Chapter # 2 | Daily Verse/ Shloka | Divya Gyan|| गीता का उपदेश क्या है?

 

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दिव्य ज्ञान (श्रीमद्भगवद्गीता के पावन पन्नों से)


भगवद्गीता का प्रकटीकरण राजा धृतराष्ट्र और उसके मंत्री संजय के बीच हुए वार्तालाप से आरम्भ होता है। चूंकि धृतराष्ट्र नेत्रहीन था इसलिए वह व्यक्तिगत रूप से युद्ध में उपस्थित नहीं हो सका। अत: संजय उसे युद्धभूमि पर घट रही घटनाओं का पूर्ण सजीव विवरण सुना रहा था। संजय महाभारत के प्रख्यात रचयिता वेदव्यास का शिष्य था। ऋषि वेदव्यास ऐसी चमत्कारिक शक्ति से संपन्न थे जिससे वह दूर-दूर तक घट रही घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से देखने में समर्थ थे। अपने गुरु की अनुकंपा से संजय ने भी दूरदृष्टि की दिव्य चमत्कारिक शक्ति प्राप्त की थी। इस प्रकार से वह युद्ध भूमि में घटित सभी घटनाओं को दूर से देख सका।


Chapter # 2:  सांख्य योग

 (72 श्लोक) 

सांख्य योग के जरिये भगवान श्रीकृष्ण ने पुरुष की प्रकृति और उसके अंदर मौजूद तत्वों के बारे में समझाया। उन्होनें अर्जुन को बताया कि मनुष्य को जब भी लगे कि उस पर दुख या विषाद हावी हो रहा है उसे सांख्य योग यानी पुरुष प्रकृति का विश्लेषण करना चाहिए। मनुष्य पांच सांख्य से बना है - आग, पानी, मिट्टी, हवा और आकाश।



Daily Verse # 48
Chapter # 2, Verse 1





17 January 2024


तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्। विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥


पहले अध्याय में हमने जाना कि अर्जुन अपने शत्रुओं के प्रति अपनी संवेदनशीलता , करुणा और असहजता व्यक्त करते हैं । वह मधुसूदन को अपने मन में चल रही सारी बातें बताते हैं और आत्म समर्पण कर देते हैं।


अब श्री कृष्ण उसके मन में चल रहे युद्ध को लेकर उसकी व्यथा को दूर करेंगे।


🪔🕉🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि अति संवेदनशीलता और व्याकुलता निराशा को जन्म देती हैं।


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Daily Verse # 49
Chapter # 2, Verse 2





18 January 2024



श्रीभगवानुवाच। कुतस्तवा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् । अनार्यजुष्टमस्वय॑मकीर्तिकरमर्जुन॥



श्रीकृष्ण अर्जुन की वर्तमान मानसिक स्थिति को इन आदर्शों के प्रतिकूल पाते हैं और इसलिए उसकी व्याकुलता को ध्यान में रखते हुए वह उसे फटकारते हुए समझाते हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में इस आदर्शवादी अवस्था में कैसे रहा जा सकता है। भगवद्गीता या 'भगवान की दिव्य वाणी' वास्तव में यहीं से आरम्भ होती है क्योंकि श्रीकृष्ण, जो अभी तक शांत थे, अब इस श्लोक से बोलना आरम्भ करते हैं। परमात्मा पहले अर्जुन के भीतर ज्ञान प्राप्त करने की क्षुधा उत्पन्न करते हैं। 


🪔🕉🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि सब कुछ जान कर भी भ्रम की स्थिति में रहना अपमानजनक और सर्वथा अनुचित है।

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Daily Verse # 50
Chapter # 2, Verse 3




19 January 2024


क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥


श्रीकृष्ण एक योग्य गुरु हैं और इसलिए अर्जुन को फटकारते हुए वे अब उसे परिस्थितियों का सामना करने के लिए प्रोत्साहित कर उसके आत्मबल को बढ़ाते हैं।


🪔🕉🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि शिष्य का आत्मबल बढ़ाने के लिए गुरु उसे डांट भी लगा सकता है।


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Daily Verse # 51
Chapter # 2, Verse 4






20 January 2024


अर्जुन उवाच। कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन। इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजाह्नवरिसूदन ॥


🪔🕉🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है हमें नैतिक दायित्व का निर्वहन करने में हिचकिचाना नहीं चाहिए।


गुरु द्रोण और भीष्मपितामह दोनों ही अर्जुन के लिए परम आदरणीय थे। उन पर आक्रमण करना अर्जुन को उचित नहीं लग रहा था।



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Daily Verse # 52
Chapter # 2, Verse 5





21 January 2024


गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके । हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥


🪔🕉🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें अपने आदरणीय गुरुजनों को उचित स्थान और मान- सन्मान देना चाहिए । तभी हम सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकते हैं।


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Daily Verse # 53
Chapter # 2, Verse 6





22 January 2024


न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः। यानेव हत्वा न जिजीविषाम स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥





🪔🕉🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि जब निर्णय लेने का अवसर आता है तो मनुष्य कई प्रकार के विकल्पों और उसके परिणामों पर विचार करता है। तब उसे वही रास्ता चुनने का अधिकार रखना चाहिए जो तर्कसंगत  और न्यायसंगत हो।



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Daily Verse # 54
Chapter # 2, Verse 7







23 January 2024


कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः। यच्छ्रेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥



🪔🕉🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि जब हम  असमंजस की स्थिति में हों तो  गुरु की शरण में जाना चाहिए। वही हमारा सही मार्गदर्शन कर सकते हैं।


अर्जुन एक क्षत्रीय था, युद्ध करना उसका धर्म था। परंतु युद्ध- भूमि पर खड़े होकर भी वह युद्ध करने के लिए तैयार नहीं था। अपने संबंधियों को देख कर वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया था और श्री कृष्ण की शरण में चला गया।



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Daily Verse # 55

Chapter # 2, Verse 8






24 January 2024


न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्य- च्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्। अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥




🪔🕉🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें जीवन की उलझनों का समाधान करने के लिए दिव्य ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। सांसारिक छात्रवृत्तियाँ हमारे जीवन की इन जटिलताओं का समाधान नहीं कर सकतीं।


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Daily Verse # 56

Chapter # 2, Verse 9





27 January 2024


सञ्जय उवाच। एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप। न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥





🪔🕉🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि एक वीर पुरुष का कठिनाइयों से भागना अशोभनीय होता है।

अर्जुन एक महत्वपूर्ण योद्धा थे,  इस महत्वपूर्ण समय में रणभूमि में हताश हो कर बैठना उसे शोभा नहीं देता।


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Daily Verse # 57

Chapter # 2, Verse 10





28 January 2024


तमुवाच हृषीकेशं प्रहसन्निव भारत। सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥


🪔🕉🪔 गीता जी का यह श्लोक हमें सिखाता है कि अधूरा ज्ञान ही परेशानियों का मुख्य कारण है। परंतु जब भगवान हमारे साथ हों तो हमें प्रतिकूल परिस्थितियों में भी निराश नहीं होना चाहिए।

अर्जुन अपने अधूरे ज्ञान के कारण ही परिस्थितियों का सामना करने में स्वयं को असमर्थ पाता है, स्वयं को दोषी मानता है, दुखी होता है और श्री कृष्ण की शरण में चला जाता है।


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Daily Verse # 58

Chapter # 2, Verse 11


इस श्लोक में आप सुनेंगे कि अर्जुन का मोह भंग करने के लिए श्री कृष्ण उसे ज्ञानी पुरुषों की क्या पहचान बताते हैं? 

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29 January 2024


श्री भगवानुवाच। अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे । गतासूनगतासुंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥



🪔🕉🪔 गीता जी का यह श्लोक सिखाता है कि ज्ञानी पुरुष वही है जो मृत और जीवित दोनों के लिये शोक नहीं करता।


अर्जुन अपने परिजनों की मृत्यु के भय से युद्ध नहीं करना चाहता था, उसकी खोई हुई चेतना लौटाने के लिए और मोह भंग करने के लिए श्री कृष्ण अर्जुन को ज्ञानी पुरुषों की पहचान बताते हैं।


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Daily Verse # 59

Chapter # 2, Verse 12


इस श्लोक में आप सुनेंगे कि *श्री कृष्ण बताते हैं कि इस भौतिक शरीर की मृत्यु के पश्चात भी जीवन है।*

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January 31, 2024




न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्॥



🪔🕉🪔 गीता जी का यह श्लोक सिखाता है कि अगर हम विश्वास करते हैं कि आत्मा अमर है तब यह मानना तर्कसंगत होगा कि भौतिक शरीर की मृत्यु के पश्चात भी जीवन है।


भगवान अर्जुन को समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि मानव का अनेक बार जन्म होता है। इसलिए युद्ध करते हुए जो मारे जाएगें, उनका फिर से जन्म हो जाएगा।



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Daily Verse # 60

Chapter # 2, Verse 13

इस श्लोक में आप सुनेंगे कि *श्री कृष्ण बताते हैं बुद्धिमान मनुष्य ऐसे परिवर्तन से मोहित नहीं होते।*


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February 1, 2024



देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिर्षीरस्तत्र न मुह्यति ॥


🪔🕉🪔 गीता जी का यह श्लोक सिखाता है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है।


श्रीकृष्ण सटीक तर्क के साथ आत्मा के एक जन्म से दूसरे जन्म में देहान्तरण के सिद्धान्त को सिद्ध करते हैं। वे यह समझा रहे हैं कि किसी भी मनुष्य के जीवन में उसका शरीर बाल्यावस्था से युवावस्था, प्रौढ़ता और बाद में वृद्धावस्था में परिवर्तित होता रहता है। आधुनिक विज्ञान से भी यह जानकारी मिलती है कि हमारी शरीर की कोशिकाएँ पुनरूज्जीवित होती रहती हैं। पुरानी कोशिकाएँ जब नष्ट हो जाती हैं तो नयी कोशिकाएँ उनका स्थान ले लेती हैं। 



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Daily Verse # 61

Chapter # 2, Verse 14

इस श्लोक में आप सुनेंगे कि *श्री कृष्ण बताते हैं कि कोई भी अनुभूति चिरस्थायी नहीं होती।*

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February 2, 2024


मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥



🪔🕉🪔 गीता जी का यह श्लोक सिखाता है कि इन्द्रियों द्वारा सुख और दुख की अनुभूति क्षणिक होती है। एक विवेकी मनुष्य को सुख और दुख दोनों परिस्थितियों में विचलित हुए बिना इनको सहन करने का अभ्यास करना चाहिए।



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Daily Verse # 62

Chapter # 2, Verse 15


इस श्लोक में आप सुनेंगे कि *श्री कृष्ण अर्जुन को विवेक बुद्धि द्वारा इन (सुख/ दुख) द्वंद्वो से उभरने की प्रेरणा दे रहे हैं।*

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February 3, 2024


यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ। समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥



🪔🕉🪔 गीता जी का यह श्लोक सिखाता है कि सुख और दुख को एक समान समझने वाला धीर पुरुष ही मुक्ति/ मोक्ष पा सकता है।

शरीर से प्राप्त होने वाला लौकिक सुख हमारी दिव्य आत्मा को कभी संतुष्ट नहीं कर सकता। इस अन्तर को समझने के लिए हमें सांसारिक सुखों और दुखों के बोध को समान रूप से सहन करने का अभ्यास करना चाहिए तभी हम इन द्वंद्वो से ऊपर उठेंगे और भौतिक शक्तियाँ हमें अधिक समय तक दुखी नहीं कर पायेंगी।


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Daily Verse # 63

Chapter # 2, Verse 16

इस श्लोक में आप सुनेंगे कि *श्री कृष्ण शरीर को नश्तर और आत्मा को अमर कहते हैं।*


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February 4, 2024


नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥



🪔🕉🪔 गीता जी का यह श्लोक सिखाता है कि भगवान, जीवात्मा और माया तीनों नित्य तत्त्व हैं।

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह व्याख्या करते हैं कि संसार का अस्तित्व है किन्तु यह नश्वर है, इसलिए वे इसे 'असत्' या 'अस्थायी' कहते हैं। उन्होंने संसार को 'मिथ्या' या 'अस्तित्वहीन' नहीं कहा है।


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Daily Verse # 64

Chapter # 2, Verse 17

इस श्लोक में आप सुनेंगे कि *श्री कृष्ण शरीर आत्मा को अविनाशी कहते हैं।*


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February 5, 2024


अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् । विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥



🪔🕉🪔 आत्मा शरीर में व्याप्त रहकर पूरे शरीर को सचेतन बनाती है। जिस प्रकार पुष्प की सुगंध पूरे उद्यान को सुगंधित करने में सक्षम होती है उसी प्रकार से आत्मा चेतन है और यह जड़ शरीर में चेतना भरकर उसे सचेतन बना देती है।



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Daily Verse # 65

Chapter # 2, Verse 18


इस श्लोक में आप सुनेंगे कि *श्रीकृष्ण अर्जुन को अवगत कराते हैं कि इस भौतिक शरीर में नित्य अविनाशी सत्ता अर्थात आत्मा वास करती है।*

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February 6,  2024


अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः। अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥1



🪔🕉🪔 श्रीकृष्ण अर्जुन को अवगत कराते हैं कि इस भौतिक शरीर में नित्य अविनाशी सत्ता अर्थात आत्मा वास करती है। भौतिक शरीर पाँच तत्वों से निर्मित है और उन्हीं में मिल जाता है। परंतु आत्मा दिव्य और सनातन है।


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Daily Verse # 66

Chapter # 2, Verse 19


इस श्लोक में आप सुनेंगे कि *श्री कृष्ण अर्जुन को अवगत कराते हैं कि आत्मा न तो मरती है और न ही उसे मारा जा सकता है।*

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February 8,  2024


य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्। उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥


🪔🕉🪔 श्री कृष्ण अर्जुन को अवगत कराते हैं कि आत्मा अमर है।

मृत्यु का भ्रम हमारे भीतर इसलिए उत्पन्न होता है क्योंकि हम स्वयं को शरीर मानते हैं।


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Daily Verse # 67

Chapter # 2, Verse 20

इस श्लोक में *आत्मा की शाश्वतता को सिद्ध किया गया है जो सनातन है तथा जन्म और मृत्यु से परे है।*




February 9,  2024


न जायते म्रियते वा कदाचि नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥



🪔🕉🪔 आत्मा आनन्दमय, अजन्मा अविनाशी, वृद्धावस्था से मुक्त, अमर और भय मुक्त है।


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Daily Verse # 68

Chapter # 2, Verse 21

आप इस श्लोक में सुनेंगे कि *वह जो यह जानता है कि आत्मा अविनाशी, शाश्वत, अजन्मा और अपरिवर्तनीय है, वह किसी को कैसे मार सकता है या किसी की मृत्यु का कारण हो सकता है?*





February 11,  2024


वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्। कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥



🪔🕉🪔 श्रीकृष्ण अर्जुन को इस सच्चाई से अवगत कराते हैं कि आत्मा अविनाशी है। इसलिए कोई इसे मार भी नहीं सकता! 



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Daily Verse # 69

Chapter # 2, Verse 22





February 12, 2024


वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्वाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥


🪔🕉🪔 जब वस्त्र फट जाते हैं या व्यर्थ हो जाते हैं तब हम उन्हें त्याग कर नये वस्त्र धारण करते हैं और ऐसा करते समय हम स्वयं को नहीं बदलते।इसी प्रकार समान दृष्टि से जब आत्मा जीर्ण शरीर को छोड़ती है तब उसमें किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं होता।



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Daily Verse # 70

Chapter # 2, Verse 23





February 13, 2024


नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥



आत्मा दिव्य है और इस कारण से आत्मा भौतिक विषयों के पारस्परिक संबंधों से परे है। वायु आत्मा को सुखा नहीं सकती और जल द्वारा इसे भिगोया और अग्नि द्वारा इसे जलाया नहीं जा सकता है, ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने आत्मा का विशद वर्णन किया है।


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Daily Verse # 71

Chapter # 2, Verse 24





February 14, 2024


आत्मा अखंडित और अज्वलनशील है, इसे न तो गीला किया जा सकता है और न ही सुखाया जा सकता है। यह आत्मा शाश्वत, सर्वव्यापी, अपरिर्वतनीय, अचल और अनादि है।



श्रीकृष्ण भगवान ने भगवद्गीता में प्रायः पुनरुक्ति का प्रयोग अपने महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक सिद्धान्तों को रेखांकित करने के लिए एक साधान के रूप मे किया है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उनके भक्त उनके उपदेशों को गहनता से ग्रहण करें।


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Daily Verse # 72

Chapter # 2, Verse 25




February 15, 2024


अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते। तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥



किसी को मारने और मारे जाने पर चिंतित होना स्वाभाविक है, परंतु यह याद रखें कि आत्मा तो देह बदलती रहती है । देह के बारे में चिंता करना व्यर्थ है। अतः आत्मा को जानने के लिए आंतरिक ज्ञान आवश्यक है जो केवल धर्मग्रन्थों और गुरु द्वारा सुलभ है।



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Daily Verse # 73

Chapter # 2, Verse 26




February 16, 2024


अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्। तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥


ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान श्रीकृष्ण के युग में भी आत्मा के पुनर्जन्म और आत्मा के अस्थायित्व के संबंध में बौद्ध दर्शन की विचारधारा विद्यमान थी। इसलिए श्रीकृष्ण यह व्याख्या कर रहे हैं कि यदि अर्जुन आत्मा के एक जन्म से दूसरे जन्म अर्थात पुनर्जन्म के विचार को स्वीकार करता है तब भी उसके शोक करने का कोई कारण नहीं होना चाहिए। कोई शोक क्यों न करें? इसे अब अगले श्लोक में स्पष्ट किया जाएगा।





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Daily Verse # 74

Chapter # 2, Verse 27




February 18, 2024


जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्बुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥



श्री कृष्ण इस श्लोक में यह समझा रहे हैं कि एक दिन जीवन का अंत अपरिहार्य है, इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को इस अनिवार्य मृत्यु के लिए शोक नहीं करना चाहिए।


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Daily Verse # 75

Chapter # 2, Verse 28




February 19, 2024


अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत। अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥



🪔🕉🪔 श्रीकृष्ण इस श्लोक में यह समझा रहे हैं कि एक दिन जीवन का अंत अपरिहार्य है, इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को इस अनिवार्य मृत्यु के लिए शोक नहीं करना चाहिए।शोक ग्रस्त होने का मुख्य कारण केवल आसक्ति ही है जो मिथ्या मोह के कारण उत्पन्न होती है।  इस श्लोक में उन्होंने आत्मा और शरीर दोनों को समाविष्ट किया है। 



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Daily Verse # 76

Chapter # 2, Verse 29

February 20, 2024


आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः। आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥



यह संपूर्ण संसार आश्चर्य है क्योंकि एक अणु से लेकर विशाल आकाश गंगाएँ भगवान की अद्भुत कृतियाँ हैं। एक छोटे-से पुष्प की संरचना, सुगंध और सुन्दरता भी अपने आप में एक आश्चर्य है। परम-पिता-परमात्मा स्वयं सबसे बड़ा आश्चर्य है। 


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Daily Verse # 77

Chapter # 2, Verse 30

February 21, 2024


देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत । तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥


अपने उपदेशों के अंतर्गत भगवान श्रीकृष्ण प्रायः कुछ श्लोकों में अपने दृष्टिकोण का वर्णन करते हैं और फिर वे एक श्लोक मे अपने उन उपदेशों का सार प्रस्तुत करते है।



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Daily Verse # 78

Chapter # 2, Verse 31

February 22, 2024


स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । धााद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥



अर्जुन वृत्ति से योद्धा था और इसलिए एक योद्धा के रूप में वर्णानुसार उसका कर्त्तव्य धर्म की मर्यादा के लिए युद्ध करना था। श्रीकृष्ण इसे स्वधर्म अथवा शारीरिक स्तर पर निर्धारित कर्तव्यों के रूप में सम्बोधित करते हैं।



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Daily Verse # 79

Chapter # 2, Verse 32

February 23, 2024


यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् । सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥


क्षत्रिय वर्ण के धर्म के अनुसार योद्धा का यह धर्म होता है कि वह आवश्यकता पड़ने पर समाज की रक्षा हेतु निडरतापूर्वक अपने प्राणों का बलिदान करने से पीछे न हटे।


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Daily Verse # 80

Chapter # 2, Verse 33

February 24, 2024


अथ चेत्त्वमिमं धर्म्य संग्रामं न करिष्यसि। ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥



श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि अर्जुन अपने युद्ध करने के कर्तव्यों को घृणास्पद और कष्टदायक मानते हुए उसकी अवहेलना करने का विचार करता है तो वह पाप अर्जित करेगा।


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Daily Verse # 81

Chapter # 2, Verse 34

February 25, 2024


अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्। सम्भावितस्य चाकीर्ति मरणादतिरिच्यते ॥



संसार के कई समुदायों में यह नियम लागू है कि जब कोई योद्धा युद्ध क्षेत्र में कायरता प्रदर्शित करते हुए युद्धस्थल से भाग जाता है तब उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है। इसलिए यदि अर्जुन अपने कर्त्तव्य पालन से च्युत हो जाता है तब उसे इससे मिलने वाले अपमान की अत्यंत पीड़ा सहन करनी पड़ेगी।


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Daily Verse # 82

Chapter # 2, Verse 35

February 26, 2024


भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः । येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥


अर्जुन एक पराक्रमी योद्धा के रूप में विख्यात था और कौरव पक्ष के महा बलशाली योद्धा जैसे भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण आदि के लिए शक्तिशाली प्रतिद्वन्दी था। उसने स्वर्ग के कई देवताओं के साथ युद्ध कर ख्याति प्राप्त की थी।अब महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने से पहले यदि अर्जुन युद्ध भूमि से पलायन कर जाता तब ये महायोद्धा यह नहीं समझते कि अपने स्वजनों के अनुराग से प्रेरित होकर उसने युद्ध पलायन किया था बल्कि इसके विपरीत वे उसे कायर मानते हुए यह समझते कि उनके पराक्रम के भय से वह युद्ध से विमुख हुआ था।


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Daily Verse # 83

Chapter # 2, Verse 36

February 27, 2024


अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः । निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दुःखतरं नु किम् ॥



यदि अर्जुन युद्ध से पलायन करता है तब न केवल युद्ध के लिए एकत्रित वीर योद्धाओं की दृष्टि में अर्जुन का मान-सम्मान कम हो जाएगा अपितु उसे तुच्छ भी समझा जाएगा।

श्रीकृष्ण अर्जुन को स्मरण करवाना चाहते हैं कि व्यंग्यपूर्ण कथन उसके लिए अत्यंत दुखदायी होंगे।


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Daily Verse # 84

Chapter # 2, Verse 37

February 28, 2024


हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥



यदि अर्जुन युद्ध में विजय प्राप्त करता है तब वह पृथ्वी का साम्राज्य प्राप्त करेगा और यदि अपने धर्म का पालन करने के लिए उसे अपने जीवन का बलिदान भी करना पड़ा तब वह स्वर्गलोक में जाएगा।


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Daily Verse # 85

Chapter # 2, Verse 38

February 29, 2024


सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥


श्रीकृष्ण अर्जुन को परामर्श देते हैं कि वह युद्ध के परिणामों से विरक्त होकर केवल अपने कर्तव्यों के पालन की ओर ध्यान दे। जब वह समान भावना की मनोदृष्टि से युद्ध करेगा, विजय और पराजय तथा सुख-दुख को एक समान समझेगा, तब अपने शत्रुओं का वध करने पर भी उसे पाप नहीं लगेगा। 


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Daily Verse # 86

Chapter # 2, Verse 39

March 1, 2024


एषा तेऽिभिहिता साङ्ये बुद्धिोंगे त्विमां शृणु। बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥


श्री कृष्ण अब कहते हैं कि वे बिना फल की इच्छा के कर्मयोग का ज्ञान प्रकट कर रहे हैं। इसके लिए कर्म के फल के प्रति विरक्ति होना आवश्यक है। ऐसी विरक्ति विवेक के साथ बुद्धि का प्रयोग करने से आती है इसलिए श्रीकृष्ण ने अपनी इच्छा के अनुसार इसे बुद्धि योग या बुद्धि का योग कहा है। आगे श्लोक 2.41 और 2.44 में श्रीकृष्ण यह व्याख्या करेंगे कि मन में विरक्ति का भाव उत्पन्न करने से बुद्धि किस प्रकार से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।


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Daily Verse # 87

Chapter # 2, Verse 40

March 2, 2024



नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥




श्रीकृष्ण यह भी कहते हैं कि इस मार्ग का अनुसरण करने के प्रयास से किसी प्रकार की हानि नहीं होती क्योंकि वर्तमान जीवन में हम जो भौतिक पदार्थ और धन सम्पदा इकट्ठा करते हैं, उसे बाद में मृत्यु के समय हम इसी संसार मे छोड़ जाते हैं। लेकिन यदि हम भक्ति योग के मार्ग पर चलते हुए आध्यात्मिक उन्नति करते हैं तब उसे भगवान हमारे पुण्य कर्मों में जोड़ते हैं और उसका फल हमें अगले जन्म में देते हैं ताकि हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा को पुनः वहीं से आरम्भ करने के योग्य हो सकें जहाँ से हमने इसे छोड़ा था। इस प्रकार अर्जुन को इसके लाभों से अवगत करवाने के पश्चात श्रीकृष्ण अब उसे बिना आसक्ति के निष्काम भाव से कर्मयोग के मार्ग पर चलने का उपदेश देना आरम्भ करते हैं।



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Daily Verse # 88

Chapter # 2, Verse 41

March 4, 2024


व्यवसायत्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥


आसक्ति मानसिक क्रिया है। इसका अभिप्राय यह है कि मन बार-बार अपनी आसक्ति के विषयों की ओर भागता है जो किसी व्यक्ति, इन्द्रिय विषय, प्रतिष्ठा, शारीरिक सुख और परिस्थितियों इत्यादि में हो सकती है। यदि किसी व्यक्ति या इन्द्रिय विषय का विचार हमारे मन में बार-बार उठता है तब निश्चय ही यह मन का उसमें आसक्त होने का संकेत है। यदि यह मन ही आसक्त हो जाता है तब भगवान इस आसक्ति के विषय के बीच बुद्धि को क्यों लाना चाहते हैं। क्या आसक्ति का उन्मूलन करने में बुद्धि की कोई भूमिका होती है? हमारे शरीर में सूक्ष्म अंत:करण होता है जिसे हम बोलचाल की भाषा में हृदय भी कहते हैं। यह मन, बुद्धि और अहंकार से निर्मित होता है। इस सूक्ष्म शरीर में बुद्धि मन से श्रेष्ठ है जो निर्णय लेती है जबकि मन में इच्छाएँ उत्पन्न होती है और यह बुद्धि द्वारा लिए गए निर्णय के अनुसार मोह के विषयों में अनुरक्त हो जाता है। 


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Daily Verse # 89

Chapter # 2, Verse 42

March 5, 2024


यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः। वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥



अल्पज्ञानी लोग स्वर्ग की कामना रखते हैं और सोचते हैं कि वेदों का केवल यही उद्देश्य है। इस प्रकार वे भगवद्प्राप्ति का प्रयास किए बिना निरन्तर जन्म और मृत्यु के चक्र में घूमते रहते हैं। जबकि आध्यात्मिक चिन्तन में लीन साधक स्वर्ग की प्राप्ति को अपना लक्ष्य नहीं बनाते।

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Daily Verse # 90

Chapter # 2, Verse 43

March 6, 2024


कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्। क्रियाविशेषबहुला भोगैश्वर्यगति प्रति ॥


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Daily Verse # 91

Chapter # 2, Verse 44

March 7, 2024


भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् | व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते ||


जो स्वर्ग जैसे उच्च लोकों का सुख पाने के प्रयोजन से वेदों में वर्णित आडम्बरपूर्ण कर्मकाण्डों में व्यस्त रहते है और स्वयं को धार्मिक ग्रंथों का विद्वान समझते हैं किन्तु वास्तव में वे मूर्ख हैं। वे एक अंधे व्यक्ति द्वारा दूसरे अंधे को रास्ता दिखाने वाले के समान हैं।

वे मनुष्य जिनका मन इन्द्रिय सुखों के प्रति आसक्त रहता है। वे सांसारिक विषयों और ऐश्वर्यों का भोग करने के लिए चिन्तित रहते हैं। वे अपनी बुद्धि का प्रयोग अपनी आय बढ़ाने, अपनी लौकिक प्रतिष्ठा बढ़ाने और भौतिक सुखों का संवर्धन करने में लगे रहते हैं। इस प्रकार से भ्रमित होकर वे भगवद्प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए अपेक्षित दृढ़-संकल्प लेने में असमर्थ रहते हैं।


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Daily Verse # 92

Chapter # 2, Verse 45

March 8, 2024


त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥



जब श्रीकृष्ण अर्जुन को वेदों की अवहेलना करने के लिए कहते हैं तब उनके इस कथन को आगे आने वाले श्लोकों के संदर्भ में समझना आवश्यक है जिनमें वे यह इंगित कर रहे हैं कि अर्जुन वेदों के उन खण्डों पर अपना ध्यान आकर्षित न करे जिनमें भौतिक सुखों के लिए धार्मिक विधि विधानों और अनुष्ठानों को प्रतिपादित किया गया है अपितु परम सत्य को जानने के लिए वह स्वयं को आध्यात्मिकता के उच्च स्तर तक उठाने के लिए वैदिक ज्ञान से परिपूर्ण वेदों के दिव्य खण्डों पर अपना ध्यान केन्द्रित करे।


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Daily Verse # 93

Chapter # 2, Verse 46

March 9, 2024


यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके। तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥


भगवान कहते हैं- वेदों में मनुष्य के लिए सामाजिक और धार्मिक विधि विधानों से संबंधित विभिन्न कर्त्तव्य निर्धारित किए गए हैं लेकिन वे मनुष्य जो इनके अंतर्निहित अभिप्राय को समझ लेते हैं और उनके मध्यवर्ती उपदेशों की अवहेलना करते हैं तथा पूर्ण समर्पण भाव से मेरी भक्ति और सेवा में तल्लीन रहते हैं, उन्हें मैं अपना परम भक्त मानता हूँ।



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Daily Verse # 94

Chapter # 2, Verse 47

March 10, 2024


कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥


 *यह भगवद्गीता का अत्यंत प्रसिद्ध श्लोक है।* य़ह श्लोक हमारे जीवन का मैनुअल है, जो हमें सिखाता है कि 

● कर्म करो परन्तु फल की चिन्ता न करो।

● कर्मों का फल हमारे सुख के लिए नहीं है।

● कर्म करते समय कर्ता होने का अहंकार न करो।

● अकर्मण्यता के प्रति आसक्त न होना।


ॐ श्रीकृष्ण अर्जुन को फल की चिन्ता करने के स्थान पर केवल शुभ कर्म करने पर अपना ध्यान केन्द्रित करने का उपदेश देते हैं।

ॐ अर्जुन स्वयं को अपने कर्मों के फलों का भोक्ता न समझें। 

ॐ भगवान ही केवल उन शक्तियों के एक मात्र स्रोत हैं जिनके द्वारा हम कर्म करते हैं।

ॐ निष्क्रियता के प्रति आसक्ति होने से कभी किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता और भगवान श्रीकृष्ण इसकी स्पष्ट रूप से निंदा करते हैं।


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Daily Verse # 95

Chapter # 2, Verse 48

March 11, 2024


योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय । सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥



समता का भाव जो हमें सभी परिस्थितियों को शांतिपूर्वक स्वीकार करने के योग्य बनाता है और यह इतना प्रशंसनीय है कि भगवान ने इसे 'योग' अर्थात भगवान के साथ एकत्व होना बताया है। यह समबुद्धि पिछले श्लोक में वर्णित ज्ञान का अनुसरण करने से आती है। जब हम यह जान जाते हैं कि प्रयास करना हमारे हाथ में है और परिणाम सुनिश्चित करना हमारे नियंत्रण मे नहीं है तब हम केवल अपने कर्तव्यों के पालन की ओर ध्यान देते हैं।


यदि हम संघर्ष करते हुए प्रतिकूल परिस्थितियों का उन्मूलन करना चाहते हैं तब भी हम कष्टों को टालने में असमर्थ होंगे। यदि हम अपने मार्ग में आने वाली सभी कठिनाईयों का सामना करना सीख लेते हैं और उन्हें भगवान की इच्छा पर छोड़ देते हैं तब इसे ही वास्तविक 'योग' कहा जाएगा।


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Daily Verse # 96

Chapter # 2, Verse 49

March 12, 2024


दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय। बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥



श्रीकृष्ण घोषणा करते हैं कि जो लोग स्वयं को सुखी रखने के प्रयोजनार्थ कर्म करते हैं, वे दुखी होते हैं। वे लोग जो बिना फल की आसक्ति के समर्पित होकर समाज के कल्याणार्थ अपने कर्त्तव्य का पालन करते हैं, श्रेष्ठ कहलाते हैं और वे लोग जो अपने कर्मों के फल भगवान को अर्पित कर देते हैं, वे वास्तव में ज्ञानी हैं।


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Daily Verse # 97

Chapter # 2, Verse 50

March 13, 2024


बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥




'कर्मयोग' विज्ञान के संबंध में उपदेश सुनकर प्रायः लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि यदि वे परिणाम के प्रति आसक्ति का त्याग कर देते हैं तब उनकी कार्यकुशलता कम हो जाएगी। भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि बिना निजी स्वार्थ के कार्य करने से हमारे कार्य की गुणवत्ता कम नहीं होती अपितु हम पहले से अधिक कुशलता प्राप्त कर लेते हैं। 



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Daily Verse # 98

Chapter # 2, Verse 51

March 14, 2024


कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः। जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥


श्रीकृष्ण निरन्तर फल के प्रति आसक्त हुए बिना कर्म करने के विषय को समझा रहे हैं और कहते हैं कि यह विरक्ति मनुष्य को सुख-दुख की अनुभूति से परे की अवस्था में ले जाती है। हम प्रेम के लिए लालायित रहते हैं किन्तु हमें निराशा मिलती है, हम जीवित रहना चाहते हैं लेकिन हम यह भी जानते हैं कि हम प्रतिक्षण मृत्यु की ओर बढ़ रहे हैं। 



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Daily Verse # 99

Chapter # 2, Verse 52

March 15, 2024


यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति। तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥


सिद्ध ज्ञानी पुरुष यह समझने के पश्चात कि साकाम कर्मों से प्राप्त होने वाले सुख इस जन्म में तथा स्वर्ग में अस्थायी और कष्टदायी होते हैं इसलिए वे वैदिक कर्मकाण्डों से परे रहते हैं


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Daily Verse # 100

Chapter # 2, Verse 53

March 16, 2024


श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥



यदि तू पूछे कि मोहरूप मलिनतासे पार होकर आत्मविवेकजन्य बुद्धिको प्राप्त हुआ मैं कर्मयोगके फलरूप परमार्थयोगको ( ज्ञानको ) कब पाऊँगा तो सुन अनेक साध्य साधन और उनका सम्बन्ध बतलानेवाली श्रुतियोंसे विप्रतिपन्न अर्थात् नाना भावोंको प्राप्त हुई विक्षिप्त हुई तेरी बुद्धि जब समाधिमें यानी जिसमें चित्तका समाधान किया जाय वह समाधि है इस व्युत्पत्तिसे आत्माका नाम समाधि है उसमें अचल और दृढ़ स्थिर हो जायगी यानी विक्षेपरूप चलनसे और विकल्पसे रहित होकर स्थिर हो जायगी। तब तू योगको प्राप्त होगा अर्थात् विवेकजनित बुद्धिरूप समाधिनिष्ठाको पावेगा।


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Daily Verse # 101

Chapter # 2, Verse 54

March 17, 2024


अर्जुन श्रीकृष्ण से 16 प्रश्न पूछता है।

 पहला प्रश्न ⏬️


अर्जुन उवाच। स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥



श्रीकृष्ण से पूर्ण योग की अवस्था या समाधि के विषय पर उपदेश सुनकर अर्जुन स्वाभाविक प्रश्न पूछता है। वह ऐसी अवस्था वाले सिद्धपुरुष के मन की प्रकृति के संबंध में मनुष्यों को जानना चाहता है। इसके अतिरिक्त वह यह भी जानना चाहता है कि दिव्य चेतना में स्थित मनुष्य की मानसिकता उसके स्वभाव में कैसे प्रकट होती है।


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हरे कृष्णा!

अर्जुन द्वारा पूछा गया हर एक प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है!

*पहले प्रश्न ( Divya Gyan # 101)* का उत्तर जानने के लिए कल से हरेक श्लोक ध्यान से जरूर पढ़ें और अपने परिवार के साथ जरूर share करें!



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Daily Verse # 102

Chapter # 2, Verse 55

March 18, 2024


श्रीभगवानुवाच।  प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥


इस श्लोक से श्री कृष्ण अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देना आरम्भ करते हैं और अध्याय के अंत तक निरन्तर उत्तर देते रहते हैं।*

जब कोई अपने मन से समस्त स्वार्थयुक्त कामनाओं का उन्मूलन करता है, तब सांसारिक बंधनों से जकड़ी जीवात्मा जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाती है और भगवान के समान सदगुणी हो जाती है।


 श्रीकृष्ण उपर्युक्त श्लोक में कहते हैं कि लोकातीत अवस्था में स्थित मनुष्य वह है जिसने अपनी कामनाओं और इन्द्रिय तृप्ति का त्याग कर दिया है और जो आत्म संतुष्ट रहता है।


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Daily Verse # 103

Chapter # 2, Verse 56

March 19, 2024


दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥



*श्री कृष्ण अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देना आरम्भ करते हैं और अध्याय के अंत तक निरन्तर उत्तर देते रहते हैं।*

 इस श्लोक में श्रीकृष्ण स्थिर बुद्धि वाले मनीषी की निम्न प्रकार से व्याख्या करते हैं। 


1. वीत रागः वे सुख की लालसा को त्याग देते हैं। 

2. वीत भयः वे भयमुक्त होते हैं।

3. वीत क्रोधः वे क्रोध रहित होते हैं। 

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Daily Verse # 104

Chapter # 2, Verse 57

March 20, 2024


यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्। नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥



लोगों में ज्ञानोदय की अवस्था में पहुँचने की स्वाभाविक अभिलाषा होती है जिसका वर्णन श्रीकृष्ण, अर्जुन से करते हैं।वास्तव में ज्ञानोदय की उत्कंठा आत्मा की मूल प्रवृत्ति है। इसलिए सकल विश्व की सभी संस्कृतियों में सभी लोग जाने या अनजाने में इसकी अभिलाषा रखते हैं। श्रीकृष्ण ने इसे यहाँ अर्जुन के प्रश्न के उत्तर के रूप में प्रस्तुत किया है।



 

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Daily Verse # 105

Chapter # 2, Verse 58

March 21, 2024


यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥


 इन्द्रियों की तुष्टि करने के लिए उसके विषयों से संबंधित इच्छित पदार्थों की आपूर्ति करते हुए इन्द्रियों को शांत करने का प्रयास ठीक वैसा ही है जैसे जलती आग में घी की आहुति डालकर उसे बुझाने का प्रयास करना। इससे अग्नि कुछ क्षण के लिए कम हो जाती है किन्तु फिर एकदम और अधिक भीषणता से भड़कती है। इस प्रकार भगवद्गीता में वर्णन किया गया है कि इच्छाएँ कभी समाप्त नहीं होती और जब उनकी तुष्टि की जाती है तब वे और अधिक प्रबल हो जाती हैं।


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Daily Verse # 106

Chapter # 2, Verse 59

March 22, 2024


विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥



जब कोई व्यक्ति उपवास रखते समय भोजन ग्रहण करना छोड़ देता है तब इन्द्रिय तृप्ति की इच्छा क्षीण हो जाती है। इसी प्रकार रोगी व्यक्ति में भी विषय भोगों की रुचि कम हो जाती है। ऐसी विरक्ति अस्थायी होती है क्योंकि मन में कामनाओं के बीज विद्यमान रहते हैं। जब उपवास समाप्त हो जाता है या रोग दूर हो जाता है, तब कामनाएँ पुनः जागृत हो जाती है।


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Daily Verse # 107

Chapter # 2, Verse 60

March 23, 2024


यततो ह्यपि कौन्तेय पुरूषस्य विपश्चितः। इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥


इन्द्रियाँ उस अनियंत्रित जंगली घोड़े के समान हैं जिसकी नयी-नयी कमान कसी गयी हो। ये उतावली और अचेत होती हैं इसलिए इन्हें अनुशासित करना अत्यंत चुनौतीपूर्ण है जिसका सामना साधक को अपने भीतर करना पड़ता है।*

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Daily Verse # 108

Chapter # 2, Verse 61

March 24, 2024


तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः। वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥



इस दुराग्राही मन और इन्द्रियों को वश में करना आवश्यक है, श्रीकृष्ण अब इन्हें सुचारू रूप से नियंत्रित करने की विधि प्रकट करते हैं जो कि भगवान की भक्ति में तल्लीनता है।


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Daily Verse # 109

Chapter # 2, Verse 62

March 25, 2024


ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते । सङ्गत्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥


 इस श्लोक और आगे के श्लोकों में श्रीकृष्ण ने मन के कार्य-कलापों का पूर्ण एवं सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि से वर्णन किया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि जब हम कुछ पदार्थों से मिलने वाले सुख का बार-बार चिन्तन करते हैं तब मन उनमें आसक्त हो जाता है। क्रोध, लालच, वासना आदि को वैदिक ग्रंथों में मानस रोग या मानसिक रोग कहा गया है।



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Daily Verse # 110

Chapter # 2, Verse 63

March 26, 2024


क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥



विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है।


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Daily Verse # 111

Chapter # 2, Verse 64

March 27, 2024


रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्। आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥




यदि हम बार-बार यह स्मरण करते हैं कि भगवान में ही सुख है तब भगवान में हमारी भक्ति विकसित होगी। यह दिव्य प्रेम भौतिक आसक्ति के समान मन को दूषित नहीं करेगा अपितु उसे शुद्ध कर देगा। भगवान शुद्ध तत्त्व हैं और जब हम अपने मन को उनमें लीन करते हैं तब मन भी शुद्ध हो जाता है। इस प्रकार श्रीकृष्ण हमें मोह और कामनाओं का त्याग करने का उपदेश देते हैं। यहाँ वे केवल लौकिक मोह और कामनाओं के संबंध में चर्चा कर रहे हैं।


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Daily Verse # 112

Chapter # 2, Verse 65

March 29, 2024


प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते। प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥


अपनी कृपा द्वारा भगवान जो सत्-चित्-आनन्द हैं, दिव्य ज्ञान व दिव्य प्रेम और दिव्य आनन्द प्रदान करते हैं। यह कृपा प्रेम आनन्द और भगवद्ज्ञान प्राप्त करने में ध्रुव तारे के समान बुद्धि की घेराबंदी करती है। भगवद्कृपा से जब हमें दिव्य प्रेम रस का अनुभव होता है तब इन्द्रियों के सुखों को प्राप्त करने की उत्तेजना का शमन हो जाता है। एक बार जब सांसारिक विषय भोगों की लालसा समाप्त हो जाती है तब मनुष्य सभी दुखों से परे हो जाता है और मन शांत हो जाता है। इस प्रकार की आंतरिक संतुष्टि से बुद्धि दृढ़ता से यह निर्णय करती है कि समस्त सुखों और आत्मा के अंतिम लक्ष्य का एकमात्र उद्गम भगवान हैं। 


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Daily Verse # 113

Chapter # 2, Verse 66

March 31, 2024


नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना। न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥



श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो अपनी इन्द्रियों पर संयम नहीं रखते और निरंतर उनकी तृप्ति करने मे लगे रहते हैं, वे माया के तीन गुणों के बंधनों मे बंध जाते हैं। भौतिक इच्छाएँ खुजली वाली खाज जैसी हैं जिसमें हम जितना अधिक लिप्त होते हैं उतना ही अधिक हमारा विनाश होता है। इस प्रकार सांसारिक विषय भोगों में लिप्त रहने पर हम कैसे वास्तविक सुख पा सकते हैं?



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Daily Verse # 114

Chapter # 2, Verse 67

April 4 , 2024


इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते। तदस्य हरति प्रज्ञां वायु वमिवाम्भसि ॥



अयुक्त पुरुष में बुद्धि क्यों नहीं होती इस पर कहते हैं क्योंकि अपने अपने विषय में विचरने वाली अर्थात् विषयों में प्रवृत्त हुई इन्द्रियोंमेंसे जिसके पीछे पीछे यह मन जाता है विषयों में प्रवृत्त होता है वह उस इन्द्रिय के विषयको विभागपूर्वक ग्रहण करनेमें लगा हुआ मन इस साधक की आत्म अनात्म सम्बन्धी विवेकज्ञानसे उत्पन्न हुई बुद्धि को हर लेता है अर्थात् नष्ट कर देता है।

कैसे जैसे जलमें नौका को वायु हर लेता है वैसे ही अर्थात् जैसे जल में चलने की इच्छा वाले पुरुषों की नौका को वायु गन्तव्य मार्ग से हटाकर उल्टे मार्ग पर ले जाता है वैसे ही यह मन आत्मविषयक बुद्धि को विचलित करके विषय विषयक बना देता है।


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Daily Verse # 115

Chapter # 2, Verse 68

April 5 , 2024


तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

प्रबुद्ध आत्माएँ लोकातीत अर्थात दिव्य ज्ञान द्वारा बुद्धि को वश में रखती हैं और फिर विशुद्ध बुद्धि के साथ वे मन को नियंत्रित करती हैं तथा मन का प्रयोग इन्द्रियों पर लगाम कसने के लिए करती हैं लेकिन प्रतिबंधित सांसारिक अवस्था में इसका उलटा होता है। इन्द्रियाँ मन को अपनी दिशा की ओर खींचती है और मन बुद्धि पर हावी हो जाता है और फिर बुद्धि वास्तविक कल्याण के मार्ग से भटक जाती है। इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि बुद्धि आध्यात्मिक ज्ञान से दिव्य होगी तब इन्द्रियाँ वश में रहेंगी और जब इन्द्रियों पर संयम होगा तब फिर बुद्धि दिव्य चिन्तन के मार्ग से विचलित नहीं होगी।



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Daily Verse # 116

Chapter # 2, Verse 69

April 18, 2024


या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥




 यह जो लौकिक और वैदिक व्यवहार है वह सबकासब अविद्याका कार्य है अतः जिसको विवेकज्ञान प्राप्त हो गया है ऐसे स्थितप्रज्ञके लिये अविद्याकी निवृत्तिके साथ ही साथ ( यह व्यवहार भी ) निवृत्त हो जाता है और अविद्याका विद्याके साथ विरोध होनेके कारण उसकी भी निवृत्ति हो जाती है। इस अभिप्रायको स्पष्ट करते हुए कहते हैं


तामस स्वभाव के कारण सब पदार्थोंका अविवेक कराने वाली रात्रि का नाम निशा है। 


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Daily Verse # 117

Chapter # 2, Verse 70

April 19, 2024


आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाजोति न कामकामी ॥


जिस प्रकार जल से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में अर्थात् अचल भावसे जिसकी प्रतिष्ठा स्थिति है ऐसे अपनी मर्यादा में स्थित समुद्र में सब ओर से गये हुए जल उसमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं।

उसी प्रकार विषयों का सङ्ग होने पर भी जिस पुरुष में समस्त इच्छाएँ समुद्र में जलकी भाँति कोई भी विकार उत्पन्न न करती हुई सब ओर से प्रवेश कर जाती हैं अर्थात् जिसकी समस्त कामनाएँ आत्मा में लीन हो जाती हैं उसको अपने वश में नहीं कर सकतीं

उस पुरुष को शान्ति मोक्ष मिलता है दूसरेको अर्थात् भोगों की कामना करने वाले को नहीं मिलता। अभिप्राय यह कि जिनको पाने के लिये इच्छा की जाती है उन भोगों का नाम काम है उनको पाने की इच्छा करना जिसका स्वभाव है वह कामकामी है वह उस शान्ति को कभी नहीं पाता।



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Daily Verse # 118

Chapter # 2, Verse 71

April 20, 2024


विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥



ऐसा है इसलिये जो संन्यासी पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को और भोगों को अशेषतः त्यागकर अर्थात् केवल जीवन मात्र के निमित्त ही चेष्टा करने वाला होकर विचरता है तथा जो स्पृहा से रहित हुआ है अर्थात् शरीर जीवन मात्रमें भी जिसकी लालसा नहीं है। ममता से रहित है अर्थात् शरीर जीवन मात्र के लिये आवश्यक पदार्थों के संग्रह में भी यह मेरा है ऐसे भाव से रहित है। तथा अहंकार से रहित है अर्थात् विद्वत्ता आदि के सम्बन्ध से होने वाले आत्माभिमान से भी रहित है। वह ऐसा स्थितप्रज्ञ ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी संसारके सर्वदुःखों की निवृत्तिरूप मोक्ष नामक परम शान्ति को पाता है अर्थात् ब्रह्मरूप हो जाता है।



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Daily Verse # 119

Chapter # 2, Verse 72

April 21, 2024


एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥



एक बार जब आत्मा भगवान को पा लेती है, तब वह सदा के लिए उससे एकनिष्ठ हो जाती है। इसके पश्चात माया का अंधकार उस पर कभी हावी नहीं हो पाता"। माया से सर्वदा मुक्ति को निर्वाण, मोक्ष इत्यादि कहा जाता है। फलस्वरूप मुक्ति ही भगवद्प्राप्ति का वास्तविक परिणाम है।



जय श्री कृष्ण!



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