38
 January 6, 2024
अब अर्जुन अपनी बात कहते हैं कि यद्यपि दुर्योधनादि अपने कुलक्षयसे होनेवाले दोषको और मित्रद्रोहसे होनेवाले पापको नहीं देखते, तो भी हमलोगोंको कुलक्षयसे होनेवाली अनर्थ-परम्पराको देखना ही चाहिये [जिसका वर्णन अर्जुन आगे चालीसवें श्लोकसे चौवालीसवें श्लोकतक करेंगे़]; क्योंकि हम कुलक्षयसे होनेवाले दोषोंको भी अच्छी तरहसे जानते हैं और मित्रोंके साथ द्रोह-(वैर, द्वैष-) से होनेवाली पापको भी अच्छी तरह से जानते हैं। अगर वे मित्र हमें दुःख दें, तो वह दुःख हमारे लिये अनिष्टकारक नहीं है। कारण कि दुःखसे तो हमारे पूर्वपापोंका ही नाश होगा, हमारी शुद्धि ही होगी। परन्तु हमारे मनमें अगर द्रोह--वैरभाव होगा, तो वह मरनेके बाद भी हमारे साथ रहेगा और जन्म-जन्मान्तर-तक हमें पाप करनेमें प्रेरित करता रहेगा, जिससे हमारा पतन-ही-पतन होगा। ऐसे अनर्थ करनेवाले और मित्रोंके साथ द्रोह पैदा करनेवाले इस युद्धरूपी पापसे बचनेका विचार क्यों नहीं करना चाहिये? अर्थात् विचार करके हमें इस पापसे जरूर ही बचना चाहिये। यहाँ अर्जुन की दृष्टि दुर्योधन आदिके लोभ की तरफ तो जा रही है, पर वे खुद कौटुम्बिक स्नेह-(मोह-) में आबद्ध होकर बोल रहे हैं--इस तरफ उनकी दृष्टि नहीं जा रही है। इस कारण वे अपने कर्तव्यको नहीं समझ रहे हैं। यह नियम है कि मनुष्यकी दृष्टि जबतक दूसरोंके दोषकी तरफ रहती है, तब तक उसको अपना दोष नहीं दीखता ,उलटे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है, पर हमारेमें यह दोष नहीं है। ऐसी अवस्थामें वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारेमें भी कोई दूसरा दोष हो सकता है। दूसरा दोष यदि न भी हो तो भी दूसरोंका दोष देखना-- यह दोष तो है ही। दूसरोंका दोष देखना एवं अपनेमें अच्छाईका अभिमान करना--ये दोनों दोष साथमें ही रहते हैं। अर्जुनको भी दुर्योधन आदिमें दोष दीख रहे हैं और अपनेमें अच्छाईका अभिमान हो रहा है (अच्छाईके अभिमानकी छायामें मात्र दोष रहते हैं), इसलिये उनको अपनेमें मोहरूपी दोष नहीं दीख रहा है।
🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक नैतिकता के पथ पर चलना सिखाता है।
गीता जी का यह श्लोक (#38) हमें सिखाता है कि संसार का सुख किसी-न-किसी दोष से ही होता है। कोई भी दोष न होने पर संसार से सुख हो ही नहीं सकता। परन्तु लोभ के कारण मनुष्य ऐसा विचार कर ही नहीं सकता। यह लोभ उसके विवेक विचार को लुप्त कर देता है।
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Daily Verse # 39
Chapter # 1, Verse 39
January 7, 2024
यहाँ अर्जुन की दृष्टि दुर्योधन आदि के लोभकी तरफ तो जा रही है, पर वे खुद कौटुम्बिक स्नेह-(मोह-) में आबद्ध होकर बोल रहे हैं--इस तरफ उनकी दृष्टि नहीं जा रही है। इस कारण वे अपने कर्तव्य को नहीं समझ रहे हैं। यह नियम है कि मनुष्य की दृष्टि जबतक दूसरोंके दोषकी तरफ रहती है, तब तक उसको अपना दोष नहीं दीखता ,उलटे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है, पर हमारे में यह दोष नहीं है। ऐसी अवस्थामें वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारे में भी कोई दूसरा दोष हो सकता है। दूसरा दोष यदि न भी हो तो भी दूसरों का दोष देखना--यह दोष तो है ही। दूसरों का दोष देखना एवं अप नेमें अच्छाई का अभिमान करना-- ये दोनों दोष साथ में ही रहते हैं। अर्जुन को भी दुर्योधन आदि में दोष दीख रहे हैं और अपने में अच्छाई का अभिमान हो रहा है ।
   
🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक नैतिकता के पथ पर चलना सिखाता है।
गीता जी का यह श्लोक (#39) हमें सिखाता है कि हमें पापमय कर्म से दूर रहना चाहिए।
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Daily Verse # 40
Chapter # 1, Verse 40
January 8, 2024
कुलों की पुरातन परम्पराओं और नित्य मान्य प्रथाओं के अनुसार कुल के वयोवृद्ध लोग उच्च मूल्यों और आदर्शों को अगली पीढ़ी के कल्याण हेतु उन्हें हस्तांतरित करते हैं। ये महान परम्पराएं कुल के सदस्यों को मानवीय मूल्यों और धार्मिक मर्यादाओं का पालन करवाने में सहायता करती हैं। यदि कुल के वयोवृद्धों की समय से पूर्व मृत्यु हो जाती है तब भावी पीढ़ियां कुल के वयोवृद्धों के मार्गदर्शन और शिक्षण से वंचित हो जाती हैं। अर्जुन के कहने का तात्पर्य यह है कि जब कुलों का विनाश हो जाता है तब उसकी महान परम्पराएं भी उसके साथ समाप्त हो जाती हैं और कुल के शेष सदस्यों में अधर्म और व्यभिचार की प्रवृत्ति बढ़ती है जिससे वे अपनी आध्यात्मिक उन्नति का अवसर खो देते हैं। इसलिए अर्जुन के अनुसार कुल के आदरणीय वयोवृद्ध सदस्यों को कभी भी नहीं मारना चाहिए।
 🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक नैतिकता के पथ पर चलना सिखाता है।
गीता जी का यह श्लोक (#40) हमें सिखाता है कि कुल का क्षय होने पर सदा से चलते आये कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं और धर्म का नाश होने पर (बचे हुए) सम्पूर्ण कुल को अधर्म दबा लेता है।
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Daily Verse # 41
Chapter # 1, Verse 41
 January 9, 2024
अर्जुन अपने पूर्वकथित तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहता है कि अधर्म के बढ़ने पर समाज में धीर-धीरे नैतिकता का पतन हो जायेगा और वर्णसंकर जातियाँ उत्पन्न होंगी।
वर्ण एक ऐसा शब्द है जिसका अर्थ विकृत हो जाने से वह आज के शिक्षित लोगों की तीखी आलोचना का विषय बन गया है। उनकी आलोचना उचित है यदि उसका विकृत अर्थ स्वीकृत हो। परन्तु आज वर्ण के नाम पर देश में जो कुछ होते हुये हम देख रहे हैं वह हिन्दू जीवन पद्धति का पतित रूप है। प्राचीन काल में वर्ण विभाग का आधार समाज के व्यक्तियों की मानसिक व बौद्धिक क्षमता और पक्वता होती थी।
बुद्धिमान तथा अध्ययन अध्यापन एवं अनुसंधान में रुचि रखने वाले लोग ब्राह्मण कहलाते थे क्षत्रिय वे थे जिनमें राजनीति द्वारा राष्ट्र का नेतृत्व करने की सार्मथ्य थी और जो अपने ऊपर इस कार्य का उत्तरदायित्व लेते थे कि राष्ट्र को आन्तरिक और बाह्य आक्रमणों से बचाकर राष्ट्र में शांति और समृद्धि लायें। कृषि और वाणिज्य के द्वारा समाज सेवा करने वालों को वैश्य कहते थे। वे लोग जो उपयुक्त कर्मों में से कोई भी कर्म नहीं कर सकते थे शूद्र कहे जाते थे। उनका कर्तव्य सेवा और श्रम करना था। हमारे आज के समाजसेवक और अधिकारी वर्ग कृषक और औद्योगिक कार्यकर्त्ता आदि सभी उपर्युक्त वर्ण व्यवस्था में आ जाते हैं।
वर्णव्यवस्था को जब हम उसके व्यापक अर्थ में समझते हैं तब हमें आज भी वह अनेक संगठनों के रूप में दिखाई देती है। अत वर्णसंकर के विरोध का अर्थ इतना ही है कि एक विद्युत अभियन्ता शल्यकक्ष में चिकित्सक का काम करता हुआ समाज को खतरा सिद्ध होगा तो किसी चिकित्सक को जल विद्युत योजना का प्रशासनिक एवं योजना अधिकारी नियुक्त करने पर समाज की हानि होगी
समाज में नैतिक पतन होने पर अनियन्त्रित वासनाओं में डूबे युवक और युवतियाँ स्वच्छन्दता से परस्पर मिलते हैं। कामना के वश में वे सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का किंचित भी विचार नहीं करते। इसलिये अर्जुन को भय है कि वर्णसंकर के कारण समाज और संस्कृति का पतन होगा।
🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक नैतिकता के पथ पर चलना सिखाता है।
गीता जी का यह श्लोक (#41) हमें सिखाता है कि अधर्म के बढ़ने पर समाज में धीर- धीरे नैतिकता का पतन हो जाता है।
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Daily Verse # 42
Chapter # 1, Verse 42
 January 10, 2024
अर्जुन अपने पूर्वकथित तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहता है कि अधर्म के बढ़ने पर समाज में धीर धीरे नैतिकता का पतन हो जायेगा और वर्णसंकर जातियाँ उत्पन्न होंगी।
 
🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक नैतिकता के पथ पर चलना सिखाता है।
गीता जी का यह श्लोक (#42) हमें सिखाता है कि सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के लिए आवश्यक है कि परिवार और पारिवारिक परम्परा का विनाश ना किया जाए।
 
Daily Verse  # 43
Chapter # 1, Verse 43
January 11,2024
सनातन-धर्म या वर्णाश्रम द्वारा निर्धारित मानव समाज के चारों वर्गों के लिए सामुदायिक योजनाएं तथा पारिवारिक कल्याण-कार्य इसलिए नियोजित हैं कि मनुष्य चरम मोक्ष प्राप्त कर सके। अतः समाज के अनुत्तरदायी नायकों द्वारा सनातन-धर्म परम्परा के विखण्डन से उस समाज में अव्यवस्था फैलती है, फलस्वरूप लोग जीवन के उद्देश्य विष्णु को भूल जाते हैं। ऐसे नायक अंधे कहलाते हैं और जो लोग इनका अनुगमन करते हैं वे निश्चय ही कुव्यवस्था की ओर अग्रसर होते हैं।
🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक नैतिकता के पथ पर चलना सिखाता है।
गीता जी का यह श्लोक (#43) हमें सिखाता है कि हमे समाज के प्रति अपने उतरदायित्व को नहीं भूलना चाहिए।
January 11,2024















































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