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दिव्य ज्ञान (श्रीमद्भगवद्गीता के पावन पन्नों से)
Chapter # 3: कर्मयोग
(20/ 43 श्लोक)
पहले अध्याय में उस परिवेश का परिचय दिया गया था जिसमें अर्जुन के भीतर दुख और अवसाद उत्पन्न हुआ और जिसके कारण श्रीकृष्ण को दिव्य आध्यात्मिक उपदेश देना पड़ा। दूसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अविनाशी आत्मा के दिव्यज्ञान का वर्णन किया।
भगवान श्रीकृष्ण ने फिर कर्मयोग के विज्ञान का सर्वोत्तम सिद्धान्त प्रकट किया और अर्जुन को कर्मफलों से विरक्त रहने का उपदेश दिया और यह कहा कि ऐसा करने से बंधन उत्पन्न करने वाले कर्म बंधनमुक्त कर्मों में परिवर्तित होंगे।
Daily Verse # 120
Chapter # 3, Verse 1
अर्जुन बोला हे जनार्दन यदि कर्मोंकी अपेक्षा ज्ञानको आप श्रेष्ठ मानते हैं ( तो हे केशव मुझे इस हिंसारूप क्रूर कर्ममें क्यों लगाते हैं ) यदि ज्ञान और कर्म दोनोंका समुच्चय भगवान्को सम्मत होता तो फिर कल्याणका वह एक साधन कहिये कर्मोंसे ज्ञान श्रेष्ठ है इत्यादि वाक्योंद्वारा अर्जुनका ज्ञानसे कर्मोंको पृथक् करना अनुचित होता। क्योंकि ( समुच्चयपक्षमें ) कर्मकी अपेक्षा उस ( ज्ञान ) का फलके नाते श्रेष्ठ होना सम्भव नहीं। तथा भगवान्ने कर्मोंकी अपेक्षा ज्ञानको कल्याणकारक बतलाया और मुझसे ऐसा कहते हैं कि तू अकल्याणकारक कर्म ही कर इसमें क्या कारण है यह सोचकर अर्जुनने भगवान्को उलहनासा देते हुए जो ऐसा कहा कि तो फिर हे केशव मुझे इस हिंसारूप घोर क्रूर कर्ममें क्यों लगाते हैं वह भी उचित नहीं होता। यदि भगवान्ने स्मार्तकर्मके साथ ही ज्ञानका समुच्चय सबके लिये कहा होता एवं अर्जुनने भी ऐसा ही समझा होता तो उसका यह कहना कि फिर हे केशव मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं कैसे युक्तियुक्त हो सकता।
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Daily Verse # 121
Chapter # 3, Verse 2
श्री कृष्ण ने कर्म का त्याग करने का परामर्श नहीं दिया अपितु इसके विपरीत उन्होंने कर्म के फल की आसक्ति का त्याग करने का उपदेश दिया। अर्जुन श्रीकृष्ण के अभिप्राय को यह सोचकर गलत समझता है कि यदि ज्ञान कर्म से श्रेष्ठ है तब फिर वह इस युद्ध में भाग लेने के घिनौने कर्त्तव्य का पालन क्यों करें? इसलिए वह कहता है-"विरोधाभासी कथनों से तुम मेरी बुद्धि को भ्रमित कर रहे हो। मैं जानता हूँ कि आप करुणामयी हैं और आपकी इच्छा मुझे निष्फल करने की नहीं है, अतः कृपया मेरे संदेह का निवारण करें।"
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Daily Verse # 122
Chapter # 3, Verse 3
आध्यात्मिक मार्ग में रुचि रखने वालों में ऐसे लोग भी सम्मिलित होते हैं जो चिन्तन एवं मनन में रुचि रखते हैं और कुछ ऐसे लोग भी सम्मिलित होते हैं जो कर्म करने में रुचि रखते हैं। इस प्रकार से इन दोनों मार्गों का अस्तित्व तब तक बना रहता है जब तक आत्मा की भगवद्प्राप्ति की अभिलाषा विद्यमान रहती है। श्रीकृष्ण इन दोनों पद्धतियों का अनुसरण करने वालों को द्रवीभूत करते हैं क्योंकि उनका संदेश सभी प्रकार की मनोवृत्ति और रुचि रखने वाले लोगों के कल्याण के लिए है।
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Daily Verse # 123
Chapter # 3, Verse 4
जब तक मन अशुद्ध रहता है तब तक वास्तविक ज्ञान का उदय नहीं होता। मन की प्रवृत्ति पिछले विचारों की पुनरावृत्ति करना है। ऐसी पुनरावृत्ति मन के भीतर एक कड़ी का रूप ले लेती है और साथ में नए विचार भी निर्बाध रूप से समान दिशा में उमड़ते रहते हैं। अपनी पुरानी प्रवृत्तियों के कारण लौकिक चिन्तन से मन चिन्ता, तनाव, भय, घृणा, शत्रुता आसक्ति और सांसारिक आवेगों के समस्त रागों की ओर भागता रहता है। इस प्रकार केवल भौतिक रूप से संसार से संन्यास लेने से अशुद्ध अन्तःकरण में वास्तविक ज्ञान प्रकट नहीं होगा। यह उपयुक्त कर्म से युक्त होना चाहिए जो मन और बुद्धि को शुद्ध करता है। इस प्रकार से सांख्य योग में भी सफलता के लिए कर्म करना अनिवार्य है।
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Daily Verse # 124
Chapter # 3, Verse 5
बिना ज्ञान के केवल कर्मसंन्यास मात्र से मनुष्य निष्कर्मतारूप सिद्धि को क्यों नहीं पाता इसका कारण जानने की इच्छा होने पर कहते हैं कोई भी मनुष्य कभी क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता क्योंकि सभी प्राणी प्रकृतिसे उत्पन्न सत्त्व रज और तमइन तीन गुणोंद्वारा परवश हुए अवश्य ही कर्मों में प्रवृत्त कर दिये जाते हैं। यहाँ सभी प्राणी के साथ अज्ञानी ( शब्द ) और जोड़ना चाहिये ( अर्थात् सभी अज्ञानी प्राणी ऐसे पढ़ना चाहिये ) क्योंकि आगे जो गुणोंसे विचलित नहीं किया जा सकता इस कथन से ज्ञानियों को अलग किया है अतः अज्ञानियों के लिये ही कर्मयोग है ज्ञानियों के लिये नहीं। क्योंकि जो गुणों द्वारा विचलित नहीं किये जा सकते उन ज्ञानियों में स्वतः क्रिया का अभाव होने से उनके लिये कर्मयोग सम्भव नहीं है। ऐसे ही वेदाविनाशिनम् इस श्लोक की व्याख्या में विस्तारपूर्वक कहा गया है।
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Daily Verse # 125
Chapter # 3, Verse 6
संन्यासी जीवन के प्रति आकर्षित होकर लोग प्रायः अपने कर्मों का परित्याग कर देते हैं और बाद में उन्हें ज्ञात होता है कि उनका वैराग्य सांसारिक विषयभोगों से विरक्त रहने के लिए अपेक्षित अनुपात के अनुरूप नहीं है। इससे मिथ्याचरिता की ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है जहाँ लोग स्वयं बाह्य दृष्टि से आध्यात्मवादी होने का ढोंग करते हैं जबकि आंतरिक रूप से निकृष्ट मनोभावों के साथ अधम उद्देश्यों के लिए जीवन निर्वाह करते हैं। इसलिए संसार में कर्मयोगी के रूप में संघर्ष करना पाखण्डपूर्ण संन्यासी जीवन व्यतीत करने से श्रेष्ठ है। अपरिपक्व अवस्था में संन्यास लेकर अपने जीवन की समस्याओं से दूर भागना आत्मा के उन्नयन की यात्रा में आगे बढ़ने का उपाय नहीं है।
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Daily Verse # 126
Chapter # 3, Verse 7
इस श्लोक में कर्मयोग शब्द का प्रयोग किया गया है। यह दो मुख्य अवधारणाओं के सामंजस्य से बना है। कर्म अर्थात व्यावसायिक कार्य और योग अर्थात भगवान में एकत्व। इस प्रकार कर्मयोगी वह है जो मन को भगवान में अनुरक्त कर सांसारिक दायित्वों का निर्वाहन करता है। ऐसा कर्मयोगी सभी प्रकार के कर्म करते हुए कर्म के बंधन से मुक्त रहता है। इस प्रकार से कर्म किसी मनुष्य को कर्म के नियमों में नहीं बांधता अपितु उन कर्मों के फलों में आसक्ति रखने पर वह कर्म के बंधन में बंध जाता है।
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Daily Verse # 127
Chapter # 3, Verse 8
"आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है और क्योंकि यह घातक शत्रु, विशेष रूप से उसके शरीर में निवास करता है।" कर्म मनुष्य का विश्वस्त मित्र है और उसे निश्चित रूप से अध :पतन से बचाता है। मुख्य शारीरिक गतिविधियाँ जैसे भोजन ग्रहण करना, स्नान करना तथा शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए कर्म करना अनिवार्य होता है। इन अनिवार्य कर्मों को नित्यकर्म कहा जाता है। शरीर को सुचारु रूप से क्रियाशील रखने से संबंधित इन मुख्य क्रियाओं की उपेक्षा करना उन्नति का सूचक नहीं है अपितु आलसी होने का संकेत है जो मन और शरीर दोनों को क्षीण और दुर्बल करता है।
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Daily Verse # 128
Chapter # 3, Verse 9
जो तू ऐसा समझता है कि बन्धनकारक होनेसे कर्म नहीं करना चाहिये तो यह समझना भी भूल है। कैसे यज्ञ ही विष्णु है इस श्रुति प्रमाण से यज्ञ ईश्वर है और उसके लिये जो कर्म किया जाय वह यज्ञार्थ कर्म है उस ( ईश्वरार्थ ) कर्म को छोड़कर दूसरे कर्मों से कर्म करने वाला अधिकारी मनुष्य समुदाय कर्मबन्धनयुक्त हो जाता है पर ईश्वरार्थ किये जानेवाले कर्म से नहीं। इसलिये हे कौन्तेय तू कर्मफल और आसक्ति से रहित होकर ईश्वरार्थ कर्मों का भली प्रकार आचरण कर।
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Daily Verse # 129
Chapter # 3, Verse 10
प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे॥
जय श्री कृष्ण!
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Daily Verse # 130
Chapter # 3, Verse 11
वेदों में स्वर्ग के देवताओं को प्रसन्न करने के लिए कई प्रकार के कर्मकाण्डों एवं धार्मिक विधि-विधानों का उल्लेख किया गया है और इनके बदले में देवता लौकिक सुख समृद्धि प्रदान करते हैं। जब हम अपने यज्ञ कर्म भगवान की संतुष्टि के लिए करते हैं तब स्वर्ग के देवता भी स्वतः संतुष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार हम किसी वृक्ष की जड़ को पानी देते है तब वह स्वतः उसके पुष्पों, फलों, पत्तियों शाखाओं और लताओं तक पहुँच जाता है।
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Daily Verse # 131
Chapter # 3, Verse 12
ब्रह्मांड की विभिन्न प्रक्रियाओं के प्रशासक के रूप में देवता हमें वर्षा, वायु, अन्न, खनिज और उपजाऊ भूमि आदि प्रदान करते हैं। देवताओं द्वारा प्रदत्त इन सभी उपहारों के लिए हमें उनका आभारी होना चाहिए।
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Daily Verse # 132
Chapter # 3, Verse 13
श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में यह व्याख्या की है कि सर्वप्रथम भगवान के भोग के लिए अर्पित किए गए भोजन को जब प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है तब वह मनुष्यों को पाप मुक्त करता है और जो भगवान को भोग लगाए बिना भोजन ग्रहण करते हैं, वे पाप अर्जित करते हैं।
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Daily Verse # 133
Chapter # 3, Verse 14
इस श्लोक में श्रीकृष्ण सृष्टि के चक्र का वर्णन कर रहे हैं। वर्षा अन्न उत्पन्न करती है। अन्न का सेवन करने से शरीर में रक्त संचारित होता है और रक्त से वीर्य बनता है। इसी वीर्य बीज से मनुष्य का शरीर बनता है और मनुष्य यज्ञ कर्म करता है तथा इससे स्वर्ग के देवता संतुष्ट होते हैं जो फिर पृथ्वी पर वर्षा करते हैं। इस प्रकार सृष्टि का चक्र निरन्तर चलता रहता है।
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Daily Verse # 134
Chapter # 3, Verse 15
सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। अन्न वर्षा से होती है। वर्षा यज्ञ से होती है। यज्ञ कर्मों से निष्पन्न होता है। कर्मों को तू वेद से उत्पन्न जान और वेदको अक्षर ब्रह्म से प्रकट हुआ जान। इसलिये वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) में नित्य प्रतिष्ठित है।
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Daily Verse # 135
Chapter # 3, Verse 16
सृष्टि के काल चक्र की रचना भगवान द्वारा अनुशासन और प्रशिक्षण हेतु तथा चेतना के विभिन्न स्तरों पर सभी मनुष्यों को ऊपर उठाने के लिए की गई है। श्रीकृष्ण अर्जुन को स्पष्ट करते हैं कि वे जो अपने लिए निर्देशित यज्ञ कर्म नहीं करते, वे अपनी इन्द्रियों के दास बन जाते हैं और पापमयी जीवन व्यतीत करते हैं इसलिए वे व्यर्थ में जीवित रहते हैं। किन्तु जो व्यक्ति दैवीय नियमों का पालन करते हैं, उनका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और वे सभी प्रकार के मानसिक विकारों से मुक्त रहते हैं।
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Daily Verse # 136
Chapter # 3, Verse 17
स्वयं ही भगवान् शास्त्रके अर्थ को भली भाँति समझाने के लिये यह जो प्रसिद्ध आत्मा है उसको जानकर जिनका मिथ्या ज्ञान निवृत्त हो चुका है ऐसे जो महात्मा ब्राह्मणगण अज्ञानियों द्वारा अवश्य की जाने वाली पुत्रादि की इच्छाओं से रहित होकर केवल शरीर निर्वाह के लिये भिक्षा का आचरण करते हैं उनका आत्म ज्ञान निष्ठा से अतिरिक्त अन्य कुछ भी कर्तव्य नहीं रहता ऐसा श्रुतिका तात्पर्य जो कि इस गीताशास्त्र में प्रतिपादन करना उनको इष्ट है उस ( श्रुतिअर्थ ) को प्रकट करते हुए बोले परंतु जो आत्मज्ञाननिष्ठ सांख्ययोगी केवल आत्मा में ही रतिवाला है अर्थात् जिसका आत्मामें ही प्रेम है विषयोंमें नहीं और जो मनुष्य अर्थात् संन्यासी आत्मासे ही तृप्त है जिसकी तृप्ति अन्नरसादिके अधीन नहीं रह गयी है तथा जो आत्मामें ही संतुष्ट है बाह्य विषयोंके लाभसे तो सबको सन्तोष होता ही है पर उनकी अपेक्षा न करके जो आत्मामें ही सन्तुष्ट है अर्थात् सब ओरसे तृष्णारहित है। जो कोई ऐसा आत्मज्ञानी है उसके लिये कुछ भी कर्तव्य नहीं है।
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Daily Verse # 137
Chapter # 3, Verse 18
ये आत्मलीन संत आत्मा की अलौकिक अवस्था में स्थित रहते हैं। उनके सभी कर्म लोकातीत और भगवान की सेवा के लिए होते हैं। अतः सांसारिक मनुष्यों के लिए शारीरिक स्तर पर नियत वर्णाश्रम धर्म के आधार पर नियत कर्तव्यों का पालन करना उनके लिए अनिवार्य नहीं होता। यहाँ कर्म और भक्ति में भेद जानना आवश्यक है। इससे पूर्व श्रीकृष्ण कर्म अर्थात नियत सांसारिक कर्तव्यों के संबंध में व्याख्या कर रहे थे और यह कह रहे थे कि उन्हें भगवान को समर्पित करना चाहिए। यह मन की शुद्धि और उसे सांसारिक विकारों से ऊपर उठने में सहायता करता है किन्तु आत्मलीन जीवात्मा पहले ही भगवान में विलीन होकर मन को शुद्ध कर चुकी होती है।
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Daily Verse # 138
Chapter # 3, Verse 19
श्री कृष्ण पुरजोर आह्वान करते हैं कि जिन मनुष्यों ने अभी तक सिद्धावस्था प्राप्त नहीं की है उन्हें अपने नियत कर्मों का पालन करना चाहिए। उन्होंने व्यक्त किया है कि ज्ञानातीत संतों के लिए नियत कर्मों का पालन करना आवश्यक नहीं होता। अतः अर्जुन के लिए कौन-सा मार्ग अति उपयुक्त है? श्री कृष्ण उसके लिए कर्मयोगी बनने की सन्तुति करते हैं न कि कर्म संन्यासी बनने की।
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Daily Verse # 139
Chapter # 3, Verse 20
मानव जाति उन्हीं आदर्शों से प्रेरित होती है जिन्हें वो महापुरुषों के जीवन में देखती है। ऐसे नेता अपने आदर्शों से समाज को प्रेरणा प्रदान करते हैं और सामान्य जन के लिए चमकते हुए प्रकाश स्तम्भ बन जाते हैं ताकि वे उनका अनुसरण कर सकें। समाज के नेताओं का यह नैतिक दायित्व होता है कि वे अपने वचनों, कार्यों और चरित्र द्वारा जनता को प्रेरित करने के लिए उच्च आदर्श स्थापित करें। जब श्रेष्ठ नेता आगे बढ़कर नेतृत्व करते हैं तब स्वाभाविक रूप से शेष समाज नैतिकता, नि:स्वार्थता और आध्यात्मिक शक्ति में ऊपर उठ जाता है।
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