Divine Stories
Click here to get Mantras, Bhajans and Sri Hanuman Chalisa
Content
कहानी 1. ऋषि वशिष्ठ बने भगवान राम के गुरु
कहानी 2. हाथी की पुकार सुनकर नंगे पैर दौड़े चले आए भगवान विष्णु
कहानी 3. श्रीकृष्ण का नर्तकी वेश!
कहानी 4. जब नागों की माता पहुंची हनुमान जी की बल-बुद्धि की परीक्षा लेने
कहानी 5. उत्पन्ना एकादशी व्रत कथा
कहानी 6. भक्तमाली और लड्डू गोपाल जी
कहानी 7. श्रीकृष्ण अपने साथ द्रौपदी को लेकर पहुंचे भीष्म के पास और बच गया पांडवों का जीवन
कहानी 8. सुदामा दरिद्र क्यों?
कहानी 9. आखिर कैसे राधा रानी किशोरी बनीं
🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔
उपरोक्त कहानियों को पढ़ने का आनंद लीजिए ⤵️⤵️
Story # 1. इन गुणों के कारण ऋषि वशिष्ठ बने भगवान राम के गुरु!!
वशिष्ठ वैदिक काल के विख्यात ऋषि थे। वशिष्ठ एक सप्तर्षि हैं - यानि के उन सात ऋषियों में से एक जिन्हें ईश्वर द्वारा सत्य का ज्ञान एक साथ हुआ था और जिन्होंने मिलकर वेदों का दर्शन किया।वशिष्ठ ब्रम्हा के मानस पुत्र थे। त्रेता के अंत मे ये ब्रम्हा लोक चले गए थे । आकाश में चमकते सात तारों के समूह में पंक्ति के एक स्थान पर वशिष्ठ को स्थित माना जाता है।
दशरथ के यहां कोई संतान नहीं हो रही थी। निराश होकर, गुरु वशिष्ठ से कहा।
गुरु वशिष्ठ के कहने पर यज्ञ हुआ, तो राम आए। राम जी को प्रकट कराने के अन्य कई कारण हैं, राम के रूप में ईश्वर प्रगट हुए, इसका एक कारण वशिष्ठ भी थे।
वशिष्ठ के काल में जितनी महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं, वे रामराज्य में सहायक बनीं। एक तरह से वे रामराज्य रूपी महल के संबल थे।
भरत को ऐसा राज्य नहीं चाहिए जिसमें राम न हो। मगर पिता आदेश से बंधे राम नहीं मानते।भरत नंदीग्राम में रह कर गुरु वशिष्ठ जी से आज्ञा मांग कर राज्य का संचालन करते थे। तो अभिप्राय यह कि वशिष्ठ जी ने अपने ज्ञान-पुण्य प्रताप से रघुवंश को ऊंचाई पर पहुंचा दिया।
ऋषि वशिष्ठ को राजा बने बिना जो सम्मान प्राप्त था उसके सामने राजा का पद छोटा दिखता था।
गुरु वशिष्ठ संत शिरोमणि हैं, गुरु शिरोमणि हैं। ज्ञान शिरोमणि हैं, आध्यात्मिक संसार में जितने भी सोपान हो सकते हैं, उसके शिखर पर विद्यमान हैं गुरु वशिष्ठ।
ऋषि वशिष्ठ से पराजित होने के बाद विश्वामित्र जी को लगा कि सामान्य बल से तपोबल श्रेष्ठ है।
विश्वामित्र तपोबल अर्जित करने में जुट गए। फिर वशिष्ठ के पुत्रों को मार दिया, लेकिन वशिष्ठ जी ने अपने ऋषित्व को कहीं भी क्षतिग्रस्त नहीं होने दिया। विश्वामित्र ने फिर तपस्या शुरू की। कहते हैं कि उन्होंने महाराज सुदास को शाप देकर बारह वर्ष के लिए राक्षस बना दिया, उस राक्षस ने ही वशिष्ठ जी के पुत्रों को नष्ट कर दिया था।
वशिष्ठ जी कभी क्रोधित नहीं होते थे। हमेशा ही संयमित और प्रसन्न रहते थे। जो गुरु की सबसे ऊंची स्थिति है, वे संयमित रहकर सबकुछ करते थे। यही कारण था कि अंत में विश्वामित्र जी को झुकना पड़ा। विश्वामित्र बोलते थे, जब तक वशिष्ठ जी मुझे ब्रह्मर्षि नहीं कहेंगे, तब तक मैं बह्मर्षि नहीं हूं। जिनके सौ बच्चों को नष्ट कर दिया, उन्हीं से ब्रह्मर्षि की उपाधि लेने की कोई कल्पना नहीं कर सकता। कितनी दयालुता होगी, कल्पना कीजिए, पुत्रों को मारने वाले को माफ कर दिया।
रघुवंशी सूर्यवंशी ही हैं, लेकिन रघुवंशियों को जो ज्ञान हुआ, वह वशिष्ठ जी के कारण ही हुआ।गुरु वशिष्ठ इसलिए श्रेष्ठ है। रघुकुल की परंपरा का वे पालन करवाते हैं।
🚩🙏 सियावर रामचंद्र की जय 🙏🚩
- Aarti: CLICK HERE
- Daily Verse/ Divya Gyan : CLICK HERE
- Divine Stories (Part 1): CLICK HERE
- Divine Stories (Part 2) : Click here
- Divine Songs : Click here
- Instagram: Click here
- Ekadashi Stories: CLICK HERE
- Facebook: Click here
- Gita Gyan: Click here
- Kartik Mahimamrit : Click here
- Sri Hanuman Chalisa: Click here
- WhatsApp: Click here
Story # 2 : जब एक हाथी की पुकार सुनकर नंगे पैर दौड़े चले आए भगवान विष्णु, पढ़ें कथा
द्रविड़ देश में गजेंद्र नामक एक परम प्रतापी राजा राज्य करते थे, उन्होंने अनेक वर्षों तक धर्मपूर्वक राज्य किया. वृद्धवस्था में उन्होंने राज-पाट त्याग दिया और मलय पर्वत पर आश्रम बनाकर तपस्या करने लगे. एक बार की बात है, महर्षि अगस्त्य शिष्यों सहित गजेंद्र के आश्रम में पधारे.
उस समय गजेंद्र समाधि में लीन थे, इसलिए उन्हें महर्षि के आगमन का पता नहीं चला. अगस्त्य जी ने इसे अपने अपमान के रूप में देखा और क्रोधित होकर राजा को शाप देते हुए कहा, ” दुष्ट! तूने अभिमान में आकर मेरा अपमान किया है, मेरे आने पर भी तू हाथी की भाँति बैठा रहा, मैं तुझे श्राप देता हूँ कि तू गज की योनि में जन्म लेगा.”
इसी शाप के कारण राजा गजेंद्र को हाथी की योनि में जन्म लेना पड़ा, लेकिन पुण्यकर्मों के कारण हाथी की योनि में भी उन्हें पूर्वजन्म की स्मृति रही और वे निरंतर भगवान का स्मरण करते रहे. गजेंद्र हाथी अपनी हथनियों के साथ प्रायः सरोवर में स्नान के लिये आता रहता था. गजेंद्र बहुत विशाल और शक्तिशाली था.
उसे देखकर अन्य पशु डरकर भाग जाते थे. एक दिन गजेंद्र अपनी पत्नियों के साथ सरोवर में क्रीड़ा कर रहा था, तभी एक विशाल ग्राह (मगरमच्छ) ने गजेंद्र की टाँग पकड़ ली और उसे सरोवर के भीतर खींचने लगा. गजेंद्र ने उससे बचने का बहुत प्रयत्न किया, लेकिन असफल रहा. अंत में उसने भगवान विष्णु का ध्यान किया और उनसे रक्षा की प्रार्थना की.
उसकी करुणामय स्तुति सुनकर भगवान विष्णु उसकी रक्षा करने हेतु वहां नंगे पैर ही भागे चले आए. यह देख गजेंद्र ने अपनी सूंड से एक कमल तोड़कर श्रीहरि के चरणों में अर्पित कर दिया. उसके भक्तिभाव से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से उस ग्राह का अंत करके गजेंद्र की रक्षा की. इस प्रकार भक्तवत्सल भगवान श्रीहरि ने गजेंद्र को शाप मुक्त करके अपना पार्षद बनाया. उनके हाथों मृत्यु पाकर वह ग्राह भी मोक्ष का अधिकारी बना.
- Aarti: CLICK HERE
- Daily Verse/ Divya Gyan : CLICK HERE
- Divine Stories (Part 1): CLICK HERE
- Divine Stories (Part 2) : Click here
- Divine Songs : Click here
- Instagram: Click here
- Ekadashi Stories: CLICK HERE
- Facebook: Click here
- Gita Gyan: Click here
- Kartik Mahimamrit : Click here
- Sri Hanuman Chalisa: Click here
- WhatsApp: Click here
Story 3. श्रीकृष्ण का नर्तकी वेश!
एक दिन श्रीराधा अत्यधिक रूष्ट हो गईं। श्रीकृष्ण बहुत प्रकार के उपायों द्वारा भी उन्हें प्रसन्न करने में असमर्थ हुए, तब वे कुन्दलताजी के पास गए और श्रीराधाजी का मान भंग करने एक मन्त्रणा किए।
वस्त्र,भूषणादि परिधानों से सुसज्जित होकर उन्हाने सुंदर नर्तकी का वेश धारण किया। कोयल जैसी मधुर वाणी से वार्तालाप करते हुए कुन्दलताजी के साथ श्रीराधारानी जी से मिलने चल पड़े। जब वे सुललित मन्थर गति से चल रहे थे, तब श्रीचरण युगल में पहने हुए मणि नूपुर मधुर झंकार कर रहे थे। ऐसी रूप लावण्यवती नारी को मार्ग में जिन गोपियों ने देखा,वो चमत्कृत हो ठगी सी खड़ी रह गईं। श्रीराधा साखियों के संग बैठी थी, दूर से ही उन्हें राधारानी ने आते देखा। ऐसा रूप लावण्य देखकर वो विस्मित हो गईं। श्रीराधा बोलीं- "कहो कुंदलते! आज यहां इस समय किस कारण आना हुआ और यह नवयौवना कौन है तुम्हारे संग ?"
कुंदलताजी बोलीं-"राधे! ये मेरी सखी है। ये मथुरा से तुमसे मिलने आई है। इसने तुम्हारा बड़ा नाम सुना है, तुम्हारा यश तो त्रिभुवन में फैला है। तुम नृत्य संगीत कला में गन्धर्वो की भी गुरुरूपा हो। "मेरी यह सखी गीत -वाद्य-नृत्य इन तीन विद्याओं में परम प्रवीण है, देव मनुष्यादि में कोई नही जो इसके समान नृत्य कर सके। इसका नृत्य पशु,पक्षी,मनुष्य,देवता आदि का भी चित्त हरण कर लेता है, इसके नृत्य कला गुरु श्रीसंगीतदामोदर जी हैं !"
इतनी प्रशंसा सुन श्रीराधा भी कौतुकी हो उठीं। सखियाँ भी सब उन्हें घेरकर खड़ीं हो गईं। श्रीराधा बोलीं-"ऐसा है तो सखी क्या तुम हमे अपना नृत्य दिखाओगी ? मेरी सखियाँ वाद्य संभालेंगी !"
श्याम सुंदर को और क्या चाहिए था, वे सहर्ष तैयार हो गए, सखियों के मधुर वाद्य और संगीत ने दिशाओं को झंकृत कर दिया। अब नटवर ने नृत्य शुरू किया, नर्तकी वेश में अद्भुत ताल,लय के साथ नृत्य करने लगे। भाव भंगिमा, अंगो के संचालन में अद्भुत लास्य है, नृत्य की गति कभी मद्धिम कभी द्रुत हो रही थी, श्रीराधा सह सखियाँ भी चकित हो गईं, ऐसा नृत्य न कभी देखा और ना ही सुना।
जब श्याम सुंदर श्रीराधा को रिझाने नृत्य करें तो उससे सुंदर नृत्य क्या कुछ हो सकता है ? वन के मृग, पशु, पक्षी, मोर भी स्तम्भित हो नृत्य देख रहे थे, और ऐसा अद्भुत नृत्य देख श्रीराधा का चित्त भी द्रवित हो गया। श्रीराधा भी खुद को रोक नही पाई। अद्भुत सम्मोहन श्याम सुंदर के नृत्य में, श्रीराधा भी उनके साथ नाच उठीं। क्या अप्रतिम सौंदर्य। नील और सुवर्ण वर्ण दो सौंदर्य मूर्ति कैसे ताल मिलाकर नाच रहे। सखियाँ देखकर परमानंद में मग्न हुई जा रही हैं।
नृत्य का विश्राम हुआ, अति प्रसन्न श्रीराधा बोलीं- "हे सखी! तुमने मुझे अति आनंद प्रदान किया। मैं तुम्हे कुछ उपहार देना चाहती हूँ। बोलो सखी ! तुम्हे क्या चाहिये ?"
श्री श्याम सुंदर इसी की तो प्रतीक्षा कर रहे थे, ऐसा उद्दाम सुललित नृत्य इसी एक पल के लिए ही तो था। श्याम सुंदर बोले-"सखी! मेरी केवल एक इच्छा है। तुम मुझे अपना आलिंगन रूप उपहार दो !" श्रीराधारानी ने प्रसन्न हो उन्हें गले लगा लिया। गले लगते ही अपने चित्त में होने वाले परिवर्तन से वो अपने प्रियतम को पहचान गईं। श्रीराधा मुस्कुरा दीं। सखियाँ भी मुस्कुराने लगीं, श्रीराधा का दुर्जय मान जाता रहा। उन्होंने पुनः श्याम सुंदर का आलिंगन कर लिया। श्याम सुंदर ने कृतज्ञता पूर्वक मुस्कुरा कर कुन्दलता जी की ओर देखा- "कुंदलते! आज भी तुमने बचा लिया !"
श्याम सुंदर श्रीराधा के मान भंजन के लिए ना जाने कितने रूप धरते हैं। अद्भुत नृत्यांगना रूपधारी श्याम सुंदर की जय हो।
🚩🙏 "जय जय श्री राधे"🙏🚩
- Aarti: CLICK HERE
- Daily Verse/ Divya Gyan : CLICK HERE
- Divine Stories (Part 1): CLICK HERE
- Divine Stories (Part 2) : Click here
- Divine Songs : Click here
- Instagram: Click here
- Ekadashi Stories: CLICK HERE
- Facebook: Click here
- Gita Gyan: Click here
- Kartik Mahimamrit : Click here
- Sri Hanuman Chalisa: Click here
- WhatsApp: Click here
Story # 4: *जब नागों की माता पहुंची हनुमान जी की बल-बुद्धि की परीक्षा लेने!!*
हनुमान जी को आकाश में बिना विश्राम लिए लगातार उड़ते देखकर समुद्र ने सोचा कि ये प्रभु श्री रामचंद्र जी का कार्य पूरा करने के लिए जा रहे हैं। किसी प्रकार थोड़ी देर के लिए विश्राम दिलाकर इनकी थकान दूर करनी चाहिए। उसने अपने जल के भीतर रहने वाले मैनाक पर्वत से कहा, ‘‘मैनाक! तुम थोड़ी देर के लिए ऊपर उठकर अपनी चोटी पर हनुमान जी को बिठाकर उनकी थकान दूर करो।’’
समुद्र का आदेश पाकर मैनाक प्रसन्न होकर हनुमान जी को विश्राम देने के लिए तुरंत उनके पास आ पहुंचा। उसने उनसे अपनी सुंदर चोटी पर विश्राम के लिए निवेदन किया तो हनुमान बोले, ‘‘मैनाक ! तुम्हारा कहना ठीक है, लेकिन भगवान श्री राम चंद्र जी का कार्य पूरा किए बिना मेरे लिए विश्राम करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।’’ ऐसा कह कर उन्होंने मैनाक को हाथ से छूकर प्रणाम किया और आगे चल दिए।
हनुमान जी को लंका की ओर प्रस्थान करते देख कर देवताओं ने सोचा कि ये रावण जैसे बलवान राक्षस की नगरी में जा रहे हैं। अत: इस समय इनके बल-बुद्धि की विशेष परीक्षा कर लेना आवश्यक है। यह सोच कर उन्होंने नागों की माता सुरसा से कहा, ‘‘देवी, तुम हनुमान के बल-बुद्धि की परीक्षा लो।’’
देवताओं की बात सुनकर सुरसा तुरंत एक राक्षसी का रूप धारण कर हनुमान जी के सामने जा पहुंची और उनका मार्ग रोकते हुए बोली, ‘‘वानर वीर ! देवताओं ने आज मुझे तुमको अपना आहार बनाने के लिए भेजा है।’’
उसकी बातें सुनकर हनुमान जी ने कहा, ‘‘माता ! इस समय मैं प्रभु श्री रामचंद्र जी के कार्य से जा रहा हूं। उनका कार्य पूरा करके मुझे लौट आने दो। उसके बाद मैं स्वयं ही आकर तुम्हारे मुंह में प्रविष्ट हो जाऊंगा। यह तुमसे मेरी प्रार्थना है।’’
इस प्रकार हनुमान जी ने सुरसा से बहुत प्रार्थना की, लेकिन उसने किसी प्रकार भी उन्हें जाने न दिया। अंत में हनुमान जी ने कुद्ध होकर कहा, ‘‘अच्छा तो लो तुम मुझे अपना आहार बनाओ।’’
उनके ऐसा कहते ही सुरसा अपना मुंह सोलह योजन तक फैलाकर उनकी ओर बढ़ी। हनुमान जी ने भी तुरंत अपना आकार उसका दुगना अर्थात 32 योजन तक बढ़ा लिया। इस प्रकार जैसे-जैसे वह अपने मुख का आकार बढ़ाती गई, हनुमान जी अपने शरीर का आकार उसका दुगना करते गए। अंत में सुरसा ने अपना मुंह फैलाकर 100 योजन तक चौड़ा कर लिया।
हनुमान जी तुरंत अत्यंत छोटा रूप धारण करके उसके उस 100 योजन चौड़े मुंह में घुस कर तुरंत बाहर निकल आए। उन्होंने आकाश में खड़े होकर सुरसा से कहा, ‘‘माता ! देवताओं ने तुम्हें जिस कार्य के लिए भेजा था, वह पूरा हो गया है। अब मैं भगवान श्री राम चंद्र जी के कार्य के लिए अपनी यात्रा पुन: आगे बढ़ाता हूं।’’
सुरसा ने तब उनके सामने अपने असली रूप में प्रकट होकर कहा, ‘‘महावीर हनुमान ! देवताओं ने मुझे तुम्हारे बल-बुद्धि की परीक्षा लेने के लिए यहां भेजा था। तुम्हारे बल-बुद्धि की समानता करने वाला तीनों लोकों में कोई नहीं है। तुम शीघ्र ही भगवान श्री राम चंद्र जी के सारे कार्य पूर्ण करोगे। इसमें कोई संदेह नहीं है, ऐसा मेरा आशीर्वाद है।
🚩🙏 ॐ हं हनुमते नम:🙏🚩
🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔
Story # 5
*उत्पन्ना एकादशी 8 & 9 दिसंबर 2023*
श्रीकृष्ण का प्रिय महीना मार्गशीर्ष 26 दिसंबर 2023 तक रहेगा. इस दौरान कई व्रत-त्योहार आएंगे जो भगवान विष्णु को समर्पित है, इन्हीं में से एक है मार्गशीर्ष माह की उत्पन्ना एकादशी. धर्म ग्रंथों के अनुसार उत्पन्ना एकादशी से ही एकादशी व्रत रखने की शुरुआत हुई थी, इसलिए इसका विशेष महत्व है.
https://whatsapp.com/channel/0029Va9ajiGA89MpSQm9WI3i
इस व्रत के प्रताप से व्यक्ति समस्त सांसारिक सुख भोगकर मोक्ष को प्राप्त होता है. उसके सारे कष्ट मिट जाते हैं. जो लोग एकादशी का व्रत आरंभ करना चाहिए हैं उनके लिए उत्पन्ना एकादशी बहुत पुण्यफलदायी है. इस साल उत्पन्ना एकादशी व्रत की डेट को लेकर कंफ्यूजन बना है. जानें उत्पन्ना एकादशी की सही तारीख, मुहूर्त और महत्व.
उत्पन्ना एकादशी शुभ मुहूर्त
पंचांग के अनुसार मार्गशीर्ष माह की उत्पन्ना एकादशी तिथि की शुरुआत 8 दिसंबर 2023 को सुबह 05.06 पर हो रही है. समापन 9 दिसंबर 2023 को सुबह 06.31 मिनट पर होगा.
8 दिसंबर 2023 - एकादशी का व्रत उदयातिथि के अनुसार किया जाता है. वहीं जब एकादशी तिथि दो दिन पड़ रही हो तो ऐसे में गृहस्थ (स्मार्त संप्रदाय) जीवन वालों को पहले दिन एकादशी व्रत करना चाहिए. उत्पन्ना एकादशी भी 8 दिसंबर 2023 को मान्य होगी.
9 दिसंबर 2023 - इस दिन वैष्णव संप्रदाय के लोग उत्पन्ना एकादशी का व्रत करेंगे. वैष्णव संप्रदाय की पूजा, पाठ के नियम अलग है. दूजी एकादशी यानी वैष्णव एकादशी के दिन सन्यासियों, संतों को एकादशी का व्रत करना चाहिए.
उत्पन्ना एकादशी 2023 व्रत पारण समय
गृहस्थ जीवन वाले यानी जो लोग 8 दिसंबर 2023 को उत्पन्ना एकादशी व्रत कर रहे हैं वह 9 दिसंबर 2023 को दोपहर 01.15 से दोपहर 03.20 के बीच व्रत पारण कर लें.
वहीं वैष्णव संप्रदाय के लोग 10 दिसंबर 2023 को सुबह 07.02 से सुबह 07.13 के बीच उत्पन्ना एकादशी का व्रत पारण कर सकते हैं.
*---‐-----------------------------------
एकादशी पूजा विधि
एकादशी के दिन ब्रह्मवेला में भगवान को पुष्प, जल, धूप, दीप, अक्षत से पूजन करना चाहिए। इस व्रत में केवल फलों का ही भोग लगाया जाता है। इस व्रत में दान करने से कई लाख गुना वृद्धि फल की प्राप्ति होती है। उत्पन्ना एकादशी पर धूप, दीप, नैवेद्य आदि सोलह सामग्री से भगवान श्रीकृष्ण का पूजन तथा रात में दीपदान करना चाहिए।
क्या है इसकी शुरुआत की पौराणिक कहानी
पौराणिक कहानी के अनुसार, भगवान विष्णुर और मुर नामक राक्षस का युद्ध चल रहा था। राक्षस से युद्ध करते-करते भगवान विष्णु थक गए थे, इसलिए वह बद्रीकाश्रम में गुफा में जाकर विश्राम करने चले लगे। मुर राक्षस भगवान विष्णु का पीछा करता हुए बद्रीकाश्रम पहुंच गया था। गुफा में भगवान विष्णु को निद्रा लग गई। निद्रा में लीन भगवान को मुर ने मारना चाहा तभी विष्णु भगवान के शरीर से एक देवी प्रकट हुईं और उन्हों ने मुर नामक राक्षस का तुरंत वध कर दिया। देवी के कार्य से विष्णु भगवान बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि देवी आपका जन्म कृष्ण पक्ष की एकादशी को हुआ है इसलिए आपका नाम एकादशी होगा। सभी व्रतों में तुम्हारा व्रत श्रेष्ठ होगा। आज से हर एकादशी को मेरे साथ तुम्हारी भी पूजा होगी। जो भक्त एकादशी का व्रत रखेगा वह पापों से मुक्त हो जाएगा।
उत्पन्ना एकादशी का महत्त्व
धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! मैंने कार्तिक शुक्ल एकादशी अर्थात प्रबोधिनी एकादशी का सविस्तार वर्णन सुना। अब आप कृपा करके मुझे मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी के विषय में भी बतलाइये। इस एकादशी का क्या नाम है तथा इसके व्रत का क्या विधान है? इसकी विधि क्या है? इसका व्रत करने से किस फल की प्राप्ति होती है? कृपया यह सब विधानपूर्वक कहिए।
भगवान श्रीकृष्ण बोले: मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष मे आने वाली इस एकादशी को उत्पन्ना एकादशी कहा जाता है। यह व्रत शंखोद्धार तीर्थ में स्नान करके भगवान के दर्शन करने से जो फल प्राप्त होता है, उसके बराबर पुण्य मिलता है। व्रत करने वाले भक्त को चोर, पाखंडी, परस्त्रीगामी, निंदक, मिथ्याभाषी तथा किसी भी प्रकार के पापी से बात नहीं करनी चाहिए। इसका माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूं, ध्यानपूर्वक सुनो।
उत्पन्ना एकादशी व्रत कथा
युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवन! आपने हजारों यज्ञ और लाख गौदान को भी एकादशी व्रत के बराबर नहीं बताया। सो यह तिथि सब तिथियों से उत्तम कैसे हुई, बताइए।
भगवन कहने लगे- हे युधिष्ठिर! सतयुग में मुर नाम का दैत्य उत्पन्न हुआ। वह बड़ा बलवान और भयानक था। उस प्रचंड दैत्य ने इंद्र, आदित्य, वसु, वायु, अग्नि आदि सभी देवताओं को पराजित करके भगा दिया। तब इंद्र सहित सभी देवताओं ने भयभीत होकर भगवान शिव से सारा वृत्तांत कहा और बोले हे कैलाशपति! मुर दैत्य से भयभीत होकर सब देवता मृत्यु लोक में फिर रहे हैं। तब भगवान शिव ने कहा- हे देवताओं! तीनों लोकों के स्वामी, भक्तों के दु:खों का नाश करने वाले भगवान विष्णु की शरण में जाओ।
वे ही तुम्हारे दु:खों को दूर कर सकते हैं। शिवजी के ऐसे वचन सुनकर सभी देवता क्षीरसागर में पहुँचे। वहाँ भगवान को शयन करते देख हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे, कि हे देवताओं द्वारा स्तुति करने योग्य प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है, देवताओं की रक्षा करने वाले मधुसूदन! आपको नमस्कार है। आप हमारी रक्षा करें। दैत्यों से भयभीत होकर हम सब आपकी शरण में आए हैं।
आप इस संसार के कर्ता, माता-पिता, उत्पत्ति और पालनकर्ता और संहार करने वाले हैं। सबको शांति प्रदान करने वाले हैं। आकाश और पाताल भी आप ही हैं। सबके पितामह ब्रह्मा, सूर्य, चंद्र, अग्नि, सामग्री, होम, आहुति, मंत्र, तंत्र, जप, यजमान, यज्ञ, कर्म, कर्ता, भोक्ता भी आप ही हैं। आप सर्वव्यापक हैं। आपके सिवा तीनों लोकों में चर तथा अचर कुछ भी नहीं है।
सूर्य बनकर स्वयं ही प्रकाश करता है। स्वयं ही मेघ बन बैठा है और सबसे अजेय है। हे असुर निकंदन! उस दुष्ट को मारकर देवताओं को अजेय बनाइए।
यह वचन सुनकर भगवान ने कहा- हे देवताओं, मैं शीघ्र ही उसका संहार करूंगा। तुम चंद्रावती नगरी जाओ। इस प्रकार कहकर भगवान सहित सभी देवताओं ने चंद्रावती नगरी की ओर प्रस्थान किया। उस समय जब दैत्य मुर सेना सहित युद्ध भूमि में गरज रहा था। उसकी भयानक गर्जना सुनकर सभी देवता भय के मारे चारों दिशाओं में भागने लगे। जब स्वयं भगवान रणभूमि में आए तो दैत्य उन पर भी अस्त्र, शस्त्र, आयुध लेकर दौड़े।
भगवान ने उन्हें सर्प के समान अपने बाणों से बींध डाला। बहुत-से दैत्य मारे गए, केवल मुर बचा रहा। वह अविचल भाव से भगवान के साथ युद्ध करता रहा। भगवान जो-जो भी तीक्ष्णबाण चलाते वह उसके लिए पुष्प सिद्ध होता। उसका शरीर छिन्न-भिन्न हो गया किंतु वह लगातार युद्ध करता रहा। दोनों के बीच मल्लयुद्ध भी हुआ।
10 हजार वर्ष तक उनका युद्ध चलता रहा किंतु मुर नहीं हारा। थककर भगवान बद्रिकाश्रम चले गए। वहां हेमवती नामक सुंदर गुफा थी, उसमें विश्राम करने के लिए भगवान उसके अंदर प्रवेश कर गए। यह गुफा 12 योजन लंबी थी और उसका एक ही द्वार था। विष्णु भगवान वहां योगनिद्रा की गोद में सो गए। मुर भी पीछे-पीछे आ गया और भगवान को सोया देखकर मारने को उद्यत हुआ तभी भगवान के शरीर से उज्ज्वल, कांतिमय रूप वाली देवी प्रकट हुई। देवी ने राक्षस मुर को ललकारा, युद्ध किया और उसे तत्काल मौत के घाट उतार दिया।
श्री हरि जब योगनिद्रा की गोद से उठे, तो सब बातों को जानकर उस देवी से कहा कि आपका जन्म एकादशी के दिन हुआ है, अत: आप उत्पन्ना एकादशी के नाम से पूजित होंगी। आपके भक्त वही होंगे, जो मेरे भक्त हैं।
जय श्री हरि !
🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔
Story # 6 : "भक्तमाली और लड्डू गोपाल जी"
आज की कहानी: "*भक्तमाली और लड्डू गोपाल जी*"
पण्ड़ित श्री जगन्नाथ प्रसाद जी 'भक्तमाली' के भक्तिभाव के कारण वृंदावन के सभी संत उनसे बहुत प्रभावित थे और उनके ऊपर कृपा रखते थे। सन्तों की कौन कहे स्वयं 'श्रीकृष्ण' उनसे आकृष्ट होकर जब तब किसी न किसी छल से उनके ऊपर कृपा कर जाया करते थे।
एक बार श्री जगन्नाथ प्रसाद जी 'भक्तमाली' अपने घर में बैठे हारमोनियम पर भजन गा रहे थे। उसी समय एक बहुत ही सुन्दर बालक आकर उनके सामने बैठ गया, और तन्मय होकर भजन सुनने लगा। 'भक्तमाली' जी ने बालक का श्रृंगार देखकर समझा कि वह किसी रासमण्डली का बालक है जो उनके भजन से आकृष्ट होकर चला आया है। भक्तमाली जी ने भजन समाप्त करने के बाद बालक से पूछा -"बेटा तुम कहाँ रहते हो ?"
बालक ने कहा - "अक्रूर घाट पर भतरोड़ मन्दिर में रहता हूँ।"
भक्तमाली जी - "तुम्हारा नाम क्या है ?"
बालक - "लड्डू गोपाल।"
'भक्तमाली' जी - "तो तुम लड्डू खाओगे या पेड़ा खाओगे ?"
उस समय 'भक्तमाली' जी के पास लड्डू नहीं पेड़े ही थे इसलिए उन्होंने प्रकार पूछा। बालक ने भी हँसकर कहा - "बाबा, मैं तो पेड़ा खाऊँगा।" भक्तमाली जी ने बालक को पेडे लाकर दिये। वह बालक पेडे खाता हुआ और भक्तमाली जी की ओर हँसकर देखता हुआ चला गया। पर 'ठाकुर' जी बालक के रूप मे जाते-जाते अपनी जादू भरी मुस्कान और चितवन की अपूर्व छवि 'भक्तमाली' जी के ह्रदय पर अंकित कर गये।
अब उस बालक की वह छवि 'भक्तमाली' जी को सारा दिन और सारी रात व्यग्र किये रही। भक्तमाली जी के मन मे तरह तरह के विचार उठते रहे। "ऐसा सुंदर बालक तो मैंने आज तक कभी नहीं देखा। वह रासमण्डली का बालक ही था या कोई और ? घर मे ऐसे आकर बैठ गया जैसे यह घर उसी का हो कोई भय नहीं संकोच नहीं। छोटा सा बालक भजन तो ऐसे तन्मय होकर सुन रहा था जैसे उसे भजन मे न जाने कितना रस मिल रहा हो।
नहीं-नहीं वह कोई साधारण बालक नहीं हो सकता। कहीं वे 'भक्तवत्सल भगवान' ही तो नहीं थे जो नारद जी के प्रति कहे गये अपने इन वचनों को चरितार्थ करने आये थे :-
नाहं तिष्ठामि वैकुंठे योगिनां हृदयेषु वा।
तत्र तिष्ठामी नारद यत्र गायन्ति मद्भक्ताः।।
(पद्मपुराण)
"हे नारद ! न तो मैं अपने निवास वैकुंठ में रहता हूँ, न योगियों के ह्रदय में रहता हूँ। मैं तो उस स्थान में वास करता हूँ जहाँ मेरे भक्त मेरे पवित्र नाम का कीर्तन करते हैं और मेरे रूप, लीलाओं और गुणों की चर्चा चलाते हैं।"
जो भी हो वह बालक अपना नाम और पता तो बता ही गया है कल उसकी खोज करनी होगी।"
'भक्तमाली जी बालक के विषय मे तरह-तरह के विचार करते हुए सो गये।
श्री जगन्नाथ प्रसाद जी 'भक्तमाली' दूसरे दिन प्रातः होते ही भतरोड़ में अक्रुर मन्दिर पहुँचे। 'भक्तमाली' जी ने वहाँ सेवारत पुजारी जी से पूछा - "क्या यहाँ लड्डू गोपाल नाम का कोई बालक रहता हैं ?" पुजारी जी ने कहा - 'लड्डू गोपाल तो हमारे मन्दिर के ठाकुर जी का नाम है। और यहाँ कोई बालक नहीं रहता।' यह सुनते ही भक्तमाल जी सिहर उठे, उनके नेत्र डबडबा आये। अपने आँसू पोंछते हुए उन्होंने पुजारी जी से कहा - "कल एक बहुत खूबसूरत बालक मेरे पास आया था। उस बालक ने अपना नाम लड्डू गोपाल बताया था और निवास-स्थान अक्रुर मन्दिर। मैंने उसे पेड़े खाने को दिये थे, पेड़े खाकर वह बहुत प्रसन्न हुआ था। पुजारी जी कहीं आपके ठाकुर जी ने ही तो यह लीला नहीं की थी ?" पुजारी जी ने कहा - "भक्तमाली जी ! आप धन्य हैं। हमारे ठाकुर ने ही आप पर कृपा की, इसमें कोई सन्देह नहीं है। हमारे ठाकुर जी को पेड़े बहुत प्रिय हैं। कई दिन से मैं बाजार नहीं जा पाया था, इसलिए पेड़ों का भोग नहीं लगा सका था।" भक्तमाली जी ने मन्दिर के भीतर जाकर लड्डू गोपाल जी के दिव्य श्री विगृह के दर्शन किये। दण्डवत् प्रणाम् कर प्रार्थना की - "हे ठाकुर जी, इसी प्रकार अपनी कृपा बनाये रखना, बार-बार इसी आकर दर्शन देते रहना।"
पता नहीं भक्तमाली जी को फिर कभी लड्डू गोपाल ने उसी रूप में उन पर कृपा की या नहीं, लेकिन एक बार भक्तमाली जी अयोध्या गये थे। देर रात्रि में अयोध्या पहुँचे थे, इसलिए स्टेशन के बाहर खुले मे सो गये। प्रातः उठते ही किसी आवश्यक कार्य के लिए कहीं जाना था, पर सवेरा हो आया था उनकी नींद नहीं खुल रहीं थी। लड्डू गोपाल जैसा ही एक सुन्दर बालक आया और उनके तलुओं में गुलगुली मचाते हुए बोला - "बाबा, उठो । सवेरा हो गया, जाना नहीं है क्या ?" भक्तमाली जी हड़बड़ा कर उठे, उस बालक की एक ही झलक देख पाये थे कि वह बालक अदृश्य हो गया।
"जय जय श्री राधे कृष्णा!*
🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔
Story # 7 : श्रीकृष्ण अपने साथ द्रौपदी को लेकर पहुंचे भीष्म के पास और बच गया पांडवों का जीवन
कौरव और पांडवों के बीच महाभारत युद्ध शुरू हो गया था, लेकिन दुर्योधन को आशा के अनुरूप सफलता नहीं मिली तो उसने कौरवों के सेनापति भीष्म पितामह को लेकर बार-बार व्यंग्य करना शुरू कर दिया था। इस बात से दुखी होकर पितामह ने घोषणा कर दी कि वे कल सभी पांडवों का वध कर देंगे। जब ये बात पांडवों को मालूम हुई तो वे सभी चिंतित हो गए, क्योंकि भीष्म को युद्ध में हराना असंभव था।
उस दिन सूर्यास्त के बाद श्रीकृष्ण द्रौपदी को लेकर भीष्म पितामह से मिलने गए। श्रीकृष्ण शिविर के बाहर ही रुक गए और द्रौपदी से कहा कि अंदर जाकर पितामह को प्रणाम करो। श्रीकृष्ण की बात मानकर द्रौपदी भीष्म पितामह के पास गई और उन्हें प्रणाम किया। भीष्म ने अपनी कुलवधु को अखंड सौभाग्यवती भव का आशीर्वाद दे दिया।
भीष्म ने द्रौपदी से पूछा कि तुम इतनी रात में यहां अकेली कैसे आई हो? क्या श्रीकृष्ण तुम्हें यहां लेकर आए हैं? द्रौपदी ने कहा कि जी पितामह, श्रीकृष्ण शिविर के बाहर खड़े हैं।
ये सुनकर भीष्म तुरंत ही द्रौपदी को लेकर शिविर के बाहर आए और श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। भीष्म ने श्रीकृष्ण से कहा कि मेरे एक वचन को दूसरे वचन से काट देने का काम आप ही कर सकते हैं।
इसके बाद श्रीकृष्ण और द्रौपदी अपने शिविर की ओर चल दिए। रास्ते में श्रीकृष्ण ने द्रौपदी से कहा कि अब सभी पांडवों को जीवनदान मिल गया है। बड़ों का आशीर्वाद कवच की तरह काम करता है, इसे कोई अस्त्र-शस्त्र भेद नहीं सकता। आज तुमने एक बार पितामह को प्रणाम किया और सभी पांडव सुरक्षित हो गए। अगर तुम रोज भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि को प्रणाम करती और दुर्योधन-दुशासन की पत्नियां पांडवों को प्रणाम करती तो युद्ध की स्थिति नहीं बनती। सभी को अपने कुल के वरिष्ठ लोगों को सम्मान करना चाहिए, तभी जीवन में सुख-शांति बनी रहती है। वरना घर में क्लेश होता रहता है।
- WhatsApp: Click here
Story # 8: सुदामा दरिद्र क्यों?
सुदामा दरिद्र क्यों?
मेरे मन में सुदामा के सम्बन्ध में एक बड़ी शंका थी कि एक विद्वान् ब्राह्मण अपने बाल सखा कृष्ण से छुपाकर चने कैसे खा सकता है?
आज भागवत के इस प्रसंग में छुपे रहस्य को आपसे साझा करना जरुरी समझती हूँ ताकि आप भी समाज में फैली इस भ्रान्ति को दूर कर सकें।
सुदामा की दरिद्रता, और चने की चोरी के पीछे एक बहुत ही रोचक और त्याग पूर्ण कथा है; एक अत्यंत गरीब निर्धन बुढ़िया भिक्षा माँग कर जीवन यापन करती थी। एक समय ऐसा आया कि पाँच दिन तक उसे भिक्षा नही मिली। वह प्रति दिन पानी पीकर भगवान का नाम लेकर सो जाती थी। छठवें दिन उसे भिक्षा में दो मुट्ठी चने मिले। कुटिया पे पहुँचते पहुँचते उसे रात हो गयी। बुढ़िया ने सोंचा अब ये चने रात मे नही, प्रात:काल वासुदेव को भोग लगाकर खाऊँगी ।
यह सोंचकर उसने चनों को कपडे में बाँधकर रख दिए और वासुदेव का नाम जपते जपते सो गयी। बुढ़िया के सोने के बाद कुछ चोर चोरी करने के लिए उसकी कुटिया मे आ गये।
चोरों ने चनों की पोटली देख कर समझा इसमे सोने के सिक्के हैं अतः उसे उठा लिया। चोरो की आहट सुनकर बुढ़िया जाग गयी और शोर मचाने लगी। शोर शराबा सुनकर गाँव के सारे लोग चोरों को पकडने के लिए दौडे। चने की पोटली लेकर भागे चोर पकडे जाने के डर से संदीपन मुनि के आश्रम में छिप गये।
इसी संदीपन मुनि के आश्रम में भगवान श्री कृष्ण और सुदामा शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। चोरों की आहट सुनकर गुरुमाता को लगा की कोई आश्रम के अन्दर आया है गुरुमाता ने पुकारा, कौन है? गुरुमाता को अपनी ओर आता देख चोर चने की पोटली छोड़कर वहां से भाग गये। इधर भूख से व्याकुल बुढ़िया ने जब जाना कि उसकी चने की पोटली चोर उठा ले गए हैं तो उसने श्राप दे दिया, "मुझ दीनहीन असहाय के चने जो भी खायेगा वह दरिद्र हो जायेगा।"
उधर प्रात:काल आश्रम में झाडू लगाते समय गुरुमाता को वही चने की पोटली मिली। गुरु माता ने पोटली खोल के देखी तो उसमे चने थे। उसी समय सुदामा जी और श्री कृष्ण जंगल से लकडी लाने जा रहे थे।
गुरुमाता ने वह चने की पोटली सुदामा को देते हुए कहा बेटा! जब भूख लगे तो दोनो यह चने खा लेना।
सुदामा जन्मजात ब्रह्मज्ञानी थे। उन्होंने ज्यों ही चने की पोटली हाथ मे ली, सारा रहस्य जान गए। सुदामा ने सोचा, गुरुमाता ने कहा है यह चने दोनो लोग बराबर बाँट के खाना, लेकिन ये चने अगर मैने त्रिभुवनपति श्री कृष्ण को खिला दिये तो मेरे प्रभु के साथ साथ तीनो लोक दरिद्र हो जाएंगे।
नही नही मै ऐसा नही होने दूँगा। मेरे जीवित रहते मेरे प्रभु दरिद्र हो जायें मै ऐसा कदापि नही करुँगा। मै ये चने स्वयं खा लूँगा लेकिन कृष्ण को नही खाने दूँगा और सुदामा ने कृष्ण से छुपाकर सारे चने खुद खा लिए। अभिशापित चने खाकर सुदामा ने स्वयं दरिद्रता ओढ़ ली लेकिन अपने मित्र श्री कृष्ण को बचा लिया।
अद्वितीय त्याग का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले सुदामा, चोरी छुपे चने खाने का अपयश भी झेलें तो यह बहुत अन्याय है, परंतु मित्र धर्म निभाने का इससे बड़ा अप्रतिम उदाहरण नहीं मिल सकता। वास्तव में यही सच्चे मित्र की पहचान है यही सीख हमें इस प्रसंग से लेनी चाहिए।
#साभार
- Join us on WhatsApp: Click here
Story # 9 : आखिर कैसे राधा रानी किशोरी बनीं
पौराणिक कथा के अनुसार, द्वापरयुग में अष्टावक्र नाम के एक प्रकांड विद्वान एवं संत हुआ करते थे। ऋषि अष्टावक्र का शरीर अपने ही पिता द्वारा मिले हुए श्राप के कारण 8 स्थानों से टेढ़ा था। यानी की उनके शरीर के 8 अंगों की बनावट टेढ़ी-मेढ़ी थी।
इसी कारण से वह जहां भी जाते लोग उनका उपहास करते और लोगों का यह व्यवहार देख ऋषि अष्टावक्र उन्हें श्राप दे दिया करते। एक दिन ऋषि अष्टावक्र जब बरसाना पहुंचे तो वहां उनकी भेंट श्री राधा रानी से हुई।
राधा रानी श्री कृष्ण के साथ विराजमान थीं। अष्टावक्र जी को देख श्री राधा रानी धीमी-धीमी मुस्कुराने लगीं। जैसे ही अष्टावक्र जी ने उन्हें यूं मुस्कुराता देखा तो वह क्रोध वश राधा रानी को भी श्राप देने लगे।
परन्तु श्री कृष्ण ने अष्टावक्र जी को रोकते हुए उनसे निवेदन किया की वह श्राप देने से पहले एक बार राधा रानी के मुस्कुराने के पीछे का कारण जान लें। जब अष्टावक्र जी ने कारण पूछा तोश्री राधा रानी ने उन्हें अपने हसने का मुख्य कारण बताया।
श्री राधा रानी ने कहा की वह अष्टावक्र जी के अंतर्मन में समाहित श्री कृष्ण की छवि देखकर हंस रही हैं। अष्टावक्र के भीतर का ज्ञान और उस ज्ञान के स्रोत कृष्ण की मनोरम छवि से श्री राधा रानी आनंदित हो रही हैं।
राधा रानी की पूर्ण बात सुन अष्टावक्र ऋषि ने अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी और प्रसन्न होकर राधा रानी को आजीवन किशोर अवस्था में रहने का वरदान दे दिया। किशोर अवस्था से ही राधा रानी का नाम किशोरी पड़ गया।
तभी से श्री राधा रानी को किशोरी जी कहा जाने लगा और आज भी ब्रज की हर बालिका को किशोरी जी का ही रूप माना जाता है। राधा रानी की किशोरी रूप में पूजा भी की जाती है और उनका भव्य श्रृंगार भी होता है।
तो ये थी श्री राधा रानी के किशोरी नाम पड़ने के पीछे की कथा। अगर आपको यह स्टोरी अच्छी लगी हो तो इसे फेसबुक और WhatsApp पर जरूर शेयर करें और इसी तरह के अन्य लेख पढ़ने के लिए जुड़ी रहें हमारे साथ।
Comments
Post a Comment
Thank you so much for showing trust and visiting this site. If you have any queries and doubts regarding this topic, do ask it in the comment box or contact 94179 02323. We would definitely reply.
Follow us for regular updates.
NOTE: KINDLY DON'T USE ANY CONTENT WITHOUT MY CONSENT.