Chapter # 1| Daily Verse/ Shloka | Divya Gyan

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दिव्य ज्ञान (श्रीमद्भगवद्गीता के पावन पन्नों से)


भगवद्गीता का प्रकटीकरण राजा धृतराष्ट्र और उसके मंत्री संजय के बीच हुए वार्तालाप से आरम्भ होता है। चूंकि धृतराष्ट्र नेत्रहीन था इसलिए वह व्यक्तिगत रूप से युद्ध में उपस्थित नहीं हो सका। अत: संजय उसे युद्धभूमि पर घट रही घटनाओं का पूर्ण सजीव विवरण सुना रहा था। संजय महाभारत के प्रख्यात रचयिता वेदव्यास का शिष्य था। ऋषि वेदव्यास ऐसी चमत्कारिक शक्ति से संपन्न थे जिससे वह दूर-दूर तक घट रही घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से देखने में समर्थ थे। अपने गुरु की अनुकंपा से संजय ने भी दूरदृष्टि की दिव्य चमत्कारिक शक्ति प्राप्त की थी। इस प्रकार से वह युद्ध भूमि में घटित सभी घटनाओं को दूर से देख सका।


Chapter # 1: अर्जुन विषाद योग

 (47/ 47 श्लोक) 


Daily Verse # 1
Chapter # 1, Verse 1

28 November 2023





धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥








इस श्लोक में धृतराष्ट्र ने संजय से यह प्रश्न पूछा कि उसके और पाण्डव पुत्रों ने युद्धभूमि में एकत्रित होने के पश्चात क्या किया?


अपने पुत्रों के प्रति अथाह मोह के कारण वह सत्यपथ से च्युत हो गया था और पाण्डवों के न्यायोचित राज्याधिकार को हड़पना चाहता था। अपने भतीजों पाण्डव पुत्रों के प्रति उसने जो अन्याय किया था, उसका उसे भलीभांति बोध था।


इसी अपराध बोध के कारण वह युद्ध के परिणाम के संबंध में चिन्तित था। 

🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि अगर हम अपने कर्तव्यों एवं धर्म से विमुक्त हो कर कार्य करेंगे तो हमारा मन भी परिणाम के संबंध में चिन्तित रहेगा।






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Daily Verse  # 2
Chapter # 1, Verse 2





29 November 2023


सञ्जय उवाच। दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा। आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्




प्रथम श्लोक द्वारा धृतराष्ट्र इस बात की पुष्टि करना चाहता था कि क्या उसके पुत्र अब भी युद्ध करने के उत्तरदायित्व का निर्वहन करेंगे?


संजय धृतराष्ट्र के इस प्रश्न के तात्पर्य को समझ गया और उसने ऐसा कहकर कि पाण्डवों की सेना व्यूह रचना कर युद्ध करने को तैयार है, यह पुष्टि की कि युद्ध अवश्य होगा। फिर उसके पश्चात उसने वार्ता का विषय बदलते हुए यह बताया कि दुर्योधन क्या कर रहा था। 

🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि निर्दयी और दुष्ट प्रवृत्ति का व्यक्ति परिणाम के बारे में सोचकर भयभीत हो जाता है और अपनी चिन्ता को कम करने के लिए गुरु का आश्वासन चाहता है।

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Daily Verse  # 3
Chapter # 1, Verse 3






30 November 2023


पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्। व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥



दुर्योधन एक कुशल कूटनीतिज्ञ के रूप में अपने सेनापति गुरु द्रोणाचार्य द्वारा अतीत में की गई भूल को इंगित करना चाहता था।

 द्रोणाचार्य का राजा द्रुपद के साथ किसी विषय पर राजनैतिक विवाद था और यह वरदान प्राप्त किया कि उसे ऐसे पुत्र की प्राप्ति होगी जो द्रोणाचार्य का वध करने में समर्थ होगा।

यद्यपि द्रोणाचार्य धृष्टद्युम्न के जन्म का रहस्य जानते थे किन्तु जब द्रुपद ने अपने पुत्र धृष्टद्युम्न को सैन्य कौशल की विद्या प्रदान करने के लिए द्रोणाचार्य को सौंपा तब उदारचित द्रोणाचार्य ने धृष्टद्युम्न को सैन्य युद्ध कौशल की विद्या में निपुण बनाने में कोई संकोच और भेदभाव नही किया। अब धृष्टद्युम्न पाण्डवों के पक्ष से उनकी सेना के महानायक के रूप में उनकी सेना की व्यूह रचना कर रहा था। ऐसे में दुर्योधन अपने गुरु को यह अवगत कराना चाहता था कि अतीत में की गई उनकी भूल के कारण उसे वर्तमान में संकट का सामना करना पड़ रहा है और वह यह भी इंगित करना चाहता था कि उन्हें आगे पाण्डवों के साथ युद्ध करने में किसी प्रकार की उदारता नहीं दर्शानी चाहिए।



🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि अतीत में हुई भूल के कारण हमें वर्तमान में संकट का सामना करना पड़े तो एक कुशल कूटनीतिज्ञ की तरह उस प्रस्थिति से जूझने के लिए तैयार रहना चाहिए।



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Daily Verse  # 4
Chapter # 1, Verse 4



1 December 2023


अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि । युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः॥




अपने सम्मख संकट को मंडराते देखकर दुर्योधन को पाण्डवों द्वारा एकत्रित की गयी सेना वास्तविकता से अपेक्षाकृत अधिक विशाल प्रतीत होनी लगी। अपनी चिन्ता को व्यक्त करने के लिए दुर्योधन ने यह इंगित किया कि पाण्डव पक्ष की ओर से महारथी (ऐसे योद्धा जो अकेले ही साधारण दस हजार योद्धाओं के साथ युद्ध करने की सामर्थ्य रखते हों) युद्ध करने के लिए उपस्थित हैं। दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना के ऐसे असाधारण महापराक्रमी योद्धाओं का उल्लेख भी किया जो अर्जुन और भीम के समान बलशाली महान सेना नायक थे जिन्हें युद्ध में पराजित करना कठिन होगा।


🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि वर्तमान की प्रस्थिति से जूझने के लिए तैयार रहना  है तो हर स्थिति को अच्छी तरह से जांच- परख लेना चाहिए।




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Daily Verse # 5
Chapter # 1, Verse 5




2 December 2023


धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् । पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः॥





अपने सम्मख संकट को मंडराते देखकर दुर्योधन को पाण्डवों द्वारा एकत्रित की गयी सेना वास्तविकता से अपेक्षाकृत अधिक विशाल प्रतीत होनी लगी। अपनी चिन्ता को व्यक्त करने के लिए दुर्योधन ने यह इंगित किया कि पाण्डव पक्ष की ओर से महारथी (ऐसे योद्धा जो अकेले ही साधारण दस हजार योद्धाओं के साथ युद्ध करने की सामर्थ्य रखते हों) युद्ध करने के लिए उपस्थित हैं। दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना के ऐसे असाधारण महापराक्रमी योद्धाओं (धृष्टकेतु, चेकितान काशी के पराक्रमी राजा कांशिराज, पुरूजित, कुन्तीभोज और शैव्य ) का उल्लेख भी किया जो अर्जुन और भीम के समान बलशाली महान सेना नायक थे जिन्हें युद्ध में पराजित करना कठिन होगा।


🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें  चुनौतियों की वास्तविकता का सही अंदाजा लगाना चाहिए ताकि पूरी तैयारी के साथ हर चुनौती का सामना कर सकें ।


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Daily Verse # 6
Chapter # 1, Verse 6




3 December 2023


युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् । सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः॥





दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना जो कि असाधारण महापराक्रमी योद्धाओं (युधमन्यु, शूरवीर, उत्तमौजा, सुभद्रा और द्रोपदी के पुत्रों ) का उल्लेख भी किया जो अर्जुन और भीम के समान बलशाली महान सेना नायक थे जिन्हें युद्ध में पराजित करना कठिन होगा।


🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि अगर हम चुनौतियों की वास्तविकता का सही अंदाजा लगा लेते हैं तो हर चुनौती का सामना करने की हिम्मत कर सकते हैं।


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Daily Verse # 7
Chapter # 1, Verse 7




4 December 2023


अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम। नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते






इस श्लोक में दुर्योधनका ऐसा भाव प्रतीत होता है कि हमारा पक्ष किसी भी तरह कमजोर नहीं है। परन्तु राजनीतिके अनुसार शत्रुपक्ष चाहे कितना ही कमजोर हो और अपना

पक्ष चाहे कितना ही सबल हो, ऐसी अवस्थामें भी शत्रुपक्षको कमजोर नहीं समझना चाहिये और अपनेमें उपेक्षा, उदासीनता आदिकी भावना किञ्चिन्मात्र भी नहीं आने देनी चाहिये। इसलिये सावधानीके लिये मैंने उनकी सेना की बात कही और अब अपनी सेना की बात कहता हूँ।
दूसरा भाव यह है कि पाण्डवों की सेनाको देखकर दुर्योधन पर बड़ा प्रभाव पड़ा और उसके मन में कुछ भय भी हुआ। कारण कि संख्या में कम होते हुए भी पाण्डव-सेना के पक्षमें बहुत-से धर्मात्मा पुरुष थे और स्वयं भगवान् थे।



🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि जिस पक्ष में धर्म और भगवान् रहते हैं, उसका सब पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। पापी-से-पापी, दुष्ट-से-दुष्ट व्यक्ति पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। 


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Daily Verse # 8
Chapter # 1, Verse 8





5 December 2023



भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः । अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥







इस श्लोक में दुर्योधन का ऐसा भाव प्रतीत होता है कि आप और पितामह भीष्म--दोनों ही बहुत विशेष पुरुष हैं। आप दोनों के समकक्ष संसार में तीसरा कोई भी नहीं है। आप दोनों के पराक्रम की बात जगत में प्रसिद्ध है। पितामह भीष्म तो आबाल ब्रह्मचारी हैं, और इच्छामृत्यु हैं अर्थात् उनकी इच्छा के बिना उन्हें कोई मार ही नहीं सकता।

कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण तथा सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा आदि भी बहुत ही शूरवीर हैं। मुझे तो ऐसा विश्वास है कि  ये अकेले ही पाण्डव-सेना पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। 


🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें विजय प्राप्त करने के लिए अपने पक्ष की प्राप्तियों को नज़रंदाज नहीं करना चाहिए


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Daily Verse # 9
Chapter # 1, Verse 9




6 December 2023


अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः। नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥



इस श्लोक में दुर्योधन का ऐसा भाव है कि सभी योद्धा हाथ में रखकर प्रहार करने वाले तलवार, गदा, त्रिशूल आदि नाना प्रकारके शस्त्रों की कला में निपुण हैं और हाथ से फेंककर प्रहार करने वाले बाण, तोमर, शक्ति आदि अस्त्रों की कला में भी निपुण हैं। युद्ध कैसे करना चाहिये; किस तरह से, किस पैंतरेसे और किस युक्तिसे युद्ध करना चाहिये; सेना को किस तरह खड़ी करनी चाहिये आदि युद्ध की कलाओं में भी ये बड़े निपुण हैं, कुशल हैं।


🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें चुनौतियों का सामना बहुत कुशलता, निपुणता से करना चाहिए।


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Daily Verse # 10
Chapter # 1, Verse 10




 December 7, 2023


अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥





*Daily Verse/ Shloka # 10*
 ( श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय # 1 के पावन पन्नों से)

  इस श्लोक में दुर्योधन का ऐसा भाव है कि दुर्योधन के आत्म प्रशंसा करने वाले ये शब्द मिथ्याभिमान करने वाले मनुष्यों की वशिष्ट उक्ति जैसे थे। जब उन्हें अपना अन्त निकट दिखाई देता है तब स्थिति का आंकलन करने के पश्चात आत्मप्रशंसा करने वाले व्यक्ति अभिमानपूर्वक मिथ्या गर्व करने लगते हैं। अपने भविष्य के प्रति अनर्थकारी व्यंगोक्ति दुर्योधन के कथन में तब अभिव्यक्त हुई जब उसने कहा कि भीष्म पितामह द्वारा संरक्षित उनकी शक्ति असीमित थी। 

भीष्म पितामह कौरव सेना के प्रधान सेनापति थे। उन्हें इच्छा मृत्यु और अपनी मृत्यु का समय निश्चित करने का वरदान प्राप्त था जिससे वह वास्तव में अजेय कहलाते थे। पाण्डव पक्ष की सेना भीम के संरक्षण में थी जो दुर्योधन का जन्मजात शत्रु था। इसलिए दुर्योधन ने भीष्म के साथ भीम की अल्प शक्ति की तुलना की। भीष्म कौरव और पाण्डवों के पितामह थे और वे वस्तुतः दोनों पक्षों का कल्याण चाहते थे। पाण्डवों के प्रति करूणा भाव भीष्म पितामह को तन्मयता से युद्ध करने से रोकता था। वे यह भी जानते थे कि इस धर्मयुद्ध में भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों की ओर से उपस्थित थे और संसार की कोई भी शक्ति अधर्म का पक्ष लेने वालों को विजय नही दिला सकती। इसलिए भीष्म पितामह ने अपने नैतिक उत्तरदायित्व का पालन करने और हस्तिनापुर एवं कौरवों के हित की रक्षा हेतु पाण्डवों के विरूद्ध युद्ध करने का निर्णय लिया। यह निर्णय भीष्म पितामह के व्यक्तित्व के विचित्र लक्षण को रेखांकित करता है।

🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें आत्मप्रशंसा नहीं करनी चाहिए क्योंकि आत्मप्रशंसा करने वाला व्यक्ति अभिमानपूर्वक मिथ्या गर्व करने लगता है।
  


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🕉 इस link पर हम श्रीमद्भगवद्गीता का एक श्लोक हर रोज़ share कर रहे हैं। अगर आप चाहें तो इसे follow करके दिव्य भक्ति और दिव्य ज्ञान का आनंद ले सकते हैं।
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Daily Verse # 11
Chapter # 1, Verse 11




 December 8, 2023




दुर्योधन यह समझ गया था कि भीष्म पितामह मानसिक रूप से पाण्डवों के विरूद्ध आक्रान्त होकर युद्ध लड़ने को इच्छुक नही हैं जिसके कारण वे सैनिकों को वीरता और उत्साह से युद्ध करने के लिए प्रेरित नही करेंगे। इसलिए उसने अपनी सेना के अन्य सेना नायकों से अपनी-अपनी स्थिति पर अडिग रहने के साथ-साथ चारों ओर से भीष्म पितामह की सुरक्षा का भी ध्यान रखने को कहा।

🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें अपनी स्थिति पर अडिग रहने के साथ-साथ दूसरों की सुरक्षा का भी ध्यान  भी रखना चाहिए।



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Daily Verse # 12
Chapter # 1, Verse 12




 December 9, 2023






भीष्म पितामह अपने भतीजे दुर्योधन के भीतर के भय को समझ गये थे और उसके प्रति अपने स्वाभाविक करूणाभाव के कारण उन्होंने दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए उच्च स्वर में शंखनाद किया। यद्यपि वे जानते थे कि दूसरे पक्ष पाण्डवों की सेना में स्वयं परम पुरूषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के उपस्थित होने पर दुर्योधन किसी भी स्थिति में युद्ध में विजय प्राप्त नहीं कर सकता। फिर भी भीष्म यह बताना चाहते थे कि वे युद्ध करने के अपने दायित्व का भली-भांति पालन करेंगे और इस संबंध में किसी भी प्रकार की शिथिलता नहीं दिखाएंगे। उस समय प्रचलित युद्ध के नियमों के अनुसार शंखनाद द्वारा युद्ध का उद्घाटन किया जाता था।

🪔🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें प्रतिफल के बारे में सोच कर हार स्वीकार करने की जगह अपने दायित्व का भली-भांति पालन करना चाहिए ।
  



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Daily Verse # 13
Chapter # 1, Verse 13




 December 10, 2023


ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः। सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥


युद्ध के लिए भीष्म पितामह के तीव्र उत्साह को देखते हुए कौरवों की सेना ने भी अति उत्सुकता से वाद्ययंत्र बजाकर भयंकर ध्वनि उत्पन्न की। पणव का अर्थ ढोल, आनक का अर्थ मृदंग और गो-मुख का अर्थ सींग बजाना है। ये सभी वाद्ययंत्र थे और इनकी समवेत ध्वनि के कारण युद्धक्षेत्र में भयंकर कोलाहल उत्पन्न हुआ। 

'भेरी' नाम नगाड़ों का है (जो बड़े नगाड़े होते हैं उनको नौबत कहते हैं)। ये नगाड़े लोहे के बने हुए और भैंसे के चमड़े से मढ़े हुए होते हैं तथा लकड़ी के डंडे से बजाये जाते हैं। ये मन्दिरों में एवं राजाओं के किलों में रखे जाते हैं। उत्सव और माङ्गलिक कार्यों में ये विशेषता से बजाये जाते हैं। राजाओं के यहाँ ये रोज बजाये जाते हैं।

'पणव' नाम ढोल का है। ये लोहे के अथवा लकड़ी के बने हुए और बकरे के चमड़े से मढ़े हुए होते हैं तथा हाथ से या लकड़ी के डंडे से बजाये जाते हैं। ये आकार में ढोलकी की तरह होने पर भी ढोलकी से बड़े होते हैं। कार्य के आरम्भ में पणवों को बजाना गणेशजी के पूजन के समान माङ्गलिक माना जाता है।

 'आनक' नाम मृदङ्ग का है। इनको पखावज भी कहते हैं। आकार में ये लकड़ी की बनायी हुई ढोलकी के समान होते हैं। ये मिट्टी के बने हुए और चमड़े से मढ़े हुए होते हैं तथा हाथ से बजाये जाते हैं। 'गोमुख' नाम नरसिंघे का है। ये आकार में साँप की तरह टेढ़े होते हैं और इनका मुख गाय की तरह होता है। ये मुख की फूँक से बजाये जाते हैं।



🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें पूरी तैयारी, हौंसले और उत्साह के साथ हर चुनौती का सामना करना चाहिए ।




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Daily Verse # 14
Chapter # 1, Verse 14




 December 11, 2023

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ। माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः॥



कौरवों की सेना के शंख नाद की ध्वनि धीमी पड़ने के पश्चात भव्य रथ पर आसीन भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने निर्भीकता से पूरी शक्ति के साथ शंख नाद करते हुए उसी प्रकार से पाण्डवों द्वारा वीरता से युद्ध लड़ने की उत्कंठा प्रकट की। संजय ने माधव शब्द का प्रयोग श्रीकृष्ण के लिए किया। 'मा' का अर्थ भाग्य के देवता से है और 'धव' का अर्थ पति से है। भगवान श्रीकृष्ण विष्णु के रूप में भाग्य की देवी लक्ष्मी के पति है। यह श्लोक दर्शाता है कि भाग्य की देवी की अनुकंपा पाण्डवों पर थी और वे शीघ्र युद्ध में विजय प्राप्त कर अपना छीना गया साम्राज्य प्राप्त कर लेंगे। पाण्डवों से तात्पर्य पाण्डु के पुत्रों से है। पाँच भाइयों में किसी भी भाई को पाण्डव कहकर संबोधित किया जाता है। यहाँ पर पाण्डव शब्द अर्जुन के लिए प्रयुक्त हुआ है। जिस भव्य रथ पर वह आसीन था वह उसे अग्नि देवता ने उपहार स्वरूप भेंट किया था।


चित्ररथ गन्धर्व ने अर्जुन को सौ दिव्य घोड़े दिये थे। इन घोड़ों में यह विशेषता थी कि इनमें से युद्ध में कितने ही घोड़े क्यों न मारे जायँ, पर ये संख्या में सौ-के-सौ ही बने रहते थे, कम नहीं होते थे। ये पृथ्वी, स्वर्ग आदि सभी स्थानों में जा सकते थे। इन्हीं सौ घोड़ों में से सुन्दर और सुशिक्षित चार सफेद घोड़े अर्जुन के रथ में जुते हुए थे।


🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि जिस भक्त के साथ साक्षात् भगवान् श्री कृष्ण हों, उसकी शोभा और तेज बहुत ज्यादा बढ़ जाता है ।


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Daily Verse # 15
Chapter # 1, Verse 15





 December 12, 2023



पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः। पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्ख भीमकर्मा वृकोदरः॥


इस श्लोक में श्रीकृष्ण के लिए 'ऋषीकेश' शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ मन और इन्द्रियों का स्वामी है। श्रीकृष्ण स्वयं अपनी और समस्त प्राणियों के मन और इन्द्रियों के परम स्वामी हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने धरती पर अपनी अद्भुत लीलाएं करते समय भी अपने मन और इन्द्रियों को पूर्ण नियंत्रण में रखा।


भगवान् ने पञ्चजन नामक शंखरूपधारी दैत्य को मारकर उसको शंखरूप से ग्रहण किया था, इसलिये इस शंख का नाम 'पाञ्चजन्य' हो गया।

राजसूय यज्ञके समय अर्जुन ने बहुत से राजाओं को जीतकर बहुत धन इकट्ठा किया था। इस कारण अर्जुन का नाम 'धनञ्जय' पड़ गया।

निवातकवचादि दैत्यों के साथ युद्ध करते समय इन्द्रने अर्जुनको 'देवदत्त' नामक शंख दिया था। इस शंख की ध्वनि बड़े जोर से होती थी, जिससे शत्रुओं की सेना घबरा जाती थी। इस शंख को अर्जुन ने बजाया।

जठराग्नि के सिवाय 'वृक' नामकी एक विशेष अग्नि थी, जिससे बहुत अधिक भोजन पचता था। इस कारण उनका नाम 'वृकोदर' पड़ गया। ऐसे भीमकर्मा वृकोदर भीमसेन ने बहुत ब़ड़े आकारवाला 'पौण्ड्र' नामक शंख बजाया।




🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि मन और इन्द्रियों को नियंत्रण में रखना चाहिए और समय आने पर अपने साहस का परिचय भी दे देना चाहिए।



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Daily Verse # 16
Chapter # 1, Verse 16





 December 13, 2023



अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥




युधिष्ठिर पाण्डवों के सबसे बड़े भाई थे। यहाँ उन्हें राजा कहकर संबोधित किया गया है। उन्होंने 'राजा' कहलाने की उपाधि राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान कर अन्य राजाओं से उपहार एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करने के पश्चात पायी थी। उनके आचरण में राजसी गरिमा और उदारता सदैव टपकती रहती थी फिर चाहे जब वह महलों में रहते थे या अपने निर्वासन काल के दौरान वनों मे रहे।

धृतराष्ट्र को संजय द्वारा 'पृथ्वी का राजा' कहा गया है। युधिष्ठिरजी वनवास के पहले अपने आधे राज्य-(इन्द्रप्रस्थ-) के राजा थे, और नियमके अनुसार बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवासके बाद वे राजा होने चाहिये थे।


अर्जुन, भीम और युधिष्ठिर--ये तीनों कुन्तीके पुत्र हैं तथा नकुल और सहदेव--ये दोनों माद्रीके पुत्र हैं, यह विभाग दिखानेके लिये ही यहाँ युधिष्ठिरके लिये 'कुन्तीपुत्र' विशेषण दिया गया है।



🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि देश की रक्षा करना या उसे विनाशकारी युद्धों में उलझाए रखना यह सब राजा के हाथों में होता है।




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Daily Verse # 17
Chapter # 1, Verse 17




 December 14, 2023

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः। धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः॥



महारथी शिखण्डी बहुत शूरवीर था। यह पहले जन्म में स्त्री (काशिराज की कन्या अम्बा) था और इस जन्म में भी राजा द्रुपद को पुत्री रूप से प्राप्त हुआ था। आगे चलकर यही शिखण्डी स्थूणाकर्ण नामक यक्ष से पुरुषत्व प्राप्त करके पुरुष बना। भीष्मजी इन सब बातों को जानते थे और शिखण्डी को स्त्री ही समझते थे। इस कारण वे इस पर बाण नहीं चलाते थे। अर्जुन ने युद्ध के समय इसी को आगे करके भीष्म जीपर बाण चलाये और उनको रथ से नीचे गिरा दिया।


🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें सहयोग, साहस और उत्साह से अपने कार्य को करना चाहिए। (शंख साहस और उत्साह का प्रतीक है।)
 
 




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Daily Verse # 18
Chapter # 1, Verse 18




 December 15, 2023


द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते। सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक् पृथक्॥




सञ्जय ने शंखवादन के वर्णन में कौरव सेना के शूरवीरों में से केवल भीष्म जी का ही नाम लिया और पाण्डव सेना के शूरवीरों में से भगवान् श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीम आदि अठारह वीरों के नाम लिये। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि सञ्जय के मन में अधर्म के पक्ष-(कौरवसेना-) का आदर नहीं है। इसलिये वे अधर्म के पक्ष का अधिक वर्णन करना उचित नहीं समझते। परन्तु उनके मन में धर्म के पक्ष-(पाण्डवसेना-) का आदर होने से और भगवान् श्रीकृष्ण तथा पाण्डवोंके प्रति आदरभाव होने से वे उनके पक्ष का ही अधिक वर्णन करना उचित समझते हैं और उनके पक्ष का वर्णन करने में ही उनको आनन्द आ रहा है।



सम्बन्ध--पाण्डवसेना के शंखवादन का कौरव सेना पर क्या असर हुआ--इसको आगे के श्लोक में कहते हैं।




🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि सत्य के मार्ग पर चलते हुए हमें धर्म और कर्म से अपने सगे- संबंधियों और बड़ों का साथ देना चाहिए।  (जैसे द्रौपदी के पांच पुत्रों तथा सुभद्रा के महाबलशाली पुत्र वीर अभिमन्यु आदि सबने धर्म और सत्य का साथ दिया।)


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Daily Verse # 19

Chapter # 1, Verse 19




 December 16, 2023

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्। नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलोऽभ्यनुनादयन् ॥




पाण्डव सेना द्वारा बजाए गए विविध प्रकार के शंखों से उत्पन्न भयंकर ध्वनि से कौरव सेना के सैनिकों के हृदय विदीर्ण हो गये जबकि कौरवों की सेना ने जब शंखनाद किया था तब पाण्डवों की सेना पर इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव नही पड़ा क्योंकि पाण्डवों को भगवान श्रीकृष्ण का आश्रय प्राप्त था। इसलिए उन्हें अपनी सुरक्षा का पूरा भरोसा था। दूसरी ओर कौरवों को केवल अपनी स्वयं की शक्ति और सामर्थ्य पर भरोसा था और अपने अत्याचारों के अपराध बोध की कसक से उनके भीतर पराजित होने का भय व्याप्त हो गया था।


🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि जिनके हृदय में अधर्म, पाप, अन्याय नहीं है अर्थात् जो धर्मपूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करते हैं, उनका हृदय मजबूत होता है, उनके हृदय में भय नहीं होता। न्याय का पक्ष होने से उनमें उत्साह होता है ,शूरवीरता होती है।


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Daily Verse # 20

Chapter # 1, Verse 20





 December 17, 2023


अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः। प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः। हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ॥






इस श्लोक में अर्जुन के रथ को कपि-ध्वज कह कर संबोधित किया गया है क्योंकि उसके रथ पर महावीर हनुमान के चिन्ह की ध्वजा प्रदर्शित हो रही थी। इसकी पृष्ठभूमि में एक कथा इस प्रकार है। अर्जुन को एक बार अपनी धनुर्विद्या पर घमण्ड हो गया था और उसने श्रीकृष्ण से कहा कि भगवान श्रीराम के समय वानरों ने भारत से लंका के बीच समुद्र में सेतु बनाने में व्यर्थ ही इतना परिश्रम क्यों किया? यदि वह वहाँ उपस्थित होता तो वह बाणों से सेतु का निर्माण कर देता। श्रीकृष्ण ने उसे इसका प्रदर्शन करने को कहा। अर्जुन ने अपने धनुष से चलाये गये बाणों की बौछार से एक सेतु का निर्माण कर दिया। श्रीकृष्ण ने वीर हनुमान को बुलाया और उन्हें उस सेतु का परीक्षण करने को कहा। जब वीर हनुमान ने उस सेतु पर चलना आरंभ किया तो वह टूटने लगा। तब अर्जुन ने अनुभव किया कि उसके बाणों द्वारा बनाया गया सेतु कभी भी भगवान श्रीराम की सेना के भार को सहने के लिए उपयुक्त नहीं होता और उसने अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी। तब वीर हनुमान ने अर्जुन को शिक्षा दी कि कभी भी अपने बल और कौशल का घमंड नहीं करना चाहिए। उन्होंने अपनी इच्छा से अर्जुन को यह वरदान दिया कि महाभारत के युद्ध के दौरान वह उसके रथ पर आसीन रहेंगे। इसलिए अर्जुन के रथ पर हनुमान के चित्र से अंकित ध्वजा लगाई गई थी जिसके कारण उसका नाम 'कपि-ध्वज' या 'वानर-ध्वज' पड़ गया।


🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि जहां हनुमान जी होते हैं, वहां विजय होती है। कपि-ध्वज इस बात का प्रतीक है कि हनुमान जी युद्ध दौरान अर्जुन के रथ पर आसीन थे।




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Daily Verse # 21

Chapter # 1, Verse 21







 December 18, 2023


हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ॥ सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥


दोनों सेनाएँ जहाँ युद्ध करने के लिये एक-दूसरे के सामने खड़ी थीं, वहाँ उन दोनों सेनाओं में इतनी दूरी थी कि एक सेना दूसरी सेना पर बाण आदि मार सके। उन दोनों सेनाओं का मध्यभाग दो तरफसे मध्य था-- (1) सेनाएँ जितनी चौड़ी खड़ी थीं, उस चौड़ाई का मध्यभाग और (2) दोनों सेनाओं का मध्यभाग, जहाँ से कौरव-सेना जितनी दूरी पर खड़ी थी, उतनी ही दूरी पर पाण्डव-सेना खड़ी थी। ऐसे मध्यभाग में रथ खड़ा करने के लिये अर्जुन भगवान से कहते हैं, जिससे दोनों सेनाओं को आसानी से देखा जा सके।

अर्जुन की श्रद्धा और भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध में उसके रथ के सारथी बने जबकि अर्जुन यात्री के रूप में उस रथ के आसन पर सुविधापूर्वक बैठे हुए श्रीकृष्ण को निर्देश देता रहा।

हम जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, हमें श्री कृष्ण के कई नाम सुनने को मिलेंगे। तो ‘केशव’, ‘ऋषिकेश’ और अभी यहाँ पर कहा ‘अच्युत’; अच्युत माने जो बटा हुआ नहीं है, खंडित नहीं है। नामों की बड़ी महत्ता है और नाम यूँ ही नहीं होते।


🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि 

  1. श्रद्धा और भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान भक्त के सारथी भी बन जाते हैं और निर्देश का पालन भी करते हैं। 
  2. जीवन में आ रही हर चुनौती एवं प्रस्थिति का नजदीक से अध्ययन करना चाहिए। तभी हम सही निर्णय लेने में समर्थ हो सकते हैं।


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Daily Verse # 22

Chapter # 1, Verse 22





 December 19, 2023


यावदेतानिरीक्षेऽहं योद्धकामानवस्थितान्। कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥


अर्जुन संपूर्ण सृष्टि के परम स्वामी भगवान श्रीकृष्ण का परम भक्त था। यद्यपि इस श्लोक में अर्जुन ने भगवान को अपनी इच्छानुसार अपेक्षित स्थान पर रथ ले जाने का निर्देश दिया है जोकि यह दर्शाता है कि भगवान अपने प्रिय भक्तों से अगाध प्रेम करते हैं। भक्त के प्रति अपने निश्छल प्रेम के कारण भगवान उनके ऋणी हो जाते हैं।



अर्जुन कहते हैं कि युद्धकी इच्छाको लेकर कौरव-सेनामें आये हुए सेनासहित जितने भी राजालोग खड़े हैं, उन सबको जबतक मैं देख न लूँ, तबतक आप रथको वहीं खड़ा रखिये। इस युद्धके उद्योगमें मुझे किन-किनके साथ युद्ध करना है? उनमें कौन मेरे समान बलवाले हैं? कौन मेरे से कम बलवाले हैं? और कौन मेरेसे अधिक बलवाले हैं? उन सबको मैं जरा देख लूँ।

यहाँ 'योद्धुकामान्' पदसे अर्जुन कह रहे हैं कि हमने तो सन्धिकी बात ही सोची थी, पर उन्होंने सन्धिकी बात स्वीकार नहीं की; क्योंकि उनके मनमें युद्ध करनेकी ज्यादा इच्छा है। अतः उनको मैं देखूँ कि कितने बलको लेकर वे युद्ध करनेकी इच्छा रखते हैं।


🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि भगवान अपने प्रिय भक्तों से अगाध प्रेम करते हैं। भक्त के प्रति अपने निश्छल प्रेम के कारण भगवान उनके ऋणी हो जाते हैं।


जीवन में आ रही हर चुनौती एवं प्रस्थिति का नजदीक से अध्ययन करना चाहिए। तभी हम सही निर्णय लेने में समर्थ हो सकते हैं।


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Daily Verse # 23

Chapter # 1, Verse 23




 December 20, 2023



योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः। धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेयुद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥



धृतराष्ट्र के दुष्ट पुत्रों ने छल से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया था इसलिए कौरवों के पक्ष में युद्ध करने आये योद्धागण भी स्वाभाविक रूप से दुष्ट प्रवृत्ति वाले थे। अर्जुन उन योद्धाओं को जिनके साथ उसे युद्ध करना था, को देखना चाहता था। आरम्भ में अर्जुन की वीरतापूर्वक युद्ध लड़ने की प्रबल इच्छा थी। इसलिए वह धृतराष्ट्र के पुत्रों को दुष्ट मनोवृत्ति से ग्रस्त कह कर यह इंगित करना चाहता था कि किस प्रकार से दुर्योधन ने कई बार पाण्डवों का विनाश करने का षडयंत्र रचा। उस समय अर्जुन ने ऐसे मनोभाव व्यक्त किए-“हम विधिपूर्वक आधे साम्राज्य के अधिकारी थे, किन्तु वह उसे हड़पना चाहता था। वह दुष्ट मनोवृत्ति वाला है इसलिए उसकी सहायता के लिए एकत्रित राजा लोग भी दुश्चरित्र हैं। मैं उन योद्धाओं को देखना चाहता हूँ जो युद्ध करने के लिए व्यग्र हैं। वे अन्याय का पक्ष ले रहे हैं और इसलिए हमारे हाथों उनका विनाश निश्चित है।"



🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि 

●जो लोग अधर्म का, अन्याय का पक्ष लेते हैं, वे सत्य और धर्म के सामने टिक नहीं सकेंगे, नष्ट हो जायँगे।

● जिसकी जैसी मनोवृत्ति होती है, वैसी ही संगति होती है। धूर्त का साथ देने वाले भी धूर्त ही समझे जाते हैं।


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Daily Verse # 24
Chapter # 1, Verse 24




21 December 2023


एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत। सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥


अपने सखा भक्त अर्जुन के द्वारा आज्ञा देने पर अन्तर्यामी भगवान् श्री कृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीचमें अर्जुन का रथ खड़ा कर दिया।

जो इन्द्रियों के ईश अर्थात् स्वामी हैं, उनको हृषीकेश कहते हैं। पहले इक्कीसवें श्लोक में और यहाँ 'हृषीकेश' कहने का तात्पर्य है कि जो मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि सबके प्रेरक हैं सबको आज्ञा देने वाले हैं, वे ही अन्तर्यामी भगवान् यहाँ अर्जुन की आज्ञा का पालन करने वाले बन गये हैं! यह उनकी अर्जुन पर कितनी अधिक कृपा है!


🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि जो निद्रा-आलस्य के सुख का गुलाम नहीं होता और जो विषय-भोगों का दास नहीं होता, केवल भगवान् का  ही दास (भक्त) होता है, उस भक्त की बात भगवान् सुनते हैं; केवल सुनते ही नहीं, उसकी आज्ञा का पालन भी करते हैं। 





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Daily Verse # 25
Chapter # 1, Verse 25




22 December 2023


भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्। उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ॥




 "कुरु" शब्द का प्रयोग कौरवों और पाण्डवों दोनों के लिए किया गया है क्योंकि दोनों कुरु वंशज थे। भगवान श्रीकृष्ण ने जान बूझकर इस शब्द का प्रयोग किया ताकि अर्जुन में बंधुत्व की भावना जागृत हो और उसे यह प्रतीत हो कि वे सब एक ही हैं। वे चाहते थे कि बंधुत्व की भावना से अर्जुन में मोह उत्पन्न होगा और जिससे वह विचलित हो जाएगा जिसके परिणामस्वरूप उन्हें आगे आने वाले कलियुग में मानव मात्र के कल्याण के लिए गीता के सिद्धान्त का दिव्य उपदेश देने का अवसर प्राप्त होगा। इसलिए उन्होंने 'धृतराष्ट्रतन' धृतराष्ट्र के पुत्रों के स्थान पर 'कुरु' कुरुवंशज शब्द का प्रयोग किया। जिस प्रकार एक सर्जन फोड़े की पीड़ा से ग्रस्त रोगी को पहले उसकी पीड़ा कम करने के लिए औषधि देता है और उसके रूग्ण अंग की चीर-फाड़ करता है, उसी प्रकार से भगवान श्रीकृष्ण ने भी पहले अर्जुन के भीतर छिपे मोह को जागृत किया ताकि बाद में उसे नष्ट किया जा सके।

युद्ध के लिये एकत्र हुए इन कुरुवंशियों को देख--ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि इन कुरुवंशियों को देखकर अर्जुन के भीतर यह भाव पैदा हो जाय कि हम सब एक ही तो हैं! इस पक्ष के हों, चाहे उस पक्षके हों; भले हों, चाहे बुरे हों; सदाचारी हों; चाहे दुराचारी हों; पर हैं सब अपने ही कुटुम्बी। इस कारण अर्जुन में छिपा हुआ कौटुम्बिक ममतायुक्त मोह जाग्रत् हो जाय और मोह जाग्रत् होने से अर्जुन जिज्ञासु बन जाय, जिससे अर्जुनको निमित्त बनाकर भावी कलियुगी जीवोंके कल्याणके लिये गीताका महान् उपदेश किया जा सके।


🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि भगवान् भक्त के भीतर छिपे हुए मोह को पहले जाग्रत् करके फिर उसको मिटाते हैं।


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Daily Verse # 26

Chapter # 1, Verse 26




 December 23, 2023



तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान्। आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ॥




अर्जुन युद्धभूमि में अपने सभी सम्बंधियों को देख सका। वह अपने पिता के समकालीन भूरिश्रवा जैसे व्यक्तियों, भीष्म तथा सोमदत्त जैसे पितामहों, द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य जैसे गुरुओं, शल्य तथा शकुनि जैसे मामाओं, दुर्योधन जैसे भाईयों, लक्ष्मण जैसे पुत्रों, अश्वत्थामा जैसे मित्रों एवं कृतवर्मा जैसे शुभचिन्तकों को देख सका। वह उन सेनाओं को भी देख सका जिनमें उसके मित्र थे।


🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि अपने भाई-बंधु कितने भी अच्छे-बुरे हों, इंसान के मन में उनके लिए मोह उत्पन्न हो ही जाता है।



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Daily Verse # 27

Chapter # 1, Verse 27





 December 24, 2023


तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्। कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ॥

 



अपने बंधु बान्धवों को युद्ध स्थल पर एकत्रित देखकर अर्जुन का ध्यान पहली बार भातृहत्या वाले इस भयंकर युद्ध के परिणामों की ओर गया। वह महापराक्रमी योद्धा जो युद्ध लड़ने के लिए उद्यत था और पाण्डवों के प्रति किए गए अन्यायपूर्ण व्यवहार का प्रतिशोध लेने हेतु शत्रुओं को मृत्यु के द्वार पहुँचाने के लिए मानसिक रूप से तैयार था, उस अर्जुन का हृदय अचानक परिवर्तित हो गया। शत्रु पक्ष की ओर से एकत्रित अपने कुरु बंधु बान्धवों को देखकर अर्जुन का हृदय शोक में डूब गया, उसकी बुद्धि भ्रमित हो गयी और अपने कर्त्तव्य का पालन करने के लिए उसकी निडरता कायरता में परिवर्तित हो गई। उसके हृदय की दृढ़ता ने कोमलता का स्थान ले लिया। इसलिए संजय उसे कुन्ती 'उसकी माता' पुत्र कहकर उसके स्वभाव की सहृदयता और उदारता को व्यक्त करता है।

दोनों ही सेनाओं में जन्म के और विद्या के सम्बन्धी-ही-सम्बन्धी देखने से अर्जुनके मन में यह विचार आया कि युद्ध में चाहे इस पक्ष के लोग मरें, चाहे उस पक्षके लोग मरें, नुकसान हमारा ही होगा, कुल तो हमारा ही नष्ट होगा, सम्बन्धी तो हमारे ही मारे जायँगे! ऐसा विचार आनेसे अर्जुनकी युद्ध की इच्छा तो मिट गयी और भीतर में कायरता आ गयी।

🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि आपसी झगडे में दोष चाहे किसी  भी पक्ष के लोगों  का हो , नुकसान दोनों का ही होगा, कुल तो उनका ही नष्ट होगा, सम्बन्ध तो उनके ही खराब होंगे।


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Daily Verse # 28

Chapter # 1, Verse 28



 December 25, 2023

दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्। सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ॥



अर्जुन के मन में युद्ध के भावी परिणाम को लेकर चिन्ता हो रही है, दुःख हो रहा है। उस चिन्ता, दुःख का असर अर्जुन के सारे शरीर पर पड़ रहा है। उसी असर को अर्जुन स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि मेरे शरीर का हाथ, पैर, मुख आदि एक-एक अङ्ग (अवयव) शिथिल हो रहा है! मुख सूखता जा रहा है। जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है! सारा शरीर थर-थर काँप रहा है! शरीर के सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर रोमाञ्चित हो रहा है! जिस गाण्डीव धनुष की प्रत्यञ्चा की टङ्कार से शत्रु भयभीत हो जाते हैं वही गाण्डीव धनुष आज मेरे हाथ से गिर रहा है! त्वचा में--सारे शरीरमें जलन हो रही है । मेरा मन भ्रमित हो रहा है अर्थात् मेरे को क्या करना चाहिये--यह भी नहीं सूझ रहा है! यहाँ युद्धभूमि में रथ पर खड़े रहने में भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ! ऐसा लगता है कि मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ूँगा! ऐसे अनर्थकारक युद्ध में खड़ा रहना भी एक पाप मालूम दे रहा है। पूर्वश्लोक में अपने शरीर के शोकजनित आठ चिह्नों का वर्णन करके अब अर्जुन भावी परिणाम के सूचक शकुनों की दृष्टि से युद्ध करने का अनौचित्य बताते हैं।


🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि सांसारिक मोह का अनुभव कर इंसान शोक के महासागर में डूब जाता है और वह अपने कर्तव्य पालन के विचार से कांपने लगता है।


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Daily Verse # 29

Chapter # 1, Verse 29



 December 28, 2023


सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ॥ वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते || (2nd half of 28 and 29)





अर्जुन के मनमें युद्ध के भावी परिणाम को लेकर चिन्ता हो रही है, दुःख हो रहा है। उस चिन्ता, दुःख का असर अर्जुन के सारे शरीर पर पड़ रहा है। उसी असर को अर्जुन स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि मेरे शरीर का एक-एक अङ्ग (अवयव) शिथिल हो रहा है! मुख सूखता जा रहा है। जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है! सारा शरीर थर-थर काँप रहा है! शरीर के सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर रोमाञ्चित हो रहा है! 

 

🕉 गीता जी का यह श्लोक हमें बताता है कि पारिवारिक मोह के मायाजाल में इंसान इतना फंस जाता है कि इसका प्रभाव उसके मन- मस्तिष्क और शरीर पर स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है।



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Daily Verse  # 30
Chapter # 1, Verse  30




29 December 2023

दुर्योधनका देखना तो एक तरह का ही रहा अर्थात् दुर्योधन का तो युद्ध का ही एक भाव रहा; परन्तु अर्जुन का देखना दो तरह का हुआ। पहले तो अर्जुन धृतराष्ट्र के पुत्रों को देखकर वीरता में आकर युद्ध के लिये धनुष उठाकर खड़े हो जाते हैं और अब स्वजनों को देखकर कायरता से आविष्ट हो रहे हैं, युद्ध से उपरत हो रहे हैं और उनके हाथ से धनुष गिर रहा है।


 अर्जुन के मन, में युद्धके भावी परिणाम को लेकर चिन्ता हो रही है, दुःख हो रहा है। उस चिन्ता, दुःख का असर अर्जुन के सारे शरीर पर पड़ रहा है। उसी असर को अर्जुन स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि मेरे शरीरका हाथ, पैर, मुख आदि एक-एक अङ्ग (अवयव) शिथिल हो रहा है! मुख सूखता जा रहा है। जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है! सारा शरीर थर-थर काँप रहा है! शरीर के सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर रोमाञ्चित हो रहा है! जिस गाण्डीव धनुष की प्रत्यञ्चा की टङ्कार से शत्रु भयभीत हो जाते हैं, वही गाण्डीव धनुष आज मेरे हाथसे गिर रहा है! त्वचा में--सारे शरीर में जलन हो रही है । मेरा मन भ्रमित हो रहा है अर्थात् मेरे को क्या करना चाहिये--यह भी नहीं सूझ रहा है! यहाँ युद्धभूमि में रथ पर खड़े रहने में भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ! ऐसा लगता है कि मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ूँगा! ऐसे अनर्थकारक युद्ध में खड़ा रहना भी एक पाप मालूम दे रहा है।


🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक हमें कुछ ना कुछ नया और अच्छा सिखाता है।


*गीता जी का यह श्लोक (#30) हमें सिखाता है कि हम भावी परिणाम मे बारें में सोच कर भयभीत और चिंतित हो जाते हैं और कमजोर पड़ जाते हैं ।उस चिन्ता, दुःख का असर हमारे सारे शरीर पर पड़ता है।*



गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चै व परिदह्यते। न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥

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Daily Verse # 31
Chapter # 1, Verse 31




 December 30, 2023


निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव। न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥


जब अर्जुन ने युद्ध के परिणामों पर विचार किया तब वह चिन्तित और उदास हो गया। अर्जुन का वह धनुष जिसकी टंकार से शक्तिशाली शत्रु भयभीत हो जाते थे, उसके हाथ से सरकने लगा। यह सोचकर कि युद्ध करना एक पाप पूर्ण कार्य है, उसका सिर चकराने लगा। मन की इस अस्थिरता के कारण वह हीन भावना से ग्रसित होकर अमंगलीय लक्षणों को स्वीकार करने लगा और विनाशकारी विफलता व सन्निकट परिणामों का पूर्वानुमान करने लगा।


 🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक ज्ञानवर्धक है।

*गीता जी का यह श्लोक (#31) हमें सिखाता है कि किसी भी कार्य के आरम्भ में मन में जितना अधिक उत्साह (हर्ष) होता है, वह उत्साह उस कार्य को उतना ही सिद्ध करने वाला होता है। परन्तु अगर कार्य के आरम्भ में ही उत्साह भङ्ग हो जाता है, मनमें संकल्प-विकल्प ठीक नहीं होते, तो उस कार्य का परिणाम अच्छा नहीं होता।


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Daily Verse # 32
Chapter # 1, Verse 32




 December 31, 2023


न काळे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च। किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेनवा ॥


अर्जुन के मन में यह सत्य जानकर उलझन उत्पन्न हुई कि हत्या करना अपने आप में एक पापपूर्ण कृत्य है और अपने ही स्वजनों को मारना तो पूर्णतया और अधिक कुत्सित कार्य है। अर्जुन को यह प्रतीत हुआ कि यदि उसने राज्य प्राप्त करने के लिए इस प्रकार के निर्दयतापूर्ण कार्य किए तब उसे ऐसी विजय से अंततोगत्वा कोई सुख प्राप्त नही होगा और वह इस ख्याति को अपने उन मित्रों और सगे-संबंधियों में बांटने में असमर्थ रहेगा जिन्हे युद्ध में मारकर उसे विजय प्राप्त होगी। यहाँ अर्जुन संवेदनशीलता की अधोः सीमा प्रदर्शित कर रहा है और उसे श्रेष्ठ मान रहा है। सांसारिक भोगों और भौतिक सुख-समृद्धि के प्रति विरक्ति प्रशंसनीय और सदगुण है किन्तु अर्जुन आध्यात्मिक भावों को भली भांति धारण नहीं कर पा रहा है अपितु इसके विपरीत उसका मोह करुणा के रूप में उसे धोखा दे रहा है। शुद्ध मनोभाव, आंतरिक सामंजस्य और संतोष आत्मा को सुख प्रदान करते हैं। यदि अर्जुन की संवेदनशीलता लोकातीत स्तर की होती तब वह संवेदनाओं से ऊपर उठ चुका होता। लेकिन उसके मनोभाव सर्वथा प्रतिकूल हैं क्योंकि वह अपने मन और बुद्धि में असामंजस्य और अपने कर्तव्य पालन के प्रति असंतोष और उस पर हावी संवेदनाओं का प्रभाव यह दर्शाता है कि उसकी संवेदनाएं उसके मोह से उत्पन्न हुई हैं।


 🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक ज्ञानवर्धक है।

*गीता जी का यह श्लोक (#32) हमें सिखाता है कि हमें संवेदनाओं को अपने मस्तिष्क पर इतना हावी नहीं  होने देना चाहिए कि वह हमें विजय प्राप्त करने में असक्षम बना दें ।


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Daily Verse # 33
Chapter # 1, Verse 33




 January 1, 2024



येषामर्थे काक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।॥

 


अर्जुन कहता है- हम राज्य, सुख, भोग आदि जो कुछ चाहते हैं, उनको अपने व्यक्तिगत सुख के लिये नहीं चाहते, प्रत्युत इन कुटुम्बियों, प्रेमियों, मित्रों आदि के लिये ही चाहते हैं। आचार्यों, पिताओं, पितामहों, पुत्रों आदिको सुख-आराम पहुँचे, इनकी सेवा हो जाय, ये प्रसन्न रहें--इसके लिये ही हम युद्ध करके राज्य लेना चाहते हैं, भोग-सामग्री इकट्ठी करना चाहते हैं।

पर वे ही ये सब-के-सब अपने प्राणों की और धन की आशा को छोड़कर युद्ध करने के लिये हमारे सामने इस रणभूमि में खड़े हैं। इन्होंने ऐसा विचार कर लिया है कि हमें न प्राणों का मोह है और न धन की तृष्णा है; हम मर बेशक जायँ, पर युद्ध से नहीं हटेंगे। अगर ये सब मर ही जायँगे, हमें राज्य किसके लिये चाहिये? सुख किसके लिये चाहिये धन किसके लिये चाहिये? अर्थात् इन सबकी इच्छा हम किसके लिये करें?

 वे प्राणों की और धन की आशा का त्याग करके खड़े हैं अर्थात् हम जीवित रहेंगे और हमें धन मिलेगा--इस इच्छा को छोड़कर वे खड़े हैं। अगर उन में प्राणों की और धन की इच्छा होती, तो वे मरने के लिये युद्ध में क्यों खड़े होते? अतः यहाँ प्राण और धन का त्याग करने का तात्पर्य उनकी आशा का त्याग करने में ही है।


🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक ज्ञानवर्धक है।


*गीता जी का यह श्लोक (#33) हमें सिखाता है कि शुद्ध मनोभाव, आंतरिक सामंजस्य और संतोष आत्मा को सुख प्रदान करते हैं। मन और बुद्धि में असामंजस्य और अपने कर्तव्य पालन के प्रति असंतोष और मन पर हावी संवेदनाओं का प्रभाव यह दर्शाता है कि संवेदनाएं  मोह से उत्पन्न होती हैं।



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Daily Verse # 34
Chapter # 1, Verse 34






 January 2, 2024


आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः। मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ॥


यहाँ पर जाति तथा कुटुम्बियों के प्रति अर्जुन का प्रगाढ़ स्नेह आंशिक रूप से इन सबके प्रति उसकी स्वभाविक करुणा के कारण है | अतः वह युद्ध करने के लिए तैयार नहीं है | हर व्यक्ति अपने वैभव का प्रदर्शन अपने मित्रों तथा परिजनों के समक्ष करना चाहता है किन्तु अर्जुन को भय है कि उसके सारे मित्र तथा परिजन युद्धभूमि में मारे जायेंगे और वह विजय के पश्चात् उनके साथ अपने वैभव का उपयोग नहीं कर सकेगा।



इस श्लोक में आपने सुना कि कैसे अर्जुन अनेक तर्क देकर अपने विचार को उचित सिद्ध करना चाहता है।

🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक ज्ञानवर्धक है।

*गीता जी का यह श्लोक (#34) हमें सिखाता है कि हम अनेक तर्क देकर अपने ग़लत विचार को उचित सिद्ध करना चाहते हैं । वास्तव में हम कर्तव्य करने से दूर भाग रहे होते हैं।*



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Daily Verse # 35
Chapter # 1, Verse 35







 January 3, 2024


एतान्न हन्तुमिच्छामि नतोऽपि मधुसूदन। अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥



द्रोणाचार्य और कृपाचार्य अर्जुन के गुरुजन थे और भीष्म एवं सोमदत पितामह, सोमदत का पुत्र, भूरिश्रवा जैसे लोग पिता तुल्य थे। पुरुजित, कुंतिभोज, शल्य, शकुनि मामा और धृतराष्ट्र के सौ पुत्र उनके चचेरे भाई थे। दुर्योधन का पुत्र, लक्ष्मण उसके पुत्र के समान था। अर्जुन युद्धस्थल पर उपस्थित अपने स्वजनों के साथ अपने संबंधों की व्याख्या कर रहा है। इस श्लोक में अर्जुन ने दो बार अपि शब्द-जिसका अर्थ 'यद्यपि' है, का प्रयोग किया है। प्रथम बार 'यद्यपि' के प्रयोग का अर्थ है-यदि वे मुझ पर आक्रमण करते हैं तब भी मेरी इच्छा उनका वध करने की नहीं होगी। दूसरी बार 'यद्यपि' के प्रयोग का अर्थ है-यदि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध कर देते हैं, तब भले ही हमें इससे पृथ्वी के तीनों लोक प्राप्त क्यों न होते हों, उसके पश्चात भी उनका वध करने से हमें कैसे सुख और शांति मिलेगी?


🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक ज्ञानवर्धक है।


*गीता जी का यह श्लोक (#35) हमें सिखाता है कि कर्तव्य परायण व्यक्ति न्यायशील होता है। परंतु मोह एवं उदारता जब कर्तव्य पर हावी हो जातें हैं तो व्यक्ति अपने कर्म के साथ न्याय नहीं कर पाता।*



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Daily Verse # 36
Chapter # 1, Verse 36






 January 4, 2024


निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन। पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः॥



अधिकतर परिस्थितियों में युद्ध लड़ना और किसी का वध करना प्रायः अधर्म माना जाता है जिसके कारण बाद में पश्चाताप और अपराध का बोध होता है। वेदों के अनुसार अहिंसा परम धर्म है और अपवाद स्वरूप कुछ विषम परिस्थतियों को छोड़कर अहिंसा पापकर्म भी है: मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि, अर्थात 'किसी भी प्राणी को मत मारो' यहाँ अर्जुन अपने कुटुम्बियों को मारना नही चाहता क्योंकि वह इसे पापपूर्ण कार्य मानता है। 


अर्जुन कहता है: कुटुम्बियों की याद आने पर उनका अभाव बार-बार खटकेगा। चित्त में उनकी मृत्युका शोक सताता रहेगा। ऐसी स्थिति में हमें कभी प्रसन्नता हो सकती है क्या ?तात्पर्य है कि इनको मारने से हम इस लोकमें जब तक जीते रहेंगे, तब तक हमारे चित्तमें कभी प्रसन्नता नहीं होगी और इनको मारने से हमें जो पाप लगेगा, वह परलोक में हमें भयंकर दुःख देने वाला होगा।


🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक नैतिकता सिखाता है।

*गीता जी का यह श्लोक (#36) हमें सिखाता है कि अहिंसा परम धर्म है और हिंसा पापकर्म है। ममताजनित मोह के कारण अगर हम पापकर्म कर बैठते हैं  बाद में हमें पश्चत्ताप ही करना पड़ेगा। 


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Daily Verse # 37

Chapter # 1, Verse 37






 January 5, 2024


तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्। स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥


अर्जुन अपने कुटुम्बियों को मारना नही चाहता क्योंकि वह इसे पापपूर्ण कार्य मानता है। 

विशिष्ट स्मृति (श्लोक 3:19) में छह प्रकार के आतातायियों का उल्लेख किया गया है जिनके विरूद्ध हमें अपनी रक्षा करने का अधिकार है। 

(1) किसी के घर को आग से जलाने वाला, 

(2) किसी के भोजन में विष मिलाने वाला, 

(3) किसी की हत्या करने वाला,

 (4) किसी का धन लूटने वाला, 

(5) पराई स्त्री का अपहरण करने वाला और 

(6) दूसरे का राज्य या भूमि हड़पने वाला। इन सब अत्याचारियों से अपनी रक्षा करने और इनका वध करने का सबको अधिकार है। मनु स्मृति 'श्लोक 8:351' में वर्णित है कि यदि कोई ऐसे अत्याचारियों का वध करता है तो उसे पाप नही लगता।

🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक नैतिकता के पथ पर चलना सिखाता है।

गीता जी का यह श्लोक (#37) हमें सिखाता है कि जहाँ मोह होता है, वहाँ मनुष्य का विवेक दब जाता है। विवेक दबने से मोह की प्रबलता हो जाती है। मोह के प्रबल होने से अपने कर्तव्य का स्पष्ट भान नहीं होता।


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Daily Verse # 38
Chapter # 1, Verse 38



 January 6, 2024


यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः। कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥


अब अर्जुन अपनी बात कहते हैं कि यद्यपि दुर्योधनादि अपने कुलक्षयसे होनेवाले दोषको और मित्रद्रोहसे होनेवाले पापको नहीं देखते, तो भी हमलोगोंको कुलक्षयसे होनेवाली अनर्थ-परम्पराको देखना ही चाहिये [जिसका वर्णन अर्जुन आगे चालीसवें श्लोकसे चौवालीसवें श्लोकतक करेंगे़]; क्योंकि हम कुलक्षयसे होनेवाले दोषोंको भी अच्छी तरहसे जानते हैं और मित्रोंके साथ द्रोह-(वैर, द्वैष-) से होनेवाली पापको भी अच्छी तरह से जानते हैं। अगर वे मित्र हमें दुःख दें, तो वह दुःख हमारे लिये अनिष्टकारक नहीं है। कारण कि दुःखसे तो हमारे पूर्वपापोंका ही नाश होगा, हमारी शुद्धि ही होगी। परन्तु हमारे मनमें अगर द्रोह--वैरभाव होगा, तो वह मरनेके बाद भी हमारे साथ रहेगा और जन्म-जन्मान्तर-तक हमें पाप करनेमें प्रेरित करता रहेगा, जिससे हमारा पतन-ही-पतन होगा। ऐसे अनर्थ करनेवाले और मित्रोंके साथ द्रोह पैदा करनेवाले इस युद्धरूपी पापसे बचनेका विचार क्यों नहीं करना चाहिये? अर्थात् विचार करके हमें इस पापसे जरूर ही बचना चाहिये। यहाँ अर्जुन की दृष्टि दुर्योधन आदिके लोभ की तरफ तो जा रही है, पर वे खुद कौटुम्बिक स्नेह-(मोह-) में आबद्ध होकर बोल रहे हैं--इस तरफ उनकी दृष्टि नहीं जा रही है। इस कारण वे अपने कर्तव्यको नहीं समझ रहे हैं। यह नियम है कि मनुष्यकी दृष्टि जबतक दूसरोंके दोषकी तरफ रहती है, तब तक उसको अपना दोष नहीं दीखता ,उलटे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है, पर हमारेमें यह दोष नहीं है। ऐसी अवस्थामें वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारेमें भी कोई दूसरा दोष हो सकता है। दूसरा दोष यदि न भी हो तो भी दूसरोंका दोष देखना-- यह दोष तो है ही। दूसरोंका दोष देखना एवं अपनेमें अच्छाईका अभिमान करना--ये दोनों दोष साथमें ही रहते हैं। अर्जुनको भी दुर्योधन आदिमें दोष दीख रहे हैं और अपनेमें अच्छाईका अभिमान हो रहा है (अच्छाईके अभिमानकी छायामें मात्र दोष रहते हैं), इसलिये उनको अपनेमें मोहरूपी दोष नहीं दीख रहा है।


🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक नैतिकता के पथ पर चलना सिखाता है।


गीता जी का यह श्लोक (#38) हमें सिखाता है कि संसार का सुख किसी-न-किसी दोष से ही होता है। कोई भी दोष न होने पर संसार से सुख हो ही नहीं सकता। परन्तु लोभ के कारण मनुष्य ऐसा विचार कर ही नहीं सकता। यह लोभ उसके विवेक विचार को लुप्त कर देता है।



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Daily Verse # 39

Chapter # 1, Verse 39



January 7, 2024


कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मानिवर्तितुम्। कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥


यहाँ अर्जुन की दृष्टि दुर्योधन आदि के लोभकी तरफ तो जा रही है, पर वे खुद कौटुम्बिक स्नेह-(मोह-) में आबद्ध होकर बोल रहे हैं--इस तरफ उनकी दृष्टि नहीं जा रही है। इस कारण वे अपने कर्तव्य को नहीं समझ रहे हैं। यह नियम है कि मनुष्य की दृष्टि जबतक दूसरोंके दोषकी तरफ रहती है, तब तक उसको अपना दोष नहीं दीखता ,उलटे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है, पर हमारे में यह दोष नहीं है। ऐसी अवस्थामें वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारे में भी कोई दूसरा दोष हो सकता है। दूसरा दोष यदि न भी हो तो भी दूसरों का दोष देखना--यह दोष तो है ही। दूसरों का दोष देखना एवं अप नेमें अच्छाई का अभिमान करना-- ये दोनों दोष साथ में ही रहते हैं। अर्जुन को भी दुर्योधन आदि में दोष दीख रहे हैं और अपने में अच्छाई का अभिमान हो रहा है ।

   


🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक नैतिकता के पथ पर चलना सिखाता है।


गीता जी का यह श्लोक (#39) हमें सिखाता है कि हमें पापमय कर्म से दूर रहना चाहिए।


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Daily Verse # 40

Chapter # 1, Verse 40





January 8, 2024

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः। धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥



कुलों की पुरातन परम्पराओं और नित्य मान्य प्रथाओं के अनुसार कुल के वयोवृद्ध लोग उच्च मूल्यों और आदर्शों को अगली पीढ़ी के कल्याण हेतु उन्हें हस्तांतरित करते हैं। ये महान परम्पराएं कुल के सदस्यों को मानवीय मूल्यों और धार्मिक मर्यादाओं का पालन करवाने में सहायता करती हैं। यदि कुल के वयोवृद्धों की समय से पूर्व मृत्यु हो जाती है तब भावी पीढ़ियां कुल के वयोवृद्धों के मार्गदर्शन और शिक्षण से वंचित हो जाती हैं। अर्जुन के कहने का तात्पर्य यह है कि जब कुलों का विनाश हो जाता है तब उसकी महान परम्पराएं भी उसके साथ समाप्त हो जाती हैं और कुल के शेष सदस्यों में अधर्म और व्यभिचार की प्रवृत्ति बढ़ती है जिससे वे अपनी आध्यात्मिक उन्नति का अवसर खो देते हैं। इसलिए अर्जुन के अनुसार कुल के आदरणीय वयोवृद्ध सदस्यों को कभी भी नहीं मारना चाहिए।


 🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक नैतिकता के पथ पर चलना सिखाता है।

गीता जी का यह श्लोक (#40) हमें सिखाता है कि कुल का क्षय होने पर सदा से चलते आये कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं और धर्म का नाश होने पर (बचे हुए) सम्पूर्ण कुल को अधर्म दबा लेता है।





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Daily Verse # 41
Chapter # 1, Ve
rse 41




 January 9, 2024


अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः। स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः॥



अर्जुन अपने पूर्वकथित तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहता है कि अधर्म के बढ़ने पर समाज में धीर-धीरे नैतिकता का पतन हो जायेगा और वर्णसंकर जातियाँ उत्पन्न होंगी।

वर्ण एक ऐसा शब्द है जिसका अर्थ विकृत हो जाने से वह आज के शिक्षित लोगों की तीखी आलोचना का विषय बन गया है। उनकी आलोचना उचित है यदि उसका विकृत अर्थ स्वीकृत हो। परन्तु आज वर्ण के नाम पर देश में जो कुछ होते हुये हम देख रहे हैं वह हिन्दू जीवन पद्धति का पतित रूप है। प्राचीन काल में वर्ण विभाग का आधार समाज के व्यक्तियों की मानसिक व बौद्धिक क्षमता और पक्वता होती थी।


बुद्धिमान तथा अध्ययन अध्यापन एवं अनुसंधान में रुचि रखने वाले लोग ब्राह्मण कहलाते थे क्षत्रिय वे थे जिनमें राजनीति द्वारा राष्ट्र का नेतृत्व करने की सार्मथ्य थी और जो अपने ऊपर इस कार्य का उत्तरदायित्व लेते थे कि राष्ट्र को आन्तरिक और बाह्य आक्रमणों से बचाकर राष्ट्र में शांति और समृद्धि लायें। कृषि और वाणिज्य के द्वारा समाज सेवा करने वालों को वैश्य कहते थे। वे लोग जो उपयुक्त कर्मों में से कोई भी कर्म नहीं कर सकते थे शूद्र कहे जाते थे। उनका कर्तव्य सेवा और श्रम करना था। हमारे आज के समाजसेवक और अधिकारी वर्ग कृषक और औद्योगिक कार्यकर्त्ता आदि सभी उपर्युक्त वर्ण व्यवस्था में आ जाते हैं।


वर्णव्यवस्था को जब हम उसके व्यापक अर्थ में समझते हैं तब हमें आज भी वह अनेक संगठनों के रूप में दिखाई देती है। अत वर्णसंकर के विरोध का अर्थ इतना ही है कि एक विद्युत अभियन्ता शल्यकक्ष में चिकित्सक का काम करता हुआ समाज को खतरा सिद्ध होगा तो किसी चिकित्सक को जल विद्युत योजना का प्रशासनिक एवं योजना अधिकारी नियुक्त करने पर समाज की हानि होगी

समाज में नैतिक पतन होने पर अनियन्त्रित वासनाओं में डूबे युवक और युवतियाँ स्वच्छन्दता से परस्पर मिलते हैं। कामना के वश में वे सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का किंचित भी विचार नहीं करते। इसलिये अर्जुन को भय है कि वर्णसंकर के कारण समाज और संस्कृति का पतन होगा।


🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक नैतिकता के पथ पर चलना सिखाता है।


गीता जी का यह श्लोक (#41) हमें सिखाता है कि अधर्म के बढ़ने पर समाज में धीर- धीरे नैतिकता का पतन हो जाता है।



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Daily Verse # 42
Chapter # 1, Verse 42




 January 10, 2024


सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च | पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया: ||


अर्जुन अपने पूर्वकथित तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहता है कि अधर्म के बढ़ने पर समाज में धीर धीरे नैतिकता का पतन हो जायेगा और वर्णसंकर जातियाँ उत्पन्न होंगी।

 


🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक नैतिकता के पथ पर चलना सिखाता है।


गीता जी का यह श्लोक (#42) हमें सिखाता है कि सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के लिए आवश्यक है कि परिवार और पारिवारिक परम्परा का विनाश ना किया जाए।

 

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Daily Verse  # 43
Chapter # 1, Verse 43



January 11,2024



दोषैरेतैः कुलजानां वर्णसङ्करकारकैः। उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥



सनातन-धर्म या वर्णाश्रम द्वारा निर्धारित मानव समाज के चारों वर्गों के लिए सामुदायिक योजनाएं तथा पारिवारिक कल्याण-कार्य इसलिए नियोजित हैं कि मनुष्य चरम मोक्ष प्राप्त कर सके। अतः समाज के अनुत्तरदायी नायकों द्वारा सनातन-धर्म परम्परा के विखण्डन से उस समाज में अव्यवस्था फैलती है, फलस्वरूप लोग जीवन के उद्देश्य विष्णु को भूल जाते हैं। ऐसे नायक अंधे कहलाते हैं और जो लोग इनका अनुगमन करते हैं वे निश्चय ही कुव्यवस्था की ओर अग्रसर होते हैं।



🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक नैतिकता के पथ पर चलना सिखाता है।


गीता जी का यह श्लोक (#43) हमें सिखाता है कि हमे समाज के प्रति अपने उतरदायित्व को नहीं भूलना चाहिए।



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Daily Verse # 44

Chapter # 1, Verse 44






 January 12, 2024


उत्सन्नकुलधार्माणां मनुष्याणां जनार्दन। नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥

गीता जी का यह श्लोक (#44) हमें सिखाता है कि हमें सिखाता है कि हमें ऐसा कोई भी काम नहीं करना चाहिए जिससे हमारे कुटुम्ब का नाश हो जाए औऱ हम नरक के वासी बनें।।


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Daily Verse # 45

Chapter # 1, Verse 45







 January 14, 2024


अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्। यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥




अर्जुन ने सन्निकट युद्ध के अनेक दुष्परिणामों का उल्लेख तो किया किन्तु वह यह नहीं देख पा रहा था कि यदि दुर्योधन जैसे दुष्ट लोगों को समाज में पनपने का अवसर प्राप्त हो जाएगा और जिसके परिणामस्वरूप वास्तव में पापचार और अधिक प्रबल हो जाएंगे। वह अपना आश्चर्य प्रकट करने के लिए 'अहो' शब्द का प्रयोग करता है। बत शब्द का अर्थ 'भयंकर परिणाम' है। अर्जुन कह रहा है-"यह कितना आश्चर्यजनक है कि हमने युद्ध करने का निर्णय लेकर पाप कार्य किया है जबकि हम इसके दुष्परिणामों को भली भाँति जानते हैं।"


जैसा कि प्रायः यह होता है कि लोग अपनी स्वयं की भूल को देखने में असमर्थ होते हैं और उसके लिए स्वयं की अपेक्षा परिस्थितियों और अन्य लोगों को उत्तरदायी ठहराते हैं। इसी प्रकार से अर्जुन ने यह अनुभव किया कि धृतराष्ट्र के पुत्र लोभ से प्रेरित थे किन्तु वह इस ओर ध्यान नहीं दे सका कि उसके संवेदना से भरे उद्गार लोकातीत मनोभाव नहीं है अपितु स्वयं को देह मानने की अज्ञानता और सांसारिक आसक्ति पर आधारित हैं। अर्जुन के सभी तर्क-वितर्कों की उलझन यह थी कि वह अपने शारीरिक मोह, हृदय की दुर्बलता और कर्तव्य पालन की विमुखता के कारण उत्पन्न हुए अपने मोह को न्यायोचित ठहराने के लिए इनका प्रयोग कर रहा था। अब आगे आने वाले अध्यायों में भगवान श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करेंगे कि अर्जुन के तर्क अनुचित क्यों थे।


🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक नैतिकता के पथ पर चलना सिखाता है।


 गीता जी का यह श्लोक (#45) हमें सिखाता है कि अत्याधिक लोभ से इंसान अपने कुटुम्ब का नाश कर सकता है।


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Daily Verse # 46

Chapter # 1, Verse 46








 January 15, 2024



यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः। धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥


अर्जुन के सभी तर्क-वितर्कों की उलझन यह थी कि वह अपने शारीरिक मोह, हृदय की दुर्बलता और कर्तव्य पालन की विमुखता के कारण उत्पन्न हुए अपने मोह को न्यायोचित ठहराने के लिए इनका प्रयोग कर रहा था। अब आगे आने वाले अध्यायों में भगवान श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करेंगे कि अर्जुन के तर्क अनुचित क्यों थे।



🕉गीता जी का यह श्लोक (#46) हमें सिखाता है कि पारिवारिक / सांसारिक मोह को खुद पर इतना हावी नहीं होने देना चाहिए कि हम उचित और अनुचित का भेद भूल जाएं । 


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Daily Verse # 47

Chapter # 1, Verse 47





 January 16, 2024




🕉 श्रीमद्भगवद्गीता का हर एक श्लोक  के पथ पर चलना सिखाता है।

गीता जी का यह श्लोक (#47) हमें सिखाता है कि अन्यान्य के खिलाफ आत्म समर्पण करने से ज्ञान एवं दिव्य भक्ति के मार्ग में बाधा उत्पन्न होती है।




🕉🕉 पहले अध्याय (47 श्लोकों) में हमने जाना कि अर्जुन अपने शत्रुओं के प्रति अपनी संवेदनशीलता , करुणा और असहजता व्यक्त करता है । वह मधुसूदन से अपने मन में चल रही सारी बातें बताता हैंऔर आत्म समर्पण कर देता है।


जय श्री कृष्ण!



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